एक अद्वितीय घोटाला-कथा
भाजपा सरकार ने 2017 में तमाम विपक्षी दलों के विरोध और चुनाव आयोग तथा रिजर्व बैंक की मनाही के बावजूद फाइनेंस बिल के रास्ते यानी राज्यसभा से कन्नी काटकर चुनावी बांड की जो योजना लागू की, वह भ्रष्टाचार को विधिसम्मत बना देने की एक अभूतपूर्व कवायद थी। सर्वाेच्च न्यायालय ने अभी फरवरी महीने में इस स्कीम को गैर-कानूनी करार देते हुए ‘क्विड प्रो क्वो’ (भ्रष्ट लेन-देन) की जिस आशंका पर उँगली रखी थी, वह सारे आँकड़े सामने आने के बाद सौ फीसद सही साबित हुई।
इन आँकड़ों के सामने आने से यह भी स्पष्ट हो गया कि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया इसे सार्वजनिक करने में इतना हील-हवाला क्यों कर रहा था। पहले उसने सर्वाेच्च न्यायालय द्वारा आँकड़ों को चुनाव आयोग को सौंपने के लिए निर्धारित की गई तिथि का उल्लंघन करते हुए 30 जून तक का समय माँगा। यानी पूरी कोशिश थी कि चुनाव संपन्न हो जाएं, नई सरकार बन जाए, तभी जानकारी सार्वजनिक की जाए। जब अदालत ने फटकार लगाई और कहा कि 14 मार्च की शाम 5 बजे तक आँकड़े देने ही होंगे वरना अदालत की अवमानना का मामला बनेगा, तो 14 मार्च को चुनाव आयोग को आँकड़े सौंपते हुए यह सुनिश्चित किया गया कि किस समूह ने किसे चुनावी बांड्स दिए, यह पता न चले। इसका तरीका था खरीदे गए और भुनाए गए बांड्स पर अंकित अल्फान्यूमेरिक कोड की जानकारी न देना। यानी आप उस फेहरिस्त से यह पता नहीं कर सकते थे कि ‘अ’ कंपनी ने जो करोड़ों के बांड्स खरीदे, उनमें से कितने ‘क’ पार्टी को गए, कितने ‘ख’, ‘ग’ इत्यादि को।
इसके बावजूद यह बात तो बांड्स खरीदने वालों की सूची से जाहिर हो ही गई थी कि इनमें कई सेल कंपनियां यानी ऐसी कंपनियां शामिल थीं, जिनका वजूद सिर्फ कागज पर है और जो पैसे को इधर-उधर करने के मकसद से ही बनाई जाती हैं। दूसरे, यह भी स्पष्ट हो गया था कि इनमें से कई कंपनियों ने अपनी कुल आमदनी से कई गुना ज्यादा के बांड्स खरीदे (चंदे के मामले में पहले जो सर्वोच्च सीमा थी, कुल मुनाफे का साढ़े सात फीसद, उसे चुनावी बांड की स्कीम ने खत्म कर दिया था)। कोई कंपनी ऐसा क्यों करती है, इसे समझना मुश्किल नहीं है। या तो वह फर्जी कंपनी है और किसी और के पैसे को इधर मोड़ने के लिए ही उसे बनाया गया है, या फिर वह कंपनी मुनाफे की हकीकत यानी वर्तमान को नहीं, मुनाफे की संभावना यानी भविष्य को ध्यान में रख रही है और चुनावी बांड उसका निवेश है।
इस पहले और दूसरे नुकते से यह तो साफ हो ही गया था कि यह भ्रष्टाचार को विधिसम्मत बनाने का जरिया था। जो तीसरी बात भी उसी समय स्पष्ट हो गई, वह यह कि जिन कंपनियों ने चुनावी बांड में बहुत सारा पैसा लगाया, उनमें ऐसी कंपनियां बहुतायत से थीं, जिन पर इनकम टैक्स या ईडी की कार्रवाई चल रही थी। बताने की जरूरत नहीं कि ये केंद्र सरकार के अधीन काम करनेवाले महकमे हैं। हाँ, सार्वजनिक किए गए आँकड़ों के आधार पर यह दावा करना मुश्किल था कि ऐसी कंपनियों के चुनावी बांड केंद्र की सत्ता पर काबिज भाजपा को ही गए या नहीं।
सार्वजनिक किए गए आँकड़ों से यह बात साबित न हो पाना ही वह प्रयोजन था, जिसके लिए एसबीआई ने अल्फान्यूमेरिक कोड नहीं बताए और सर्वाेच्च न्यायालय से कहा कि सारा हिसाब-किताब इतनी जल्दी करना उसके बस की बात नहीं है। सर्वाेच्च न्यायालय को पता था कि इस कंप्यूटरीकृत दौर में यह शुद्ध बहाना है, इसलिए उसने 21 मार्च की शाम 5 बजे तक का समय दिया कि आपके पास जो भी जानकारियां हैं, वे सब आपको देनी होंगी, उनमें से कुछ भी आप रोक नहीं सकते। सारी जानकारी का मतलब है, सारी जानकारी।
कमाल की बात है कि एसबीआई, जो 30 जून से पहले कुछ भी मुहैया कराने की क्षमता नहीं रखती थी, उसने 21 मार्च को, यानी अपनी क्षमता के अनुसार अनुमानित तिथि से 100 दिन पहले वह सब मुहैया करा दिया। क्या एसबीआई से पूछा नहीं जाना चाहिए कि भैया, दे सकते थे, तो देने में हील-हवाला क्यों कर रहे थे? वह कौन था, जिसने तुम्हारी बाँहें मरोड़ रखी थीं और तुम माने तभी, जब किसी और ने उससे ज्यादा मरोड़ दीं? कौन कह रहा था तुमसे कि खबरदार जो हमारी असलियत सामने आने दी!
जो एसबीआई की बाँह मरोड़ रहा था, वही फिक्की और ऐसोचैम को भी अदालत में अपनी याचिका लेकर भेज रहा था कि योर ऑनर, किस कंपनी ने किसको दिया, यह भेद नहीं खुलना चाहिए, क्योंकि यह व्यापारिक घरानों के हित में नहीं है।
गरज कि सर्वाेच्च न्यायालय के कड़े रुख को, जो शायद इस ‘कौन’ के लिए अप्रत्याशित था, मुलायम बनाने के सारे तरीके अपना लिए गए। लेकिन रुख की कड़ाई बनी रही और आखिरकार आँकड़े सामने आए। और जब आए, तो अनुमान हकीकत में बदल गए। हकीकत यह है कि चुनावी बांड की इस अपारदर्शी व्यवस्था में भाजपा सबसे बड़ी लाभार्थी ही नहीं है (वह तो पहले से ही पता था कि अप्रैल 2019 के बाद से लगभग 50 फीसद राशि अकेले उसके खाते में गई है, पहले और ज्यादा गई थी), सबसे भ्रष्ट लाभार्थी भी है, जिसने केंद्रीय एजेंसियों का सहारा लेकर व्यापारिक घरानों से ऐसी वसूली की है, जो इस अपारदर्शी व्यवस्था के बगैर संभव नहीं थी। मनी लौंडरिंग, टैक्स चोरी जैसे मामलों को लेकर जिन व्यापारिक घरानों पर छापे पड़े, उनसे यह बेनामी चंदा लेकर उन पर कार्रवाई रोक दी गई। गरज कि केंद्रीय एजेंसियों का हफ्ता वसूली के एजेंट की तरह इस्तेमाल किया गया।
‘‘मार्च 2022 में संसद को सूचित किया गया कि मोदी सरकार में ‘संदिग्धों’ पर छापे और तलाशी की कार्रवाई 27 गुना बढ़ी हैं। ईडी के द्वारा ऐसी 3010 कार्रवाइयां हुईं, लेकिन चार्जशीट उनमें से सिर्फ 888 मामलों में दायर हुई और महज 23 अभियुक्तों को अदालत ने दोषी पाया। इन तीन चरणों के बीच के अंतराल को चुनावी बांड के आँकड़ों की रोशनी में बेहतर समझा जा सकता है। यह सरकार सबसे भ्रष्ट सरकार साबित हुई है नरेंद्र मोदी के ‘न खाउँगा न खाने दूँगा’ के दावे के एकदम विपरीत।’’ (वृंदा करात, ‘हू पेज हू विंस’, इंडियन एक्सप्रेस, 23 मार्च 2024।)
आँकड़ों का विश्लेषण करनेवालों ने ऐसे कई मामले ढूँढ निकाले हैं। मसलन, सितंबर 2018 में हरियाणा पुलिस ने रॉबर्ट वाड्रा और डीएलएफ समूह पर गुरुग्राम में जमीन के सौदे में भ्रष्टाचार और धोखाधड़ी का मामला दर्ज किया। जनवरी 2019 में सीबीआई ने एक और मामले में डीएलएफ के दफ्तरों की तलाशी ली। अक्टूबर 2019 से नवंबर 2022 के बीच डीएलएफ समूह की तीन कंपनियों ने कुल 170 करोड़ के चुनावी बांड खरीदे और लाभार्थी अकेले भाजपा रही, डीएलएफ समूह ने और किसी राजनीतिक दल को कोई चंदा नहीं दिया। आश्चर्यजनक तरीके से अप्रैल 2023 में हरियाणा की भाजपा सरकार ने अदालत में कहा कि वाड्रा और डीएलएफ के जमीन सौदे में उसे किसी तरह की अनियमितता नहीं मिली है। मामला रद्द हो गया।
एक दिलचस्प उदाहरण अरविंदो फार्मा का है। हैदराबाद स्थित यह कंपनी दिल्ली आबकारी नीति मामले में अभियुक्त है। नवंबर 2022 में इसके निदेशक पी शरतचंद्र रेड्डी को ईडी द्वारा गिरफ्तार किया गया, जिसके पाँच दिन बाद ही कंपनी ने भाजपा को 5 करोड़ के चुनावी बांड दिए। जब रेड्डी का मामला उच्च न्यायालय के सामने आया, तो ईडी ने उनकी जमानत का विरोध नहीं किया और मई 2023 में खराब सेहत के आधार पर उन्हें जमानत मिल गई। जून 2023 में शरत रेड्डी इस मामले में सरकारी गवाह बन गए और उसके दो महीने बाद कंपनी ने भाजपा को 25 करोड़ का चंदा और दिया।
याद रखें कि दिल्ली आबकारी नीति मामले में ही दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की भी गिरफ्तारी हुई है। बताया जाता है कि इस मामले में जो लोग अंदर हैं, उनके खिलाफकृसिवाय गवाह केकृपैसे की लेन-देन का कोई और सबूत मौजूद नहीं है। अदालत ने इस मामले में मनीष सिसोदिया की जमानत की सुनवाई करते हुए ईडी से साफ कहा था कि यह मामला बहुत कमजोर है और चुटकियों में उड़ जाएगा। इसमें कथित रिश्वत की राशि किन-किन हाथों से गुजरी, इसका कोई सबूत नहीं है। इतना कहने के बावजूद उन्होंने जमानत नहीं दी, यह अलग बात है। इस मामले को देखते हुए सबसे पहली जिज्ञासा तो यही होती है कि अगर सचमुच अरविंदो फार्मा ने आम आदमी पार्टी को 100 करोड़ रुपए दिए, तो यह काम इलेक्टोरल बांड के जरिए क्यों नहीं किया गया? इस स्कीम के आने के बाद इतना सुरक्षित रास्ता छोड़कर पैसा किसी और रास्ते से किसी राजनीतिक दल तक क्यों पहुँचाया जाएगा? बहरहाल, अरविंद केजरीवाल अभी तिहाड़ जेल में हैं और देश में आम चुनावों की घोषणा हो चुकी है। सभी चीजों के छूटे सिरों को जोड़ने पर बड़ी भयावह तस्वीर उभरती दिखती है, जिसकी दिशा में इस लेख को फिलहाल नहीं जाना चाहिए, क्योंकि वह विषयांतर होगा। लेकिन कम-से-कम इतना तो विषय के दायरे में ही है कि अगर आम आदमी पार्टी के नेताओं को पैसा लेकर पक्षपात करने के आरोप में पकड़ा जा सकता है, तो भाजपा के नेताओं को क्यों नहीं, जब यह साबित हो चुका है कि उन्होंने उसी मनी लौंडरिंग के आरोपी को हिरासत से रिहा करने के लिए पहले 5 करोड़ और फिर 25 करोड़ लिए और सरकारी गवाह बनने के लिए भी राजी किया।
25 मार्च को इंडियन एक्सप्रेस ने चुनावी बांड खरीदनेवाली ऐसी 26 कंपनियों के विवरण प्रकाशित किए हैं, जो केंद्रीय एजेंसियों की जाँच के दायरे में आए। इनमें से 16 कंपनियों ने एजेंसियों की जाँच के दायरे में आने के बाद बांड खरीदे और दूसरी 6 कंपनियों ने जाँच के दायरे में आने के बाद चुनावी बांड की खरीद बढ़ा दी। आप एक्सप्रेस का विश्लेषण पढ़ें, तो पता चलेगा कि इन कंपनियों के बांड सिर्फ भाजपा ने नहीं भुनाए हैं। राज्य सरकारों में जो दल हैं, उन्हें भी इनका लाभ मिला है। लेकिन भाजपा के पास इसका सबसे बड़ा हिस्सा, 37.34 फीसद गया है। इसका मतलब यह कि सबसे बड़ा हिस्सा केन्द्रीय जाँच एजेंसियों के कोप से बचने के लिए खर्च किया गया और शेष राज्य सरकारों से अपने काम निकलने के लिए।
तथ्य चीख-चीखकर एक ही बात कह रहे हैं, चुनावी बांड स्कीम इस देश का अभी तक का सबसे बड़ा घोटाला है और उसे लानेवाली सरकार आजाद भारत की सबसे भ्रष्ट सरकार है। इस बात को इस देश के कम्युनिस्टों ने शुरुआत में ही न सिर्फ समझा, बल्कि इससे लड़ने का नैतिक अधिकार बनाए रखने के लिए चुनावी बांड लेने से इंकार भी किया (वे वैसे भी कॉर्पाेरेट घरानों का चंदा नहीं लेते।) इसीलिए सीपीआई (एम) इस स्कीम के खिलाफ सर्वाेच्च न्यायालय में याचिकाकर्त्ता भी बन पाई। अन्य राजनीतिक दलों की विडंबना यह है कि वे इसका विरोध भी करते रहे और जो कुछ टुकड़े अपनी थाली में आने थे, उसे लेने का लोभ भी संवरण नहीं कर पाए। लेकिन सिर्फ इतने से ही सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे नहीं हो जाते हैं। पूरे आँकड़ोद्घाटन के बाद भाजपा को भ्रष्टतम पार्टी का खिताब तो मिलना ही चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मुख्यधारा की मीडिया यह खिताब सौंपने के लिए अभी भी दूसरी पार्टियों की तलाश में मुब्तिला है। क्या भाजपा का बेनकाब चेहरा गिनती के अखबार और न्यूज पोर्टल्स को छोड़कर आपको कहीं नजर आ रहा है?