अनिता रश्मि की कविताएं

अनिता रश्मि की कविताएं
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पहाड़ से उतरती औरतें
देखी थीं कभी
सुदूर पहाड़ की
बेहद खूबसूरत पहाड़ी औरतें
उनकी ललाई एवं लुनाई में
गया था खो आसक्त मन

पर एक अलग ही रूप देख
अब भी स्तब्ध हूँ
हिम की खूबसूरती को
बसाए हुए दिल में
हिम पर खेल लौट रही थी
और सामने ही अपने अश्वों की
रास थामे दोनों हस्तों की कठोरता से
एक पहाड़ी औरत
पथरीली ढलाऊँ पर
उतरती गई झट धड़ाधड़
यायावरों के साथ
दोपहर तक के कठोर श्रम के बाद

पलक झपकते ओझल तीनों
बुला रहा था शायद उसे
कोई बीमार, वृ(, अशक्त
स्कूल से लौटा उसका लाल
या फिर खेतों की हरियाली
इंतजार सेब बगान का

अभी भी मेहनत के नाम
लिखने को बचा था
बहुत सारा काम
उस खूबसूरत युवती का

अबकी जाना पहाड़ तो
उसका चेहरा, चेहरे की रंगत
लावण्य का पैमाना
उसकी देह न देखना

बस, देखना केवल
जड़ सम कठोर पैर,
उसकी खुरदुरी हथेलियां!

ये खिलाड़ी लड़कियां
गाय-भैंसिया, बकरी
जंगल में चराते-चराते
धींगा-मुश्ती करते अभाव से
न जाने कब सीख जातीं
हॉकी खेलना,
मारना किक गेंद को,
कुश्ती लड़ना या
उछाल देना आकाश में
एक अबूझ सपना
मैदान मार लेने का
ओलंपिक का ताज
जीत लेने का सपना।

आम-इमली पर
साधते हुए निशाना
थाम लेती हैं
बिरसा का तीर-धनुष

न जाने कब, कैसे वह
बन जाती है
सोमराय, दीपिका,
कोमलिका, निक्की
या फिर
क्षीणकाय चंचला
हराती हुईं दुनिया भर को।

बेतरा
बाँधकर बेतरा में
अपने छउआ-पुता को
ये जो शहर की छाती पर
सँवारने शहर को घूम रही हैं
एक माँ भी हैं

बच्चा कब छाती पर,
कब पीठ से बँधे बेतरा में समा
कंगारू बन जाएगा
कह सकते नहीं,
ईंट भट्ठों, भवनों सहित सारे बाजार
सड़क-गली में छा गईं ये
श्रम का अद्भुत ईमानदार प्रतीक बन
पीठ पर बँधे अपने मुन्ने-मुन्नी के संग

नन्हा-मुन्ना सा बेतरा
पहचान है इनकी
खेत-खलिहान, पोखर-अहरा
नदी-तालाब, सागर
गोहाल-बथान, पगडंडी
कहीं भी मिल जाएंगी ये
और इनका बेतरा

क्योंकि
अपने बेतरा में ये सिर्फ
वर्त्तमान ही नहीं
भविष्य भी ढोती हैं।

बेतरा = बच्चे को पीठ पर बाँधना

अनिता रश्मि
राँची, झारखंड

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