उत्तराखण्ड के पहाड़ों में तबाही का मंजर है। पिछले तीन माह से जंगल धधक रहे हैं। जिधर देखो आग की लपटें और आसमान में धुंआ ही धुंआ नजर आ रहा है। इस फायर सीजन में अब तक उत्तराखण्ड में 1100 से ज्यादा आग की घटनाएं दर्ज की गयी हैं। अनुमान के हिसाब से करीब 1500 हैक्टेयर वन क्षेत्र जल चुका है। यह सरकारी आंकड़े हैं, इनपर ही भरोसा करना काफी नहीं होगा। स्थानीय लोगों की माने तो हालात काफी भयावह हैं। आधा दर्जन लोगों की जलकर मारे जाने की खबर है, जबकि तमाम लोग आग की चपेट में आने से घायल हैं। हर साल यह चक्र अपने आप को दोहराता है। जंगलों की आग से उत्तराखण्ड में तबाही, जैसे नियति बन चुकी है। सरकार और सिस्टम को अब क्या ही कहिए, जवाबदेही तय करने के लिए सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा। सरकारी खानापूर्ति पर्याप्त नहीं थी आग पर काबू पाने के लिए, बेशर्मी से सरकारी दावे होते रहे इधर उत्तराखण्ड के जंगल जलते रहे, आज भी जल रहे हैं। 21 मई को ही उत्तराखण्ड में वनाग्नि की 23 घटनाएं सरकारी तौर पर दर्ज की गयी। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकारी ताम झाम और बचाव कार्य पर्याप्त नहीं हैं। 10 वनकर्मी सस्पेंड कर दिए गये। 7 के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही की गयी है। लेकिन इससे क्या होगा? क्या वनकर्मी ही अपनी ड्यूटी में चूके हैं या सरकार ने भी अपनी जिम्मेदारी समय रहते पूरी नहीं की। वनकर्मियों पर तो सरकार ने कार्यवाही कर दी, लेकिन सरकार के दोषी होने पर क्या होगा? 425 अज्ञात के खिलाफ मुकदमा भी दर्ज किया गया है। क्या आग लगाने वाले कभी ज्ञात भी हो पायेंगे? यदि कोई आग लगा रहा है तो वो ऐसा क्यों कर रहा है? किसके इशारे पर आग लगाई जा रही है? सरकार, पुलिस और वन विभाग आखिर क्या कर रहा है? सवाल जंगलों के इर्द गिर्द रहने वाले लोगों से भी है, वे क्यों मुँह फेरे रहे अपने जंगलों से। अब तक उत्तराखण्ड के दूरस्थ जंगलों में आग लगने का समाचार रहता था। इस बार यह आग विकराल रूप धारण कर नैनीताल, अल्मोड़ा, रानीखेत जैसे पर्यटनस्थल तक पहुँच गई। रानीखेत में सेना का अस्पताल धुआँ-धुआँ हो गया। गढ़वाल मण्डल में भी नरेन्द्र नगर, लैंसडाउन, रूद्रप्रयाग, मसूरी के जंगल खूब धधक रहे हैं। महंगे हिल स्टेशन और उत्तराखण्ड के बड़े नगरों तक जंगल की आग पहुँचना हैरतअंगेज है। वायु सेना के हेलीकाप्टर आग बुझाने में लगे हुए हैं। लेकिन काबू पाना मुश्किल हो रहा है। उत्तराखण्ड में जंगल की आग अति महत्वपूर्ण, सबसे ज्यादा महंगी जमीन को अपने शिकंजे में लेे रही है। क्या बेशकीमती जमीन को खाली कराने के लिए यह सुनियोजित साजिश तो नहीं है?
जंगल की आग दुनियाभर की समस्या है। ग्लोबलवार्मिंग और जलवायु परिवर्तन से तापमान में वृद्धि और समय से बारिश न होने के कारण दुनिया के तमाम देशांे में जंगल की आग विकराल होती जा रही है। उत्तराखण्ड भी इससे अछूता नहीं है। लातिन अमेरिका में विश्व प्रसिद्ध अमेजन के जंगल आग से नष्ट हो रहे हैं, वहीं उत्तराखण्ड में भी पहाड़ों पर विनाशकारी आग थमने का नाम नहीं ले रही है। पहाड़ के विकास के नाम पर देशी विदेशी पूँजी निवेश के लिए जमीन की लूट अब आम है। विकास के नाम पर पहाड़ में जमीन की लूट आसान बनाने के लिए कायदे कानून में तेजी से बदलाव हो रहे हैं, लेकिन दिक्कत यह है कि पहाड़ के हिल स्टेशनों, तीर्थस्थलों और बड़े नगरों में कहीं खाली जमीन नहीं बची है। जो जमीन है वह बेशकीमती स्थलों से लगे जंगलों की है। जो वन विभाग की है। कानून के मुताबिक इस जमीन का लेन-देन असंभव है। कहीं इस असंभव लेन-देन को संभव बनाने के लिए उत्तराखण्ड के जंगलों को आग के हवाले तो नहीं किया जा रहा है? ताकि साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। ऐसी संभावना उत्तराखण्ड के सामाजिक कार्यकर्ता व्यक्त करते रहते हैं। जंगल के सफाए के बिना पहाड़ के शहरीकरण, बाजारीकरण और विकास के स्वर्णिम राजपथ नहीं खुल सकते। शायद इसलिए उत्तराखण्ड की जमीनों पर देश और दुनिया के कारपोरेट की नजर है। आदिवासी भूगोल में जंगल के आग की घटनाएं सबसे ज्यादा दर्ज होती हैं। ओडीशा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश के जंगल भी आग की चपेट में रहते हैं। आदिवासी जंगलों में रहते हैं और पेड़ पौधों, वन्यजीवों, पहाड़ों, नदियों की पूजा करते हैं। वे जंगलों को आग से भी बचाते हैं। लेकिन बेशकीमती खनिज का खजाना इन्हीं जंगलों में छुपा हुआ है। जिस पर पूँजी निवेश व कारपोरेट फायदे के लिए कहीं जंगलों को काटा जा रहा है तो कहीं जंगलों को आग के हवाले किया जा रहा है। उत्तराखण्ड में जहाँ-जहाँ जंगलों में आग पहुँच रही हैं वहाँ जमीन की कीमत कितनी है? विकास के लिए कितनी जमीन चाहिए? आखिर जंगलों मंे आग कौन लगा रहा है?
परंपरागत ढंग से पहाड़ की जनता आदिवासियों की तरह जंगल की रक्षा करती है, लेकिन जंगलात के नए कायदे कानून ने जैसे आदिवासियों को जल, जंगल, जमीन से बेदखल कर दिया है, उसी तरह पहाड़ के लोगों के साथ भी हो रहा है। उत्तराखण्ड में वन पंचायतें हैं, लेकिन उनसे उनके अधिकार छीन लिए गए हैं। उत्तराखण्ड में हमेशा जंगल की आग के लिए चीड़ के पेड़ों को जिम्मेदार बताया जाता है। चीड़ के पत्ते पिरूल और लीसा ज्वलनशील हैं, यह सही है, लेकिन बहुत लम्बे समय से हिमालय के जंगलों में चीड़ मौजूद है, लेकिन तब आग लगने की घटनाएं कितनी होती थीं? और अब इस अमृतकाल में आग लगने की घटनाएं कितनी हो रही हैं? कोई भी जंगल हवा, पानी, मिट्टी, वन्यजीव व पशु-पक्षी आदि से जुड़कर गति करता है। इसे सिर्फ आर्थिक नुकसान से नहीं आका जा सकता। जंगल की आग से कितने पशु-पक्षी, वन्यजीव प्रभावित होते हैं, कितने मारे जाते हैं क्या इसका आकलन है? वन की आग और उसके दुष्परिणामों को हम मात्र संख्या से नहीं आंक सकते। भविष्य में जंगलों की आग से कितना नुकसान होगा, यह हमारी और सरकार की चेतना से बाहर है। पर्यावरण की दुश्मन सरकार और सरकारी नीतियां तो हैं ही, इंसान भी कम दोषी नहीं है। एक तरफ उत्तराखण्ड के जंगल जल रहे हैं, वहीं दूसरी ओर चारधाम यात्रा में क्षमता से कहीं ज्यादा लोग पहुँचकर पहाड़ों को डिस्बलेंस कर रहे हैं। केदारनाथ, बद्रीनाथ युमनोत्री, गांगोत्री में बेतहाशा अनियंत्रित भीड़ धर्म के आडंबर में डूबकर पहाड़ के लिए असंतुलन पैदा कर रही है। जिसका परिणाम हम 2013 की केदार त्रासदी में देख चुके हैं लेकिन सीखे क्या? हजारों लोगों की मौत का जिम्मेदार कौन है? 10 मई से चारधाम यात्रा शुरू है, लेकिन सरकारी इंतजाम क्या हैं? आखिर लोग सिर्फ पहाड़ों पर मौज मस्ती के लिए आना चाहते हैं या उनका पहाड़ों से कोई जुड़ाव भी है? सरोकार भी है? यह जागरूकता लाने की कोशिश न सरकार कर रही है और लोग तो अंधभक्त बने अपने सर्वनाश की कहानी खुद लिखने में मशगूल हैं ही। ऊपर से राजनीति का तड़का। ऐसे में जल, जंगल, जमीन के बारे में कौन विचार करेगा? कैसे बचेंगे पहाड़ के जंगल, इसका जवाब मेरे पास तो नहीं है, क्या आप बता सकते हैं?