-रूपेश कुमार सिंह (09412946162, 09837240290)
‘‘रामपुर तिराहे का हिसाब अभी क्या लिया
मां के अपमान का जवाब हमने क्या दिया’’
उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन के दौर में 2 अक्टूबर 1994 में सबसे वीभत्स और निर्मम रामपुर तिराहा कांड (मुजफ्फरनगर कांड) के बाद ये लाइनें हर आन्दोलनकारी की आवाज बनीं। और आज तक न्याय की तालाश में यह गीत गाया जाता हैं।
न्याय के हर दरवाजे को बंद करने पर तुली है सरकार
नैनीताल उच्च न्यायालय में दाखिल राज्य सरकार के जवाब से आन्दोलनकारी स्तब्ध हैं। 24 साल और नौ मुख्यमंत्री भी राज्य की जनता को न्याय नहीं दिला पाये हैं। राज्य सरकार की ओर से उप महाधिवक्ता द्वारा लिखित हलफनामे में कहा गया है कि घटना का न्याय क्षेत्र उत्तर प्रदेश है। 1994 में उत्तराखण्ड उत्तर प्रदेश का हिस्सा था, इसलिए इस मामले की सुनवाई उत्तर प्रदेश में ही होनी चाहिए। साफ है कि उत्तराखण्ड की सरकार नैनीताल हाईकोर्ट में सुनवाई के पक्ष में नहीं है। सरकार न्याय के हर दरवाजे को बंद करने पर तुली है। इससे राज्य के आन्दोलनकारियों और जनता में गहरा आक्रोश है।
विरोध के बाद 2003 में हाईकोर्ट ने केस रीकाॅल किया
जिस घटना में सात आन्दोलनकारी शहीद हुए हों, कई महिला आन्दोलनकारियों के साथ बलात्कार हुआ हो, दर्जनों महिलाओं के साथ छेड़खानी की गयी हो, 17 आन्दोलनकारी बुरी तरह घायल हुए हों, उस घटना के पीड़ितों को आखिर न्याय कब मिलेगा? सरकारें चाहतीं तो सीबीआई अदालत में चल रहे मामले में आन्दोलनकारियों और पीड़ितों की मदद कर सकती थी। कोई ऐसी संस्था गठित कर सकती थी, जो पीड़ितों की पैरोकारी में मददगार होती। सन 2000 में यह मामला नैनीताल हाईकोर्ट में आया था। 2003 में मामले के मुख्य अभियुक्तों तत्कालीन डीएम अनंत कुमार सिंह व डीआईजी बुआ सिंह आदि को नैनीताल हाईकोर्ट ने बरी कर दिया था। पूरे प्रदेश में फैसले के खिलाफ जबरदस्त विरोध हुआ, जिसके बाद 22 अगस्त 2003 को हाईकोर्ट ने केस रीकाॅल किया।
लेकिन अब एक बार फिर से सरकार ने केस नैनीताल हाईकोर्ट में बंद करने की सिफारिश की है। राज्य की जनता सरकार के इस हलफनामे को धोखे की तरह देख रही है। आखिर दोषी कौन है? क्यों नहीं उत्तराखण्ड की सरकार दोषियों को सजा दिलवाने में दिलचस्पी ले रही है? अपनी अस्मिता, अस्तित्व, सम्मान और स्वाभिमान को बचाने के लिए और न्याय पाने के लिए 24 साल भी कम क्यों पड़ रहे हैं?
‘‘कैसी मशालें लेके चले तीरगी में आप
जो रोशनी थी वह भी सलामत नहीं रही’’
उत्तराखण्ड ने सिर्फ माफियाओं को पैदा किया
उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन पर्वतीय क्षेत्र की जनता और पहाड़ के प्राकृतिक संसाधनों पर केन्द्रीय सत्ता, व्यवस्था द्वारा किए गये निर्मम शोषण, तिरस्कार, पिछड़ेपन, उपेक्षा का नतीजा था। उत्तर प्रदेश और देश की सरकारों में काबिज असरदार नेताओं ने उत्तराखण्ड की स्थानीय आत्मनिर्भरता को नष्ट किया, यहां की प्राकृतिक सम्पदा को नीलाम किया। शराब, लकड़ी, लीसा, जड़ी-बूटी और भूमि के माफियाओं को पैदा किया, उन्हें पाला पोसा। पर्वतीय विकास के नाम पर आने वाले बजट का 80 प्रतिशत सरकारी मशीनरी खाती रही, यह आन्दोलन इसलिए पैदा हुआ। दर्जनों शहादतों, गोली, लाठी, मुकदमे, बलात्कार, जेल आदि से गुजरते हुए पृथक राज्य की लड़ाई परवान चढ़ी।
बेलमती चैहान, हंसा धनाई जैसी महिलाओं ने शहादत देकर लड़ने का इतिहास बनाया
जो मां चार-पांच किलोमीटर दूर से चारा, लकड़ी और पानी लाती थी, जिसके आसपास न स्कूल था, न अस्पताल। सरकार जिसके बच्चों को शिक्षा, चिकित्सा के बजाय शराब दे रही थी। नेतागण जिसके बेटों को लकड़ी, लीसा और शराब के धंधे से जुड़ने का माहौल दे रहे थे। जिसके बेटे नेफा, लद्दाख, श्रीलंका, सियाचिन आदि में मारे जाते हैं, वह मां अपनी दरांती लेकर उत्तराखण्ड आन्दोलन में आयी थी। बेलमती चैहान, हंसा धनाई जैसी महिलाओं ने शहादत देकर लड़ने का इतिहास बनाया। पूर्व सैनिक आन्दोलन में रहे। जिन्हें इस व्यवस्था ने पैंशन, रम और तमगे दिय हैं। जिनके बेटों के लिए फौज में भर्ती होने के लिए घूस देने की नौबत आ गयी थी और भर्ती के समय लाठीचार्ज तक झेलना पड़ता था।
इस आन्दोलन के केन्द्र में रहे छात्र-युवा, उन्होंने सबको संगठित किया, भाषण दिए, गीत गाये, लाठी-गोली खायी, विधानसभा व संसद में पर्चे फेंके। शिक्षक ,कर्मचारी , मजदूर-किसान, दलित, अल्पसंख्यक सभी धीरे-धीरे आन्दोलन से जुड़ते गये। जल, जंगल, जमीन पर जनता के अधिकार का नारा सर्वत्र गूंजने लगा।
सत्ता उन्हीं हाथों में आयी जो अलग पर्वतीय राज्य की मूल अवधारणा के खिलाफ थे
आन्दोलन व्यापक होने के साथ-साथ जनता का हुजूम तो बड़े पैमाने पर जुड़ा, लेकिन स्पष्ट नेतृत्व और स्पष्ट लक्ष्य उभर कर सामने नहीं आया। इसी का लाभ उठाकर कांग्रेस और भाजपा के नेता आन्दोलन में घुस गये। हालांकि उनकी भूमिका तमाशबीन से ज्यादा नहीं थी, फिर भी वे अधिकांश जनता को भटकाने में कामयाब रहे। राज्य बनने के बाद सत्ता उन्हीं हाथों में आयी जो अलग पर्वतीय राज्य की मूल अवधारणा के खिलाफ थे। जिनके पास विकास का सही दृष्टिकोण था, वे गैर राजनीतिवाद का शिकार होकर हासिए पर चले गये। दुष्यंत के शब्दों में…………
‘‘दुकानदार तो मेले में लुट गये यारों
तमाशवीन दुकानें लगाकर बैठ गये’’
कारपोरेट घरानों द्वारा संचालित अखबार पुलिस द्वारा बनायी कहानियों को ही छापते हैं
राज्य बनने के बाद माफियाओं, नौकरशाहों, भ्रष्ट नेताओं और पूंजीवादी शक्तियों का शिकंजा यहां के संसाधनों पर और अधिक कसता गया। हजारों एकड़ बेहतरीन उपजाऊ भूमि पूंजीपतियों को कौड़ियों के भाव दे दी गयी। लेकिन बेरोजगार नौजवानों को मुकम्मिल रोजगार नहीं मिल पाया। पांच हजार रुपये के मासिक वेतन पर 12-12 घंटे खटने को मजबूर हैं उत्तराखण्ड के नौजवान। और जरा सी नानुकुर करने पर निकाल बाहर कर दिया जाता है। वे अगर धरना-प्रदर्शन करें, श्रम कानून को लागू करने की बात करें, वेतन बढ़ाने या परमामेंट किए जाने की मांग करें, यूनियन बनायें तो उन्हें पहले कानून व्यवस्था के लिए और फिर देश के लिए खतरनाक घोषित कर दिया जाता है। आन्दोलन की अगुवाई करने वालों को 7 क्रिमिनल एक्ट के तहत जेल भेजना तो आम बात है। कारपोरेट घरानों द्वारा संचालित अखबार पुलिस द्वारा बनायी कहानियों को खूब बढ़ा-चढ़ाकर छापते हैं।
जनता निर्णायक तौर पर लामबंद कब होगी?
आज 24 साल बाद भी हम न्याय के लिए भटक रहे हैं। अब तक की भाजपा और कांग्रेस की सरकारें तो अपना जनविरोधी रवैया स्पष्ट कर चुकी हैं, उत्तराखण्ड की जनता कब इनके खिलाफ निर्णायक तौर पर लामबंद होगी, बस इसका ही इंतजार है।
रामपुर तिराहा कांड (विकिपीडिया)