कोलकाता यात्रा से……
भाग-2
पश्चिम बंगाल में पांच दिन
– रूपेश कुमार सिंह
तमगे और देशी-विदेशी पुरस्कारों को शो केस में रखने के बजाये बंद करके अखबारों और किताबों के बीच अलमारी में डाल देने और प्रसिद्धि को ताक पर समेट देने के बाद हजारों लिखने वालों में कोई एक लेखक बेबी हालदार बनता है। देशी-विदेशी दर्जनों भाषाओं में अनुवादित बेबी दीदी की किताबों पर चढ़ी गर्द और जालों को मैंने साफ किया। सवाल करने पर बेबी दीदी ने कहा, ‘‘यदि मैं किताबों की गर्द साफ करने में समय जाया करने लगी, तो समाज के चेहरे को कौन साफ करेगा?’’
वास्तव में यूं ही कोई बेबी हालदार नहीं बन जाता। उसके लिए टकराना होता है, घर, समाज और व्यवस्था से। भिड़ना होता है, दकियानूसी, परम्परावादी, जुल्मी मानसिकता से। कोलकाता भ्रमण का दूसरा दिन है। बेबी दीदी से मिलना है, यह तो पूर्व तय था, लेकिन दीदी आज ही घर बुला लेंगी, सोचा नहीं था। बेबी दीदी का फोन आया, ‘‘जहाँ हो तुरन्त घर चले आओ।’’ बस मैं, मनोज राय और दिलीप मण्डल रात नौ बजे उनके घर हालिसहर पहुंच गये। उन्होंने परवल की सब्जी, मिक्स दाल, चिकन, रोटी, चावल, के बाद आम और पपीता खिलाया। देर रात तक साहित्य, समाज, प्रकाशक, घर परिवार और कोलकाता की राजनीति पर चर्चा चलती रही। सुबह नाश्ते के बाद हम लोग साथ-साथ घर से निकले।
दीदी जल्द रूद्रपुर आयेंगी इस वादे के साथ वो ट्रेन पकड़कर ड्यूटी चली गयीं और हम काचरापाड़ा आ गये। दोस्तों, बेबी दीदी मेरी पसंदीदा राइटर हैं। आपसे निवेदन है कि उनकी कृति ‘ऑलो-आंधारि’ जरूर पढ़ें। बाकी लिखने वालों की कमी नहीं है, ऐसे भी हैं जो लिखते कम हैं, पोंकते ज्यादा हैं। लटके-झटके भी कम नहीं हैं आज कल के लेखकों के। बेबी दीदी लीक से अलग, बहुत सरल और सामान्य लेखिका हैं। शुक्रिया दीदी प्यार देने के लिए ।
पांच अगस्त को मैं और मनोज भाई विराटी से बेलघरिया रेलवे स्टेशन से ट्रेन पर लटक कर नदिया डिस्टिक के शिमुराली क्षेत्र में पहुंचे। ट्रेन में जितने बैठे थे उससे ज्यादा खड़े थे। तमाम लोग गेट पर लटके हुए थे। यात्रियों ने बताया कि पश्चिम बंगाल में लोकल ट्रेन यहां के लोगों की लाइफ लाइन है। लाखों लोग प्रतिदिन इन्हीं ट्रेनों से अपने आफिस, स्कूल और कारखाने पहुंचते हैं। सारा व्यापार भी लोकल ट्रेन से होकर गुजरता है। एक यात्री ने बताया कि सुबह आठ बजे से दस बजे तक और शाम को छः बजे से आठ बजे तक लोगों के आफिस का टाइम होता है। इस दौरान ट्रेन खचाखच भरी रहती हैं। 15-25 सेकेण्ड में लोगों को ट्रेन पर चढ़ना-उतरना होता है। लेकिन कोई अफरा-तफरी नहीं होती है। दिल्ली और मुंबई के माफिक लोग अभद्रता नहीं करते हैं। शिमुराली के एक परिवार में भव्य भोजन के बाद हमने आस-पास का ग्रामीण इलाका घूमा। कोलकाता में स्कूल-कॉलेज ग्यारह बजे से खुलते हैं। कारण, बच्चे भी लोकल ट्रेन का सहारा लेते हैं। उन्हें असुविधा न हो इसलिए स्कूल-कॉलेज की टाइमिंग उत्तराखण्ड से बहुत भिन्न है। शाम को हम एक मिठाई की दुकान पर पहुंचे। नाना प्रकार की स्वादिष्ट मिठाइयों से जान पहचान हुई। स्वाद लिया और मन में कुछ यूं भाव आया…………………………….
काश की हम यूं विवश न होते,चुराकर कुछ मिठास उन मिठाइयों सेघोल पाते इस तीखे संसार में!
जब देश में अजीब सी बेचैनी और उठा पटक हो, तब मिठाई की बात करना थोड़ा अटपटा है। लेकिन उन्मादी प्रतिक्रिया की ओर बढ़ रहे देश के तीखे माहौल में मिठास घोलना भी जरूरी है। पश्चिम बंगाल और मिठाई एक दूसरे के पूरक हैं। मिठाई कोलकाता की सांस्कृतिक विरासत भी है। संबंधों को संजोये रखने और आतिथ्य को प्रदर्शित करने की मिसाल भी है मिठाई। कोलकाता और मिठाई का रिश्ता बहुत गहरा है। खाने के बाद मिठाई परोसने का रिवाज है यहाँ। स्थानीय लोग तो मिठाई के दीवाने हैं ही, बाहर से आने वालों को भी कोलकाता की मिठाई आकृष्ट करती है। मैंने अभी तक मिठाई को किलो में बिकते देखा है। कोलकाता में मिठाई पीस के हिसाब से मिलती है। चाहें आप गांव के नुक्कड़ से मिठाई लें या कोलकाता के किसी भी शहर से, मिठाई की क्वालिटी खाते ही बनती है। मूल्य भी साधारण!
स्वाद ऐसा कि न न करते करते भी एक बार में चार-पांच पीस व्यक्ति खा ही जाता है और डकार भी नहीं लेता है। मिठाई के अपने अपने रंग है, संदर्भ भी अलग-अलग। इसीलिए कहा गया है-
मिठाई मुंह में मिठास घोलती है,हमारे जीवन में मीठी वाणी,मिठाई खायें न खायें,मीठी वाणी जरूर बोले!
वास्तव में मधुरता ही समाज को संगठित और व्यवस्थित रख सकती है। मिठाई को महसूस करने और स्वाद को व्यक्त करने का मिजाज सबका जुदा-जुदा होता है। एक प्रेमी मिठाई को अपनी प्रेमिका में कुछ इस तरह खोजता है………..
जब से चखा है तेरे लबों का स्वाद,और कोई मिठाई आती नहीं याद।
तो दोस्तों! कोलकाता जब भी आयें तो शोनदेश, कॉलाकान्द, मिष्ठी दोई, रशोगोल्ला, राजभोग, हॉटगुलाब जाबुम, खीर पुलि, खीर मलाई, सीता भोग, लैंग्चा, लॉड चमचम आदि मिठाई जरूर चखें। इसके अलावा और बहुत सी मिठाई हैं जो कोलकाता की मिठास को और भी खूबसूरत बनाती हैं।
देर शाम हम अंजलि मण्डल के घर कांचरापाड़ा आ गये। बाजार रंगीन था। यह इलाका कारखानों से घिरा है, इसलिए देर रात तक लोग बाजार की रौनक बनाये रखते हैं। दुर्गा पूजा के मध्यनजर पूरे बंगाल में बड़े-बड़े पंडाल बन रहे हैं। दिन रात काम प्रगति पर है। हमने वहां जाकर मजदूरों से बात की। अमूमन मजदूर बिहारी, नेपाली और मुस्लिम हैं। उन्होंने बताया कि एक-एक पंडाल को तैयार करने में दो-तीन माह तक लग जाते हैं। उन्होंने बताया कि दुर्गा पूजा यहां सबसे बड़ा पर्व है, जिसकी तैयारी जुलाई से ही शुरू हो जाती है। हम बंगाली साड़ी के एक शो रूम में गये। कुछ साड़ियां खरीदीं। पता चला कि पूरे कोलकाता में मोल भाव का चलन नहीं है। बार्गेनिंग की कोई गुंजाइश ही नहीं है। हर सामान पर रेट फिक्स है। खैर, हम खरीददारी कर ही रहे थे, अचानक बेबी दीदी का फोन आ गया और हम खुशी-खुशी उनके घर चल दिये।
अगले भाग में जारी………………..