बेबी हालदार जैसी बनें हर मेहनतकश स्त्री
भारत की पहली कामवाली लेखिका है बेबी हालदार। जो संघर्ष स्त्री होने के कारण, दलित और रिफ्यूजी होने के कारण बेबी हालदार को करना पड़ा, उसकी तुलना किसी और लेखक के साथ की नहीं जा सकती। जिंदगी जीने के लिए कदम- कदम पर उसे लड़ना पड़ा और अब कैंसर के मुकाबले सालभर से लड़ रही है मौत को भी शिकस्त देने के लिए। हम सभी उसके साथ हैं। उस बहादुर स्त्री के साथ, जो भारत और बाकी दुनिया की सभी उत्पीड़ित स्त्रियों की बुलंद आवाज है। चुप रहने से हक नहीं मिलते। भारत में बेबी हालदार जैसी बन जाए हर मेहनतकश स्त्री तो इस देश की सूरत बदल जाएगी। लैंगिक भेदभाव, अस्पृश्यता, विस्थापन, अन्याय, असमानता, दमन, उत्पीड़न के प्रतिरोध का नाम है बेबी हालदार। अपनी आत्मकथा ‘आलो-आँधारि’ से उसने साबित किया है कि हर मेहनतकश औरत चाहें तो न सिर्फ लिख सकती है, बल्कि पारदर्शिता के मामले में, सच को सच कहने के साहस के हिसाब से किसी से भी बेहतर हैसियत हासिल कर सकती है। सौंदर्यशास्त्र, व्याकरण और वर्चस्व के तिलिस्म को तोड़कर अपना मुकाम हासिल कर सकती है। हमें बेबी हालदार जैसी सैकड़ों, हजारों रचनात्मक ऊर्जा, साहस और विवेक से संपूर्ण मेहनतकश लेखिकाएं चाहिए अपने देश, अपनी दुनिया के लिए।
झाड़ू-पोंछा, चौका-बरतन करनेवाली स्त्रियों को भारतीय समाज किस दृष्टि से देखता है? दलित, आदिवासी, विस्थापित स्त्रियों को? इस देश की सामाजिक संरचना अत्यंत जटिल है। जाति व्यवस्था के तहत बहुसंख्यक हिंदू समाज साढ़े छह हजार जातियों में बँटा हुआ है। सवर्ण, पिछड़ा, दलित के विभाजन के अलावा पिछड़ी और दलित जातियां एक-दूसरे को नीचा समझती हैं। ऊँची जातियां ही नहीं, पिछड़ी जातियां दलितों को और दलित भी अपनों को अस्पृश्य मानकर चलती हैं। फिर धर्मों में, आस्था में भी बँटा हुआ है देश। जाति व्यवस्था, धर्म और आस्था के दायरे से अलग आदिवासी हैं, जो देश की बाकी आबादी से अलग हैं। इस जटिल सामाजिक संरचना में सभी स्त्रियां लैंगिक भेदभाव की शिकार हैं। चाहे उसकी सामाजिक, आर्थिक स्थिति कुछ भी हो। लेकिन भेदभाव की व्यवस्था ऐसी है कि हर मनुष्य दूसरे मनुष्य के खिलाफ है तो हर स्त्री दूसरी स्त्री के खिलाफ। कामवाली औरतों के बारे में समाज की बाकी स्त्रियों का नजरिया भी सही नहीं है, जबकि उनके बिना भद्र महिलाओं की दिनचर्या चल नहीं सकती। बेबी हालदार की विस्फोटक रचनात्मकता और उसकी लेखकीय हैसियत भेदभाव पर आधारित इस जटिल सामाजिक संरचना के विरुद्ध जबर्दस्त प्रतिरोध है। जबकि उसके लेखन में कोई दर्शन नहीं है, राजनीति नहीं है, विचारधारा नहीं है। सौ फीसद सच है और उसकी ताकत ही बेबी हालदार को बेबी हालदार बनाती है।
21 सितंबर, 2021 को बेबी ने फोन करके बताया कि कोरोना ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा। उसने कहा कि यह देश अरबपतियों का देश है। आम लोगों की हालत दिनोंदिन खराब होती जा रही है। देश की जो अर्थव्यवस्था है, उस पर जिन इने-गिने लोगों का शिकंजा है, उनके पास अकूल दौलत है। बाकी लोग खैरात पर जी रहे हैं। महामारी और लॉकडाउन में आम आदमी के लिए जीने का सहारा नहीं रहा। बेबी हालदार के लिए भी नहीं। सबका सत्यानाश हो गया।
उस वक्त चार महीने से वह गुड़गाँव में थी। चार महीने पहले उसके पिता का निधन हो गया। उससे पहले उसके ‘तातुश’ का निधन हो गया। जिन्होंने उसे कलम पकड़कर लिखना सिखाया। घर में कामवाली को बेटी का दर्जा दिया। तब बेबी ने लिखा था, ‘‘आज हमने अपने जीवन का एक अमूल्य रत्न खो दिया है। आज जिस बेबी हालदार को आप जानते हैं, उसको एक नई जिंदगी इन्हीं की वजह से मिली है। मैंने दुनिया में उनके जैसा बहुत कम लोगों को देखा है, जो हमेशा दूसरों के बारे में पहले सोचते हैं। वह मेरे लिए पिता की तरह थे और मैं उन्हें ‘‘तातुश’’ कहकर पुकारती थी। मैं वह दिन कभी नहीं भूल सकती, जिस दिन उन्होंने मुझे कलम और एक नोटबुक दी और मुझे लिखने के लिए कहा, ‘‘कुछ भी लिखो, जो तुम चाहती हो!’’ उस दिन, पहली बार मैंने कुछ लिखा। बाद मंे उनके मार्गदर्शन और प्रोत्साहन के द्वारा पहली पुस्तक ‘आलो- आँधारि’ (A Life Less Ordinary) की प्रसिद्ध लेखिका बन गई। आज मैं उनके निधन से बहुत दुःखी हूँ। प्रार्थना करती हूँ कि उनकी आत्मा को शांति मिले।’’ बेबी के तातुश प्रबोध कुमार महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद के दौहित्र थे। उन्होंने मूल बांग्ला पांडुलिपि से आलो-आँधारि का अनुवाद करके हिंदी में प्रकाशित करवाया था। मूल रचना बांग्ला में बाद में छपी।
बहुत घने अवसाद का स्पर्श भी मन को उदास कर देता है। हम बेबी के संघर्ष और उत्थान को जानते हैं। पूरी दुनिया जानती है। तातुश और पिता के निधन के बाद बेबी एकदम अकेली रह गई। कोरोना ने उसकी नौकरी छीन ली। उसके बेटे की नौकरी भी चली गई। बेबी ने कहा, ‘‘सबसे बुरा हाल मेहनतकश औरतों का है, जिनकी कमाई से बच्चों और परिवार के लिए चूल्हा जलता है।’’ इन औरतों में वह खुद भी शामिल हो गई। विश्व प्रसिद्ध लेखिका होने के बावजूद कामवाली बेबी हालदार। उसने कोलकाता में दसों दिशाओं से आने वाली ‘मासी ट्रेनों’ का जिक्र किया। उनकी रोजमर्रे की जिंदगी का उल्लेख किया, जो लाखों की संख्या में अपने गाँव से लंबा सफर तय करके हर सुबह महानगर के घरों को सँभालने के लिए आ जाती हैं। उन्हें हिकारत की दृष्टि से ‘मासी’ कहते हैं लोग। हम नहीं जानते कि इन लाखों कामवालियों में बेबी हालदार जैसी कितनी स्त्रियां हैं, जिनके कलम पकड़ने से दुनिया बदल जाएगी। हम बेसब्री से उन सभी को खेाज रहे हैं। कोलकाता की तरह राजधानी नई दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, बेंगलुरू, अहमदाबाद जैसे महानगरों में करोड़ों की तादाद में कामवाली, मेहनतकश औरतेें बिना चेहरे, बिना दिल ओ दिमाग अपने शरीर को दिहाड़ी की भट्टी में झोंक देती हैं। क्या उनका मन नहीं है? क्या वे सिर्फ देह हैं? देह ही उनका भूगोल और इतिहास है पितृसत्ता के बहुआयामी तंत्र में? क्या हम जानते हैं कि इनके बीच कोई बेबी हालदार कैसे दम तोड़ देती है? खामोश। उन्हें खोजें जरूर।
‘प्रेरणा-अंशु’ की ओर से दिनेशपुर इलाके के स्कूली बच्चों से बेबी का संवाद हुआ था। बच्चों ने उनके बारे में, उनकी किताब के बारे में, जिंदगी के बारे में उनसे असंख्य सवाल पूछे थे। कार्यक्रम के बाद वह मेरे गाँव बंसतीपुर, हमारे घर भी आई थीं। गाँवभर की लड़कियां आई थीं बेबी से मिलने। बेबी बंसतीपुर को याद कर रही थी।
मैं उसके दुःखी मन को और दुःखी नहीं करना चाहता था। मैं कह नहीं सका कि महामारी के समय उन सभी लड़कियों की पढ़ाई रोक दी गई, जो उससे मिलने आई थीं। उनके पंख काट दिए गए, फिर उन जख्मी, लहूलुहान बेटियों की शादी करा दी गई। वे पढ़ना चाहती थीं। उनकी भी मंजिलें थीं। उनके अपने सपने थे। उनकी अपनी दुनिया थी। वे पढ़ नहीं सकी। गृहस्थी और बच्चों को सँभाल रही हैं। दूसरों के घर में न सही, जिस अपने घर में गईं, वहाँ कामवाली बनकर रह गईं, लेकिन अब वे कुछ नहीं बन सकतीं। क्योंकि उनमें से कोई बेबी हालदार नहीं है। होगी भी तो ‘तातुश’ तो हर घर में नहीं होता!
कामवाली से दूसरी औरतें क्या अलग हैं? उनकी जिंदगी भी तो रसोई में झोंक दी जाती है। जहाँ वह झुलसती, जलती जिंदा तो रह जाती है, लेकिन साँस नहीं ले सकती। उनकी कोई आवाज भी नहीं होती। जो पढ़ी-लिखी, सक्षम और आत्मनिर्भर होती हैं, क्या उनकी कोई आपबीती नहीं होती? क्यों नहीं लिख पाती वे अपनी आपबीती बेबी हालदार की तरह?
बेबी प्रेरणा-अंशु के 36वें वार्षिकोत्सव के लघु पत्रिका सम्मेलन में, फिर विस्थापन और पुनर्वास पर केंद्रित प्रेरणा-अंशु के 37 वें वार्षिकोत्सव में भी आईं। हमारे साथ रही। शक्तिफार्म और दिनेशपुर के बंगाली विस्थापितों के बीच गई। पिछले साल जब आई, तब उसके कैंसर का इलाज चल रहा था। फिर भी वह चली आई। उसके लिखने की स्थिति नहीं थी। फिर भी लिखा। क्या लिखा? बेबी हालदार ने बंगाली विस्थापितों की आपबीती पर रूपेश कुमार सिंह की लिखी किताब ‘छिन्नमूल’ की भूमिका में लिखा, ‘‘तब भूखे, नंगे लोगों ने जीने के लिए क्या-क्या नहीं किया? क्या-क्या नहीं सहा? वे गुहार लगाते थे-‘‘भात न देबे तो माड़ टुकु दाओ।’’ खंडित भारत के लोग उन्हें भीख देने से डरते थे, मदद करने से हिचकते। वे लोग तब अवांछित घुसपैठिया समझे गए। आज भी अपने देश में वे अवांछित घुसपैठिया हैं। वे लोग, जिन्होंने आजादी की कीमत चुकाई, भारत की आजादी और पाकिस्तान की आजादी की, बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम की कीमत भी उन्होंने चुकाई। अखंड भारत के जो नागरिक थे, रातोंरात विभाजन की त्रासदी में अपने घर, खेत, जानमाल से बेदखली के साथ नागरिकता से भी बेदखल हो गए। 75 सालों की आजादी में उनकी नागरिकता अभी बहाल नहीं हुई। इन्हें ‘बांग्लादेशी घुसपैठिया’ कहने से नहीं हिचकते लोग। इन्हें भारत से खदेड़ना चाहते हैं लोग।’’ यह भी बेबी हालदार की आपबीती है।
बेबी हालदार की आत्मकथा क्या सिर्फ उसकी आत्मकथा है? यह कथा सार्वभौम नहीं होती, तो दुनियाभर में अलग-अलग भाषाओं में इसका इतना सघन असर कैसे हो गया? भारत में तो जो कामवालियां हैं, और जो भद्र महिलाएं हैं, अन्याय, उत्पीड़न, भेदभाव सहना ही उनकी नियति है। जाति व्यवस्था, धर्म, विस्थापन, राजनीति चाहे जो कारण हों-उनकी आपबीतियां हमशक्ल हैं। फर्क यही है कि बेबी हालदार लिख पाती है। बाकी स्त्रियों में सच कहने की हिम्मत नहीं है।
कैंसर को हराकर बेबी हालदार का जिंदा रहना इसी लिए जरूरी है।