ऋचा गौतम की कविताएं

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गाँव का पुराना घर

गाँव का पुराना घर
बाट जोहता है किसी अपने का।।
पिछली बारिश में चू रही थी छत
इस बारिश आँगन के दीवार में आ गई है दरार
कभी छोटी-सी छत पर बारी-बारी
सारे अनाज सुखा लेती थी माँ,
अब वहाँ उगते हैं, सूखते हैं, झरते हैं सालों भर
खर-पतवार।।
जैसे घर ने खुद व्यवस्था कर ली हो
अपनी लाज ढकने का!!
गाँव का पुराना घर बाट जोहता है किसी अपने का।।
बड़ा बेटा कानपुर में रहता है, फ्लैट भी ले लिया है
छोटे ने तो दिल्ली के सरकारी आवास पर अपनी
नेमप्लेट भी लगा ली है।
पुराना घर अपने बचे-खुचे रंग में
रोज देख लेता है धुँधलाता चेहरा
पिता के पूरे हुए सपने का।
गाँव का पुराना घर
बाट जोहता है किसी अपने का
बुआ की शादी में बना कोहबर
अब भी अकेले अपने शगुन तान को
दोहराता है।
हर साल दीवाली में, होली में आँगन
दादी की खुली आँखों-सा सूना रह जाता है
बड़ी बहू के हाथ के हस्ताक्षर को
सँभाले ताला, दिन गिनता है खुलने का।।
गाँव का पुराना घर बाट जोहता है किसी अपने का।।।

अनगिनत लापता लड़कियां

वो लड़कियां कहाँ हैं अभी
जो तड़के उठकर, घर के
कुछ काम निपटा, झट से तैयार
होकर स्कूल निकल जाती थीं,
कहाँ हैं वो लड़कियां?
वो जिनके पिता ने कहा था
मेरी बेटी स्कूल जाएगी
माँ ने कहा, हम अपनी बेटी को पढ़ाएंगे
फिर दादा की एक-एक हिदायत को
दो-चार बार दोहराती दादी भी पोती को
स्कूल भेजते मुस्कुराई थी!
वो लड़कियां अभी कहाँ हैं?
कहाँ हैं वो लड़कियां?
जो पिता की साईकिल चलाते हुए पहुँच जाती थी
दो कोस दूर स्कूल,
और गाँव के लड़के देखकर हँसते
ये तो लगता है कलक्टर बन कर ही मानेगी।
अभी कहाँ हैं वो लड़कियां?
जो शहर में पढ़ने बुआ के घर आई थी
फूफा ने पूछा था, सूरदास को जानती हो?
तो पैर में मुँह छुपाकर रोने लगी!
शोषण सहते हुए भी पढ़ती रही।
ना जाने, अब कहाँ हैं वो लड़कियां,
जो परीक्षाओं में प्रथम आई
वो लड़कियां जो झंडा गीत गाई
ना जाने ऐसी कई अनगिनत लड़कियां गुम गईं
जिन्हें कोई नहीं ढूँढता, उन्हें अपना भी पता नहीं
लेकिन तय है, वो भी अपनी बेटियां पढ़ा रही होंगी
जानते हो क्यों?
क्योंकि इतना तो वो अब भी जानती हैं,
कोई तो उजास से भरा दरवाजा है, जहाँ
पहुँचने से वो चूक गई,
वो रास्ता स्कूल के राह होकर ही गुजरता है,
इन्हीं किताबों के काले अक्षरों में ही छुपा है वो तिलिस्म,
जिसे पाने को स्त्रियां युगों से तड़के जाग रही है!

ऋचा गौतम
पाटलिपुत्र, बिहार

गाँव का पुराना घर
बाट जोहता है किसी अपने का।।
पिछली बारिश में चू रही थी छत
इस बारिश आँगन के दीवार में आ गई है दरार
कभी छोटी-सी छत पर बारी-बारी
सारे अनाज सुखा लेती थी माँ,
अब वहाँ उगते हैं, सूखते हैं, झरते हैं सालों भर
खर-पतवार।।
ऋचा गौतम
पाटलिपुत्र, बिहार

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