गाँव की शीतल हवा,
छूकर हो रही खफा,
इतने दिनों बाद याद आई,
खंडहर हुई गिरफ्तार तेरी तन्हाई।
मैं तेरा अपना घरौंदा,
गलियों चौबारे फैला करौधा।
तूत का मीठा बीज,
बेर की टहनी गई सूख।
नहीं कलरव अब पक्षियों का,
आना-जाना खत्म भिक्षुओं का।
दिन की शुरुआत कब हुई?
मुर्गा, कौवा बोले तब तक अब सोई।
बागान की रौनक फ्लैट ने ली,
छप्पर अब टीन हो लिए।
सारे पेड़ की कटाई हो गई,
जीवन से गाँव नाम की छँटाई हो गई।
शहरीकरण का अंधी आधुनिकीकरण,
सुकुन को न मिला गाँव, ना शहर में शरण!
हाय! क्या वापिस हो पाएगी गाँव की महक?
या जीवन ही तोड़ देगी शहर की सड़क।