राजनीति में विकल्प की तलाश
आज राजनीति की परिभाषा बदल गई है। मानो भूचाल-सा आ गया है। स्वस्थता की जगह राजनीति ऐसी गंदी हो गई है कि आज तक देखी नहीं गयी।
राजनेता के साथ सभी पार्टियां आरोप- प्रत्यारोप की झड़ी लगाते हुए एक-दूसरे को भ्रष्ट साबित करने की होड़ में हैं। यदि एक पर लांछन लगाया जाता है तो दूसरा भी पलटवार करता है कि तुम भी भ्रष्ट हो। कोई यह नहीं बताता कि मैं भ्रष्ट नहीं हूँ, मैंने घोटाला नहीं किया है, मेरा चरित्र साफ-सुथरा है। वे यह कहने में अपना दमखम लगा देते हैं कि तुमने भी बहुत सारे गलत काम किए हैं। हम गंदे तो, तुम भी कम गंदे नहीं। हम भ्रष्ट, तो तुम भी भ्रष्ट। हम घोटालेबाज तो, तुम भी घोटालेबाज। यानी हमाम में हम सब नंगे हैं।
चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आता है, जनता अपना माथा पीट रही होती है कि आखिर वह किसे चुने अपना नेता। सभी नेता भ्रष्ट, दागदार। राजनीति में, आखिर विकल्प की तलाश कहाँ करें ?
वैसे सभी पार्टियों ने कुछ ना कुछ देश के विकास के लिए काम किया है। कोई ज्यादा तो कोई कम। तो क्या आँख मूँद कर लॉटरी लगा दे और अपना नेता चुन लें?
हर पार्टी कहती है, अहसान जताने लगती है, ‘‘हमने तुम्हारे लिए बहुत कुछ किया है।’’
पर उनका करना, जनता के पैसे से ही जनता के लिए…तो अहसान कैसा…?
और जब जनता सवाल करती है, ‘‘तुमने हमारा शोषण किया…?’’
तो जवाब मिलता है, ‘‘शोषण तो दूसरी पार्टियों ने भी किया है! हम क्या बुरे हैं? हमारी पार्टी यदि कुर्सी से चिपकना चाहती है तो दूसरी पार्टी भी! सत्ता को हम हथियाना चाहते हैं तो दूसरी पार्टी भी! दूसरी पार्टी आपके लिए जितना कुछ करेगी, उससे ज्यादा हम आपके लिए करेंगे!’’
जनता के लिए भ्रष्टाचार, घोटाला जैसे सवाल का जवाब वैसा ही होता है जैसे न्यायालय में जज के सामने अपराधी और बेकसूर, दोनों गीता पर हाथ रखकर कसम खाते हैं, और कहते हैं, ‘‘हम जो बोलेंगे सच कहेंगे, सच के सिवा कुछ नहीं कहेंगे।’’
जबकि न्यायाधीश और वकील दोनों जानते हैं कि कोई एक झूठी कसम खा रहा है।
जनता के सामने जो खबरें होती हैं, उसमें सभी पार्टियों को दागदार साबित किया जाता है। सभी पार्टियों को भ्रष्ट बतलाने का प्रयास किया जाता है। शायद ही कोई ऐसा अखबार या सोशल मीडिया का प्लेटफार्म हो, जो यह कह सके कि अमुक पार्टी, अमुक पार्टी से ज्यादा बेहतर है, उसे सत्ता में काबिज करना चाहिए।
जनता अखबार पढ़ कर, भाषण सुनकर, निर्णय के लिए अपना सिर धुनती है कि किसे अपना नेता चुनें..?
पर किसी ना किसी को चुनना होता है! यह प्रजातंत्र जो है!
अनपढ़ को मारिए गोली! अक्सर ऐसे लोग, कभी-कभी जाति और पैसे के लालच में दिग्भ्रमित हो जाते हैं। दिग्भ्रमित पढ़े- लिखे लोग भी होते हैं। यह देश का दुर्भाग्य है कि पढ़े-लिखे, शिक्षित वर्ग भी जाति, वर्ग और संप्रदाय में बँटे हुए नजर आते हैं। ऐसे में वे कभी-कभी गलत चुनाव कर डालते हैं।
मैं किसी पार्टी की तरफ से नहीं बोल रहा हूँ। किसी खास पार्टी की तरफ से बोलना भी नहीं चाहता। क्योंकि मैं कोई चुनाव प्रचारक नहीं हूँ और न बनने की चाह रखता हूँ। मैं एक नागरिक की भाषा में सिर्फ यह कहना चाहता हूँ कि हमारे देश में गाँधी और लाल बहादुर शास्त्री जैसे नेता पैदा होने नहीं हैं या अभी हैं नहीं। तो क्या आँख मूँद कर किसी को भी नेता मान लें और सत्ता सौंप दें? या फिर हम चुनाव में हिस्सा ले ही नहीं और मताधिकार का उपयोग ना करें!
हमारी समझ से ये दोनों ही स्थितियां देश और समाज दोनों के लिए खतरनाक हैं। जब तक गाँधी और लाल बहादुर शास्त्री जैसे साफ छवि वाले नेता हमारे देश में नहीं पहचान में आते, तब तक हम विकल्प के रूप में उस नेता या पार्टी को चुने, जिसके शासनकाल में दूसरी पार्टियों या दूसरे नेताओं की अपेक्षा कम अपराध हुए हो, कम भ्रष्टाचार हुए हो, कम घोटाले हुए हो। यानी जो नेता या पार्टी कम भ्रष्ट, कम अपराधी और कम दागदार हो, उनके हाथों में ही सत्ता सौंपने हेतु हमारा विवेक होना चाहिए। सिर्फ सत्ता के लोलुप और लालची नेताओं, पार्टियों को उपेक्षित करते हुए उन्हें दरकिनार कर देना चाहिए। ताकि उन्हें सबक भी मिले और अपराध, भ्रष्टाचार से मुक्त होकर देश अधिक से अधिक विकसित हो सके।