आतुर-आकुल आँखों में कठिन दुखों का काजल आँजती

छोटे-छोटे कदमों से खुशियों का आकाश नापतीं
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छोटे-छोटे कदमों से खुशियों का आकाश नापतीं

सुबह की सैर पर दिखाई देनेवाले बहुत से दृश्यों में से एक चिरपरिचित दृश्य यह भी है। यादवपुर विश्वविद्यालय प्रांगण से रेलवे स्टेशन की ओर निकलनेवाली सड़क पर सुबह के समय साड़ी में लिपटी साधारण-सी लगने वाली औरतों का हुजूम गुजरता हुआ दिखाई देता है। अपने में मगन, बोलती-बतियाती, कभी धीमे तो कभी तेज कदमों से चलती ये औरतें सहज ही अपने आस-पास के तथाकथित भद्र समाज के लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचती हैं। ये वे औरतें हैं, जिनपर हमारे भद्र माने जाने वाले समाज का सारा बोझ टिका है। इनकी एक दिन की अनुपस्थिति हमारे सजे-सजाए घर को बिखराव की तस्वीर में बदल देती है। इसके बावजूद हमारी आँखों में अक्सर इनके लिए नेह या संवेदना की जगह तिरस्कार और उपेक्षा ही होती है।
एक घटना याद आ रही है। एक बार सुबह- सुबह हावड़ा स्टेशन से इ वन बस में बैठी थी, जिसमें सामने की तरफ वाली सीट पर एक कामकाजी भद्र महिला बैठी थीं। दूसरे स्टॉप पर अपनी सब्जियों की टोकरी के साथ एक सब्जीवाली चढ़ी और उनसे थोड़ी-सी दूरी पर बैठ गई। वह बार- बार नाक भौं सिकोड़ती हुईं उसे पीछे की ओर जाने के लिए कहती रहीं। शायद एक सब्जीवाली के साथ बैठने में उन्हें हतक महसूस हो रही थी। इस बीच उसकी कुछ और सहेलियां बस में चढ़ीं, जिनके साथ हँसी मजाक में मशगूल होकर उसने उनकी हिकारत को नजरअंदाज कर दिया, लेकिन इसपर भी जब उनका बड़बड़ाना कम न हुआ तो उतरते हुए वह उन्हें सुनाना नहीं भूली- ‘‘दीदी, हम लोगों से इतनी तकलीफ है तो टैक्सी से जाइए। हमने भी भाड़ा दिया है, हमें अपनी पसंद की सीट पर बैठने का पूरा हक है।’’
अच्छा लगा इन्हें अपने हक के लिए आवाज उठाते देखकर। उनके सहज लेकिन जुझारू व्यक्तित्व पर मन रीझ उठा। जब इन असंख्य स्त्रियों के बारे में सोचती हूँ तो मुझे अनायास उत्तर प्रदेश के सुदूर गाँव में अवस्थित अपना ननिहाल याद आता है। वहाँ सामाजिक धरातल पर संपन्न माने जानेवाले घरों में कामकाज के लिए कुछ लोग आवश्यक होते थे। हालाँकि आज के दौर में जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल असंवैधानिक है, लेकिन उस दौर में कहार जाति के लोग हमारी जिंदगी को आसान बना देते थे। पुरुष कुएँ से पानी भर लाते थे और उनकी स्त्रियां बरतन साफ करके गृहणियों का काम आसान करती थीं। नाइन औरतों के नाखून वगैरह काटने के साथ घरों में नेवता देने या बैना बाँटने का काम करती थी। उस दौर में कामकाजी स्त्री की बात उठने पर अक्सर लोगों की नजर स्कूल में पढ़ाने वाली मास्टरनियों की ओर उठ जाती थी, जिनकी जिंदगी इस मायने में चुनौतीपूर्ण थी कि भोर के धुँधलके में अपने घर के काम काज निपटा कर, दो कोस पैदल चलकर वे पाठशाला में पढ़ाने जाती थीं और शाम के अँधेरे में जब घर लौटती थीं तो फिर से उन्हें उसी घानी में जुटना पड़ता था। लेकिन जो औरतें अपने घर का चौका-चूल्हा निपटा कर हमारे घर का कचरा साफ कर इन कामकाजी गृहणियों या खालिस गृहणियों की थोड़ी मदद करती थीं, उन्हें तो हमने कभी कामकाजी माना ही नहीं। जो स्त्री कंधे पर झोला, बाद में खूबसूरत पर्स लटकाकर काम पर न जाए और इसके एवज में हर महीने तनख्वाह न लाए, वह भला कामकाजी कहाँ हुई? लेकिन मैं अपने बचपन में देखी हुई उन तमाम स्त्रियों को याद करने बैठती हूँ, तो लगता है कि वे न होतीं तो हमारा क्या होता?
शहर में लौटती हूँ तो कैनिंग लोकल, लक्खीकांतपुर लोकल, सोनारपुर लोकल से हर रोज सुबह फूली, सुनीता, प्रतिमा, रजिया, बसंती जैसी जो सैकड़ों लड़कियां, स्त्रियां उतरती हैं और कोलकाता की गलियों में समा जाती हैं, क्या उनके बिना जीवन की कल्पना की जा सकती है? मुँह अँधेरे उठकर, अपना चौका बासन समेट कभी एक बिस्कुट चबा कर या खाली पेट, वे निकल पड़ती हैं। चाय की तलब होने पर गंतव्य स्टेशन पर पहुँचकर अपनी संगिनियों के साथ बैठकर एक कप चाय, कभी मूड़ी तो कभी बिस्कुट के साथ सुड़क कर अपने बँधे हुए घरों तक पहुँच जाती हैं। कभी नींद गहरा जाती है तो सही समय पर ट्रेन नहीं पकड़ पातीं और जब देर से हमारे घर पहुँचती हैं तो अपनी आँखें आसमान में चढ़ाकर हम पूछ बैठते हैं, ‘‘कि होलो, एतो देरी? (क्या हुआ, इतनी देर..?)’’ और वे हड़बड़ाती हुई कह बैठती हैं, ‘‘ट्रेन फेल कोरेची गो दीदी, घूमिए पड़ेछिलाम। (ट्रेन छूट गई दीदी, सो गई थी)’’ किसी दिन यह भी कहती हैं, ‘‘ट्रेन रद्द हो गई थी। काफी देर इंतजार के बाद दूसरी ट्रेन से आई।’’ इन सब असुविधाओं के बावजूद अपने काम में पूरी तरह से मुस्तैद, घर में प्रवेश के साथ ही, सधे हाथों से एक-एक काम को अंजाम देती हैं। कभी जब मुझ जैसी कामकाजी गृहणियां अपने कर्मक्षेत्र पर पहुँचने की हड़बड़ाहट में होती हैं तो नाराज होती हुई कह बैठती हैं, ‘‘इतनी देर से आने से कैसे चलेगा? मुझे भी तो निकलना है। जल्दी से रसोई साफ करो, उसके बाद दूसरा काम करना।’’ जब हाथों में थोड़ा-सा समय होता है, तब कहती हैं ‘‘पहले चाय पी लो, नाश्ता कर लो, उसके बाद काम करना’’ और वे जल्दी-जल्दी नाश्ता खत्म करके काम में जुट जाती हैं। कुछ अच्छा बना हो या स्वाद पसंद आया हो तो तृप्ति से भरकर कह बैठती हैं- ‘‘तरकारी बहुत अच्छी है दीदी या हलवा बहुत स्वादिष्ट है।’’ कभी-कभी मुझे लगता है कि मेरी घरेलू सहायिका सुनीता मेरी सहेली बन चुकी है, जैसे वह अपनी छोटी- छोटी खुशियां और बड़ी कठिनाइयां मुझसे बाँट लेती है, ठीक उसी तरह मैं भी अपनी समस्याएं उससे साझा कर लेती हूँ। घर में आनेवाले मेहमानों से जब वह मिलती है तो बढ़े हुए काम के बोझ के बावजूद बड़ी आत्मीयता से उनसे पूछती है, ‘‘अच्छे तो हैं ना? बहुत दिनों बाद आए।’’ इस तरह मेरे मेहमान उसके बन जाते हैं।
सुनीता, रजिया, फूली, प्रतिमा हमारे लिए सिर्फ नाम भर नहीं हैं, इनके बिना हमारा जीवन थम सा जाता है। मुझे कोरोना का कठिन समय याद आता है, जब तालाबंदी के कारण वाहनों का आवागमन बंद था और ये सहायिकाएं अपनी मजबूरी के कारण अपने-अपने घरों में कैद रहने को विवश हो गई थीं। न उनके पास आने का कोई विकल्प था और न हमारे पास उनके स्थान पर किसी और को नियुक्त करने की सुविधा। असुविधा दोनों पक्षों ने झेली, लेकिन थोड़ा ठहरकर सोचती हूँ तो लगता है कि हमारी असुविधाओं से उनकी दिक्कतें कहीं ज्यादा बड़ी थीं। बहुत से घरों ने अपनी आर्थिक असुविधाओं के मद्देनजर इन लोगों का मासिक वेतन रोक दिया था। कुछ समर्थ लोगों ने भी ‘‘नो वर्क नो पे’’ का हवाला देते हुए अपने हाथ खड़े कर दिए थे, लेकिन कुछ संवेदनशील लोगों ने अपनी दिक्कतों के साथ, उनकी मुश्किलों को भी समझा और उनके साथी बने। मेरे एक मित्र ने बताया कि वह अपनी घरेलू सहायिका का वेतन उसके बैंक एकाउंट में जमा करवाते रहे, किंतु इनमें कुछ ऐसी भी थीं, जिनके पास बैंक एकाउंट भले था, लेकिन ब्यौरा साझा करने की सहूलियत या सलीका न था।
अपनी सहायिका की कथा याद आती है। तालाबंदी के तकरीबन दो महीने बाद एक दिन सुनीता का फोन आया, ‘‘दीदी कल सुबह आऊँगी।’’ मेरे पूछने पर ‘‘कैसे आओगी, ट्रेन तो चल नहीं रही,’’ उसने बताया कि बेटे की मोटर साईकिल पर बैठकर आएगी। किसी से पैसे उधार लेकर पेट्रोल का प्रबंध किया है। मैंने कहा, ‘‘अच्छा, आओ। अपनी तनख्वाह के पैसे ले जाना।’’ दूसरे दिन भोर के झुटपुटे में जब मैं प्रातः भ्रमण के लिए निकल रही थी, इमारत के मुख्य दरवाजे पर सुनीता को प्रतीक्षारत पाया। थोड़ी-सी खीज भी हुई कि इतनी सुबह कैसे आई, लेकिन उसका सूखा हुआ चेहरा देखकर सारी खीज जाती रही। मैंने उसे उसकी तनख्वाह के पैसे पकड़ाए और सैर पर चल दी। घर में बुलाते हुए थोड़ा डर सा महसूस हो रहा था। वह समय ही ऐसा था। हम अपने अपनों तक की परछाई से दूर भाग रहे थे। मीडिया ने हमें अतिरिक्त रूप से सतर्क और असंवेदनशील बना दिया था। खैर, थोड़ा-सा आगे बढ़ने पर मुझे अपनी असंवेदनशीलता पर शर्म आई और मैं पीछे लौट पड़ी। सुनीता तब तक बेटे के साथ वहीं खड़ी थी। उसे और भी घरों में जाना था और वह सही समय की प्रतीक्षा कर रही थी। मैंने उससे कहा, चलो ऊपर चलो। चाय बनाकर खुद भी पी, उसे और उसके बेटे को पिलाया, उसका दुख- सुख सुना। उसने कुछ दिनों बाद यथावत आने के वायदे के साथ विदा ली।
तालाबंदी के दौरान सबसे ज्यादा तकलीफ इन लोगों ने झेली। भले ही कहनेवाले यह कहते रहे कि सरकार ने इनकी खूब मदद की, लेकिन वहाँ भी दलगत राजनीति का बोलबाला रहा। अपने रंग और पक्ष के लोगों की मदद की गई और उसका प्रचार देशभर में किया गया। बाद के क्रमशः सामान्य होते दिनों में भी इनकी मुश्किलें कम नहीं हुईं। बहुत से घर जो खुद छँटनी के दबाव तले पिस रहे थे, वहाँ इनकी छँटनी कर दी गई तो कहीं कोरोना के संक्रमण के भय से इन्हें हटा दिया गया। कहीं अतिरिक्त सतर्कता के कारण इतने नियम कायदे लाद दिए गए कि इनके लिए साँस लेना मुश्किल हो गया।
मेरे आस-पास इन कामकाजी औरतों की बहुत बड़ी तादाद नजर आती है, जो अपनी छोटी -मोटी जरूरतों के लिए तो कभी घर का खर्च चलाने के लिए अपने घर की सीमा का अतिक्रमण कर निकल पड़ती हैं, औरों का घर सँवारने। इनमें बड़ी संख्या आयाओं की भी है। प्रायः इनका पंजीकरण किसी आया सेंटर में होता है क्योंकि उसी भरोसे पर लोग इन्हें अपने घरों में नौकरी पर रखते हैं। इनमें से कुछ स्त्रियां हमारे घरों में इतनी आसानी से रम जाती हैं कि घरेलू सदस्य बन जाती हैं तो कुछ के लिए दो चार दिन टिकना भी कठिन होता है। बिना किसी प्रशिक्षण के ये आयाएं बहुधा गृहस्वामियों/ स्वामिनी की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरतीं और इन्हें विदा कर दिया जाता है। इनमें से कुछ स्त्रियां तरह- तरह के शोषण का शिकार भी बनती हैं। बहुधा किसी घर में रम जाने पर ये सेंटर से अपना नाता तोड़ लेती हैं क्योंकि सेंटर इनसे इनकी तनख्वाह का एक हिस्सा कमीशन के रूप में वसूलता है। थोड़ी-सी कम तनख्वाह पर भी वे नियमित और निश्चित आय के जरिए को बनाए रखना चाहती हैं। घरवालों को इनकी और इनको घरवालों की आदत पड़ जाती है। लेकिन कभी कभार छोटी -मोटी कहा सुनी या मान अभिमान के कारण दोनों ओर से भावनात्मक शोषण का सिलसिला आरंभ हो जाता है। कहीं-कहीं नौजवान महिलाओं को यौन शोषण भी झेलना पड़ता है। एक दिन पड़ोस में कुछ कहा- सुनी की आवाज सुनाई दी।
बाद में पता चला कि बच्चे की देखभाल करनेवाली आया को मालिक ने कुप्रस्ताव दिया था और इसी बात पर उसने हल्ला मचाया था। दुख की बात यह थी कि मालिक और मालकिन दोनों ने उस आया को तुरंत नौकरी से अलग कर दिया। एक स्त्री होकर भी मालकिन ने दूसरी स्त्री का दर्द नहीं समझा, क्योंकि इससे उनके घर की इज्जत खतरे में पड़ जाती। इस तरह बहुत-सी सहायिकाओं पर चोरी का झूठा इल्जाम लगाकर भी घर से निकाल दिया जाता है ताकि वह कहीं जाकर उनकी कोई शिकायत न कर पाएं। यह बात और है कि चोरी की कुछ घटनाएं सच्ची भी होती हैं।
देश के बदलते माहौल और वातावरण में घुलते वैमनस्य का असर भी इन सहायिकाओं पर पड़ता है। मेरी एक मित्र अपनी नन्हीं बिटिया की देखभाल के लिए एक आया की तलाश में थीं। किसी ने उन्हें बताया, ‘‘एक औरत है, काम की तलाश में, रखोगी?’’ उनके हामी भरने पर कहा गया, ‘‘लेकिन एक समस्या है, वह मुसलमान है।’’ उन्होंने आश्चर्य प्रकट किया, ‘‘क्या हुआ? मुझे काम से मतलब है न कि जाति और धर्म से’’ और उस लड़की अर्थात रजिया ने बेहद ईमानदारी से बरसों बरस उनके घर में काम किया। लेकिन इस किस्से से समाज की वास्तविक तस्वीर साफ हो जाती है। अगर ये स्त्रियां मुसलमान हैं तो इन्हें हिंदू घरों में जगह नहीं मिलती। फिर अक्सर ये अपना नाम बदल लेती हैं और अपनी और हमारी जिंदगी की गाड़ी ढकेलती हैं। इन असुविधाजनक स्थितियों के बावजूद इनके होठों पर मुस्कान सजी होती है और छोटी -छोटी उपलब्धियों पर उनकी हँसी खिल उठती है।
इन स्त्रियों के सपने बेहद साधारण होते हैं और जब वे पूरे हो जाते हैं तो इनके लिए जिंदगी बेहद आरामदेह हो जाती है। मसलन एक समय मेरे घर में आया के रूप में काम करनेवाली अच्छे व्यक्तित्व की धनी खूबसूरत दुर्गा के मात्र दो ही सपने थे, पहला-उसकी एकमात्र बेटी थोड़ी बहुत पढ़ाई कर ले और उसकी किसी अच्छे से घर में शादी हो जाए और दूसरा-उसका अपना एक घर हो जाए। बेटी की शादी का सपना तो पूरा हो गया लेकिन घर का सपना अभी भी अधूरा है और उसे पूरा करने के लिए वह अधेड़ावस्था में भी दूसरों के घरों में भोजन पकाने का काम करती है। एक थकान जरूर कभी कभार उसके चेहरे पर पसरी दिखाई पड़ती है लेकिन मुस्कान मद्धिम नहीं पड़ी है, जो बताती है कि सपना अभी भी जिंदा है। सुनीता के घर का सपना जरूर पूरा हो गया लेकिन बच्चों को लेकर उसकी उम्मीदें पूरी नहीं हुई। सोलह वर्ष की उम्र में एक शराबी के साथ बाँध दी गई। सुनीता की आशाएं अपने दोनों बच्चों पर टिकी थीं।
लेकिन प्रकारांतर से दोनों की वजह से उसे तरह-तरह की परेशानियां झेलनी पड़ी। इन सबके बावजूद जब भी मैं घर का दरवाजा खोलती हूँ, वह मुस्कराती हुई दिखाई पड़ती है। जिस दिन चेहरे पर उदासी की परत पुती होती है, जरा-सा कुरेदने पर उसका दुख उसकी जुबान से बरस पड़ता है। बच्चों से मिली उपेक्षाओं के बावजूद वह उनके प्रति मंगलकामना से भरी दिखाई देती है और क्षणिक क्रोध तथा उदासी को विस्मृत कर उनकी जिंदगी को सहज बनाने में लगी रहती है। कभी-कभी सोचती हूँ कि ये स्त्रियाँ इतनी ऊर्जा लाती कहाँ से हैं? क्या इन्हें अवसाद नहीं घेरता? फिर उत्तर उनकी झिलमिलाती मुस्कान में प्रतिबिंबित हो उठता है। घेरता क्यों नहीं, लेकिन वे उसे श्रम की चक्की में पीस देती हैं, झाड़न से झटक देती हैं और साड़ी का पल्लू कमर में कस दुगने उत्साह के साथ जीवन रण में कूद पड़ती हैं। तीज- त्यौहारों पर हमसे कहीं ज्यादा उत्साह उनमें दिखाई पड़ता है। बड़े उछाह से त्योहारों की तारीखों के बारे में पूछती हैं और हुलस कर कहती हैं कि सरस्वती पूजा में दो दिन की छुट्टी लेंगी। वे दो दिन कभी उन्हें उल्लास से भर देते हैं तो कभी निचोड़ डालते हैं, लेकिन तीसरे दिन थके शरीर के बावजूद चेहरे पर फीकी मुस्कान सजाए वे हमारे घर की घंटी बजाती हैं। यह घंटी न बजे तो हमारी घंटी बज जाएगी।

गीता दूबे
कोलकाता, पश्चिम बंगाल
गीता दूबे
कोलकाता, पश्चिम बंगाल

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