नानी की कहानी की राजकुमारी
कैद कर रखी थी
भयानक दैत्य ने
सात समुंदर पार
सुनसान टापू में बनी
ऊँची मीनार में
जहाँ
दूर-दूर तक
ना आदमी, ना आवाज
ना चिड़ियों की चहचहाट
ना फूलों की मुस्कुराहट
बस
गुस्से में उफनते सागर की
फुफकारती लहरों का गर्जन
और
मुँह फेर कर बैठे
निचाट आसमान का
अंतहीन सूनापन।
चारों ओर फैले सन्नाटे से
जूझती राजकुमारी
आँसू- आँसू रोती राजकुमारी
बेबस, बेचारी, दुखियारी
नानी की राजकुमारी
अकेली एकदम अकेली।
और आज
मीनार की दमघोंट ऊँचाइयों को
कर पार
नानी की राजकुमारी
आ पहुँची है
सड़कों पर, बाजारों में,
दफ्तरों में, कारखानों में
सेना में, हवाई जहाज की उड़ानों में,
अब वह बेबस नहीं है
ना ही दिखती है अवश
वह कैदी भी नहीं है
जलते इरादों का ले संकल्प
कदम – कदम बढ़ आई है
खुली हवा में
सबके साथ, सबके बीच
पर
अपनी अस्मिता के जज्बे को
कांधे पर लादे
स्व के सवाल पर उठे
नकारात्मक, आक्रामक
दृष्टिकोणों से जूझती
और कहीं
अपने ही बनाए चक्रव्यूह में फँसी
नानी की राजकुमारी
भीतर से
आज भी है अकेली
शायद
पहले से कहीं ज्यादा अकेली
अकेली एकदम अकेली।