-नारायण चन्द्र मण्डल
बांग्ला देश में एक तालाब से पानी पीते थे हिन्दू-मुसलमान: नारायण चन्द्र मण्डल
-रूपेश कुमार सिंह
खुलना डिस्टिक का सबसे बड़ा गाँव था पैडीखाली। कुछ ब्राहमण परिवारों को छोड़कर करीब सात सौ हिन्दुओं (नमोःशूद्र) के परिवार थे। हिन्दुओं से कहीं ज्यादा मुसलमानों की आबादी थी। गाँव के एक छोर पर नमोःशूद्रों के घर थे तो दूसरी छोर पर मुसलमानों के। ऊपरी हिस्से में पंडित रहते थे। जातिगत आधार पर बस्ती बंटी होने के बावजूद लोगों में मेल-मिलाप गहरा था। एक-दूसरे के दुःख-सुख, तीज-त्योहर में आना-जाना रहता था। गाँव में तमाम कार्यक्रम और जश्न साझा होते थे। नफरत और हिंसा की कोई गुंजाइश नहीं थी। छुट-पुट तनाव होने पर दोनों पक्षों के मुअज़्ज़म लोग आपस में बैठकर मामले को सुलटा लेते थे। खेती-बाड़ी और अन्य जरूरतों के लिए एक-दूसरे पर निर्भरता थी। दोनों समुदाय के बच्चों का एक साथ खेलना, एक साथ समूह में शहर जाना, व्यापार में हिस्सेदारी रहती थी। खान-पान, रीति-रिवाज कुछ जुदा जरूर थे, लेकिन वो आज की तरह तब कभी विवाद का कारण नहीं बने।
गाँव के भीतर एक बड़ा पुकुर (तालाब) था। यह न सिर्फ अपने गाँव के लोगों की प्यास बुझाता था, बल्कि आसपास के दर्जनों गाँव के लोग पानी लेने वहाँ आते थे। तालाब सामरिक समरसता का प्रतीक था। आपसी सामंजस्य को बनाये रखने में तालाब महत्वपूर्ण था। तब पीने के पानी के लिए नल नहीं हुआ करते थे। नदी-नाले, तालाब, गूल का पानी ही रोजमर्रा के काम में इस्तेमाल होता था। पैडीखाली गाँव के तालाब का पानी बहुत स्वादिष्ट और मीठा था। दूर-दराज के लोगों को भी इस तालाब की खूबी पता थी। तालाब की सुरक्षा और व्यवस्था की जिम्मेदारी ग्राम पंचायत की थी। तालाब गाँव की शान था। तालाब के चारों ओर केले और नारियल के पेड़ लगे थे। दो छोर पर दो घाट (चबूतरे) बने हुए थे। एक महिलाओं के लिए दूसरा पुरूषों के लिए। हिन्दुओं में महिलाएं ही पानी लाती थीं, इसलिए जिस घाट से वे पानी भरती थीं, उसे हिन्दुओ का घाट भी कहते थे। मुसलमानों में महिलाओं को बाहर आने की आजादी नहीं थी, इसलिए जिस घाट से मुसलमान पुरूष पानी लेते थे, उसे मुसलमानों का घाट कहा जाता था।
1947 में विभाजन से पहले गाँव का जो तालाब आपसी एकता और प्रेम का प्रतीक था,
वही बाद में झगड़े की जड़ में तब्दील हो गया।
नूरूलहक सरदार गाँव के सरपंच थे। उनके पिता अहमद सरदार भी सरपंच रहे थे। पंचायत में हिन्दू-मुसलमान दोनों को बराबर का अधिकार था। नूरलहक आपसी रजामंदी और सुझाव से ही गाँव के लिए फैसले लेते थे। 1947 में विभाजन से पहले गाँव का जो तालाब आपसी एकता और प्रेम का प्रतीक था, वही बाद में झगड़े की जड़ में तब्दील हो गया। तालाब को कब्जाने के लिए विवाद होने लगे। 13 अगस्त 1947 को हिन्दुओं ने पूरे गाँव में इस बात के लिए जश्न मनाया कि खुलना भारत में रहेगा। ढोल-नगाढ़ों के साथ नाचना-गाना हुआ। मुसलमानों में आक्रोश था। 14 अगस्त को तस्वीर बदल गयी। अब जश्न के आगोश में मुसलमान आपे से बाहर थे। हिन्दू परिवार डरे-सहमें इस दिन अपने घर से बाहर नहीं निकले। एक अजीब बेचैनी थी लोगों में। आगे क्या होगा, किसी को कुछ पता नहीं था। गाँव के पश्चिम में मंगला नदी के किनारे हिन्दुओं के कुछ घरों को आग के हवाले कर दिया गया। हालाँकि हमलावर गाँव के मुसलमान नहीं थे। बिहार की तरफ से आये मुसलमानों ने जमीन कब्जाने की नियत से यह हमला बोला था। मुसलमानों ने तालाब में हिन्दुओ का प्रवेश वर्जित कर दिया।
कुछ दिन अफरा-तफरी में गुजरे। कल तक हम जिन मुसलमान दोस्तों के साथ खेलते थे, वे अब मैदान से नदारद थे। हिन्दू बच्चे भी मुसलमान बस्ती में नहीं जा रहे थे। एक पखवाड़े बाद सरपंच नूरूलहक ने दोनों समुदायों के सम्भ्रांत लोगों को लेकर पंचायत की। गाँव में तनाव खत्म करने का फैसला हुआ। जो लोग हिन्दुस्तान जाना चाहते हैं, उन्हें बाॅर्डर तक मुसलमान खुद छोड़कर आयेंगे, यह भी तय हुआ। साथ ही फैसला हुआ कि हिन्दू लोग आपस में चंदा करके तालाब के दोनों घाटों को पक्का करेंगे। पानी लेने का समय भी नियत किया गया। जिस समय हिन्दू महिलाएं पानी लेने जायेंगी, उस समय मुसलमान पुरूष तालाब में नहीं जायेंगे। और जब मुसलामन पानी ले रहे होंगे, तब हिन्दुओं का तालाब में प्रवेश करना वर्जित रहेगा। बाहर के गाँव वालों के लिए मनाही कर दी गयी। साझी विरासत तालाब पर एक तरह से मुसलमानों का कब्जा हो गया। इस तरह छोटी-छोटी चीजों पर कब्जे होने लगे। असुरक्षा की भावना बंगाली नमोःशद्रों में इस कदर फैल गयी कि हर कोई अपनी जमीन, जानवर, और चल-अचल सम्पत्ति को छोड़कर भारत आने को उतावला हो रहा था।
रामपाल थाना क्षेत्र के पैड़ीखाली गाँव में 1938 को जन्मे नारयण चन्द्र मण्डल के पास बांग्ला देश की ऐसी बहुत सी यादें अभी जिन्दा हैं। पूरा जीवन भारत में बिता देने के बाद भी अपनी मातृभूमि को छोड़ने का दर्द उनके जेहन में है। बहुत से रिश्तेदार जो बांग्लादेश में ही रह गये, उन्हें दोबारा न देख पाने और न मिल पाने की पीड़ा नारायण मण्डल से बात करके साफ समझी जा सकती है। नारायण मण्डल ने न सिर्फ अखण्ड भारत में अपनी मातृभूमि बांग्लादेश में कौमी एकता-भाईचारे को अपनी आँखों से देखा है, बल्कि विभाजन के बाद साम्प्रदायिक दंगों में अपनों को बिछुड़ने-मरने का वीभत्स मंजर का भी सामना किया है। तराई की बंजर-दलदली जमीन को अपने हाथों से सींचा है। शक्तिफार्म क्षेत्र में विस्थापित बंगालियों को बसाने मंे अपनी जिन्दगी बसर की है। दास्ता सुनाते-सुनाते नारायण मण्डल कई बार भावुक जरूर होते हैं, लेकिन आँखें अब डबडबाती नहीं हैं। लगता है कि जिन्दगी के संघर्ष ने आँखों की नमी भी छीन ली है।
वे बताते हैं कि विभाजन के बाद माहौल पूरी तरह से बदल चुका था। चारों तरफ नफरत और हिंसा का दौर था। हमारे गाँव में अपेक्षाकृत शान्ति थी, लेकिन कब तब रहेगी, कहना मुश्किल था। अगल-बगल के गाँवों से बंगाली हिन्दुओं का पलायन जारी था। 1948 में माइग्रेशन प्रमाण पत्र बनने शुरू हो गये थे। अचल सम्पत्ति छोड़कर आप हिन्दुस्तान जा रहे हैं, इसका उल्लेख माइग्रेशन प्रमाण पत्र में रहता था। 1948-49 दो साल असमंजस में बीते। पिता ने दलाल को दस रुपये दिए। वह कुछ दिन में ही ढाका जाकर माइग्रेशन सर्टिफिकेट बना लाया। जेठा (ताऊ) भारत आने को तैयार नहीं थे। पिता ने घर-जमीन उनको दे दी। जो नगद मिला, उसे लेकर अगस्त 1950 को 16 परिवार एक साथ गाँव से निकले। पता था कि गाँव वालों से दोबारा मुलाकात नहीं होगी। सगे-संबंधी, रिश्तेदार गले लग कर रोे रहे थे। खूब रोना-धोना हुआ। वो विदाई का मंजर याद कर आज भी शरीर स्तब्ध हो जाता है।
बाॅडर पर चैकिंग के नाम पर लोगों का सामान और पैसे छीन लिए जाते थे।
रात को बड़ी नाव पर सवार होकर हम मंगला नदी से खुलना शहर पहुँचे। वहाँ से पैट्रापोल (पाकिस्तान बाॅडर) पहुँचे। हमारे गाँव से बाॅडर तक आने के दो ही नदी मार्ग थे। एक मंगला नदी दूसरा चाॅनपाई नदी। गाँव से बाॅडर तक पहुँचने में दो दिन लग गये। कुछ जरूरी सामान माँ-बाबा ने सिर पर उठा रखा था। दोनों के पास मिलाकर कुल नौ सौ रुपये भी थे। मेरे पास तीन सौ रुपये पिता ने छुपा कर रखने के लिए दिए थे। मैंने उसे नेकर की अन्दर वाली जेब में रखा था। बाॅडर पर चेकिंग के नाम पर लोगों का सामान और पैसे छीन लिए जाते थे। पैसे न देने पर भारतीय बाॅडर पर जाने नहीं दिया जाता था। पाकिस्तान फौज के जवान ने सामान चेक करने के नाम पर हमारा सामान और पैसे ले लिए। मैं बच्चा था इसलिए मेरी चेकिंग नहीं हुई और मेरे पास रखे तीन सौ रुपये भारत तक पहुँच गये। यही रुपये भारत में हमारे बुरे वक्त का सहारा बने थे। बाॅडर पर खुली लूट देखकर मन बहुत परेशान था, लेकिन हम करते भी तो क्या? शाम को ट्रेन आयी और हम लोग बिना सामान के ही ट्रेन में बैठ गये। यदि सामान के लिए रुकते तो अगली ट्रेन दो दिन बाद ही मिलती।
बंगाली विस्थापित आँधी के बाद फैले कूड़े पर झाडू फेरने के माफिक हाँके जा रहे थे।
हम भारत के बाॅडर बैनापोल रेलवे स्टेशन पर आ गये। यहाँ पूर्वी पाकिस्तान से आने वालों का मेला लगा हुआ था। समाजसेवी संस्थाएं और सरकारी कर्मचारी जरूरी सामान और खाना दे रहे थे। प्लेटफार्म के एक ओर शरणार्थी कैम्प में जाने के लिए लिस्ट तैयार हो रही थी। दूसरी ओर लोग खुले आसमान में लेटे-बैठे थे। नाम दर्ज कराने को लोग लम्बी कतार में लगे हुए थे। कई महीने रेलवे प्लेटफार्म पर पड़े रहने के बाद कैम्प जाने का नम्बर आता था। दोपहर और शाम को पंगत में बैठाकर केले के पत्ते पर खिचड़ी तो कभी दाल-भात परोसा जाता था। गंदगी का अंबार था। खाना बनाने-खाने और शौच करने के स्थान में ज्यादा दूरी नहीं थी। विपरीत हवा चलने पर मल-मूत्र की बदबू जीना दूभर करती थी। उस समय वहाँ टिकना बहुत मुश्किल होता था। जितने लोग कैम्पों में शिफ्ट नहीं होते थे उससे ज्यादा प्रतिदिन नये आ जाते थे। हर एक चेहरे की अलग परेशानी और दास्तां थी। उथल-पुथल के माहौल में बंगाली विस्थापित आँधी के बाद फैले कूड़े पर झाडू फेरने के माफिक हांके जा रहे थे।
नारायण मण्डल बताते हैं कि नया देश, नयी चीजें, कुछ भी पहचान का नहीं था। प्लेटफार्म पर लेटने के लिए हमें अनाज की बोरी मिली थी। कपड़े-लत्ते थे नहीं। कई-कई रोज नहाना नहीं होता था। खैर! कुछ दिन बाद हमें सियालदा रेलवे स्टेशन लाया गया। यहाँ से हमें निकट के रानाघाट शरणार्थी शिविर भेज दिया गया। एक जूट का बड़ा सा गोदाम, जिसमें भेड़-बकरियों की तरह हमें ठूंस दिया गया। रानाघाट में 32000 कार्ड धारक पहले से ही रह रहे थे। कैम्प में महिला-पुरूष पंकितबद्ध एक दूसरे से सटे हुए पड़े रहते थे। जगह बहुत कम होती थी। कोई आड़ नहीं, कोई फासला नहीं। भीषण गर्मी के कारण ज्यादातर पुरूष नंगे रहते थे। नीचे घुटने तक लुंगी पहनते थे। बुजुर्ग महिलाएं एक साड़ी में रहती थीं। उनकी पीठ पर कपड़ा नहीं रहता था। जवान महिलाएं जरूर पूरी तरह से ढकी रहती थीं। 7-8 साल के बच्चे नंगे या फिर नेकर में घूमते थे। बीमारी का कहर था। पेचिस, चेचक, टाइफाइड का संक्रमण जोर पकड़े हुए था। सैकड़ों की तादाद में रोज लोग मरते थे। परिजन उनका अन्तिम संस्कार तक नहीं कर पाते थे। सरकारी ट्रक दिन में एक बार आकर सारी लाशों को भर कर ले जाता था। न जाने फिर उन लाशों का अन्तिम संस्कार कहाँ और कैसे होता था।
भारत सरकार ने 1952 में ही देश के कई राज्यों में बंगालियों को बसाने की प्रक्रिया शुरू कर दी थी।
वे बताते हैं कि उनके छोटे भाई मनीन्द्र मण्डल की मौत भी रानाघाट कैम्प में चेचक से हुई थी। कैम्प में इलाज की कोई सुविधा नहीं थी। बाहर जाने के लिए न तो पैसे थे और न ही कोई आइडिया। इस बीच कैम्प में पढ़ाई शुरू हुई। मेरी उम्र तो ज्यादा थी, लेकिन मुझे चैथी में दाखिला दिया गया। कई साल हमने इसी कैम्प में गुजारे। 1956 में तम्बू लगाये गये। परिवार के हिसाब से लोगों को तम्बू में रखा गया। भारत सरकार ने 1952 में ही देश के कई राज्यों में बंगालियों को बसाने की प्रक्रिया शुरू कर दी थी। नैनीताल के तराई क्षेत्र, दण्डकारय, अण्डमान, मध्य प्रदेश के जंगल वाले इलाकों में बंगालियों को भेजा जा रहा था। बंगाली मूल रूप से मछुआरे थे। खेती में पारंगत नहीं थे। पूर्वी पाकिस्तान में साल में सिर्फ धान की एक फसल ही पैदा होती थी। बाकी समय में लोग खेत की ओर रुख करते ही नहीं थे। यहाँ जंगलों को काट कर बंजर जमीन को खेती योग्य बनाना एक विशाल चुनौती थी। जमीन में खटना बंगालियों के मनमाफिक काम नहीं था।
पिता जी हमें लेकर रायपुर (अब छत्तीसगढ़) क्षेत्र के शरणार्थी कैम्प भी गये। कई जगह घूमे, लेकिन अन्त में नैनीताल आने का इरादा कर लिया। महीना तो याद नहीं, लेकिन ठंड जा रही थी। शायद मार्च का महीना रहा होगा। 1950 में पूर्वी पाकिस्तान से अपने गाँव से निकले 16 परिवारों में से निरोद बाबली, देवेन्द्र सिकदार और पिता जी महादेव मण्डल तीन परिवार नैनीताल आने के लिए हावड़ा से ट्रेन में चढ़े। चार दिन-रात सफर करने के बाद, लखनऊ में ट्रेन बदलकर हम बरेली पहुँचे। वहाँ से अगले दिन किच्छा प्लेटफार्म पर आये। 1952 में दिनेशपुर के 36 बंगाली गाँव बस चुके थे। रुद्रपुर के ट्रांजिट कैम्प में भी बड़ी संख्या में बंगाली विस्थापित रह रहे थे। इसकी जानकारी पिता जी को थी। 1958 में शक्तिफार्म बसा। हमें यहीं भेजा जाना तय हुआ। औपचारिकताएं पूरी होने तक हमने किच्छा प्लेटफार्म के नजदीक ही आम के बगीचे को अपना आशियाना बना लिया। कुछ अन्य परिवार भी साथ हो लिये और हमारा एक समूह बन गया। यह समूह एक दिशा में आगे चलने और बसने को तैयार था।
इधर के लोग तब बांग्ला नहीं समझते थे और हम लोग हिन्दी से कोसो दूर थे।
पश्चिम बंगाल की तुलना में किच्छा में बहुत ठंड थी। दिन में तो मौसम ठीक रहता था, लेकिन शाम होते ही नमी बढ़ने लगती थी। सर्द हवाएं बहतीं थीं। राम को खुले में सोना कतई संभव नहीं था। मौसम की ठंडक ने लोगों को बीमार करना शुरू कर दिया। हमें ठंड में रहने की आदत नहीं थी। पूर्वी पाकिस्तान में भी मौसम गर्म रहता था। इसलिए ज्यादा कपड़े और गर्म कपड़े पहनने का चलन नहीं था। लोग सामान्यतः नंगे रहते थे। हमारे पास गर्म कपड़े भी नहीं थे। न ही बाजार से खरीदने की क्षमता थी। आसपास के लोगों ने हमारी मदद की। बगीचे और इर्द-गिर्द से हम सूखे पत्ते और लकड़ियां बीन लेते थे। उसी से दो वक्त का खाना बनता था और रात में आग जला कर उसके चारों और लोग लेटते-बैठते थे। एक रोचक घटना जानना बहुत जरूरी है। तब किच्छा में तीन किराने की दुकान होती थीं। पश्चिम बंगाल से साथ में लाया नमक खत्म हो गया। दो-तीन लोग नमक लेने दुकान पर गये। इधर के लोग तब बांग्ला नहीं समझते थे और हम लोग हिन्दी से कोसो दूर थे। हमने दुकानदार से लबोण (नमक) मांगा। दुकानदार हमारी बात नहीं समझा। उसने मना कर दिया कि लबोण नहीं है। हम भी नहीं समझा पाये कि नमक को हम लोग लबोण कहते हैं।
नमक ने हमें संकट में डाल दिया
बिना नमक के खाना कैसे बने? अब चर्चा शुरू हो गयी। एक बोला, ‘‘जाने कौन से देश आ गये हैं, यहाँ लबोण ही नहीं है।’’ दूसरा बोला, ‘‘इतनी ठंड में कौन रहेगा? चारों तरफ जंगल ही जंगल है।’’ तीसरे ने कहा, ‘‘मैं तो पहले ही नैनीताल आने के पक्ष में नहीं था।’’ उस रात बिना नमक के ही खाना बना। रात में आग के चारों और बैठकर नमक पर ही चर्चा हुई। नमक ने हमें संकट में डाल दिया था। अगले दिन सुबह पुनर्वास विभाग का एक कर्मचारी आया। वो बंगाली था। हमने अपना दुखड़ा रोया। उसने दुकानदार को बताया इन्हें नमक चाहिए। नमक आगे मिले न मिले इसकी आशंका के चलते हर परिवार ने दो-तीन किलो नमक ले लिया। उस दिन तीनों दुकानों पर नमक एक झटके में खत्म हो गया।
एक सप्ताह बाद हमें ट्रक में भर कर शक्तिफार्म लाया जा रहा था। पिपलिया चैराहे से रामचन्द्र फार्म आने तक शाम हो गयी। ट्रक खराब हो गया। रात चढ़ने लगी थी। ड्राइवर और क्लीनर ने बहुत कोशिश की, लेकिन गाड़ी नहीं संभली। घने जंगल के बीच हम लोग थे। उस समय बैगुल-धौरा डाम का काम शुरू हुआ था। सैकड़ों की संख्या में गधों से मिट्टी ढुलाई का काम कराया जा रहा था। हम लोग तब गधे से अनजान थे। रात में आग जलाकर उसके चारों और सभी बैठे थे। उस रात खाना नसीब नहीं हुआ। कुछ-कुछ सूखा खाना था, वही खाया सभी ने। सर्द हवा चल रही थी।
उस रात गधों ने डराया
आधी रात में गधों ने रेंकना शुरू कर दिया। एक साथ जब सैकड़ों गधे रात में रहके तो आवाज बहुत डरावनी थी। पता नहीं, कौन सा जानवर है? हम समझ ही नहीं पा रहे थे। सोते हुए बच्चे जग गये। सभी पुरूष चारों ओर से घेरा बनाकर पहरा देने लगे। बीच में महिलाएं और बच्चे थे। आग जल रही थी। आधे घंटे में गधे शान्त हो गये। तब जाकर जान में जान आयी। सुबह जानकारी हुई कि रात में चीखने वाले जानवर गधा थे। डाम किनारे-किनारे कच्चे रास्ते पर हम बैलगाड़ी से शक्तिफार्म पहुँचे। 1958 के प्रारम्भ में पहले चरण में शक्तिफार्म के पाँच गाँव बसे। बैकुण्ठपुर, गुरूग्राम, देवनगर, टैगोर नगर और सुरेन्द्र नगर। इन गाँवों को शक्तिफार्म एक से पाँच नम्बर तक के नाम से जाना जाता है। वर्तमान में नम्बरों का चलन ही है। नारायण मण्डल बताते हैं कि शुरूआत में सरकार की ओर से पुनर्वास विभाग द्वारा क्वाटर बनाकर दिये गये थे। साथ ही पाँच एकड़ जमीन दी गयी। लेकिन इस जमीन पर मालिकाना हक आज तक बंगाली समाज को नहीं मिला है। वर्ग आठ(क) में होने की वजह से इसकी खरीद-फरोख्त पर रोक है। न ही इस जमीन पर बंगाली समाज को लोन आदि मिलता है। हालाँकि इकरारनामा लिखकर काफी बंागली विस्थापितों ने अपनी जमीन दूसरे समुदाय के लोगो को बेच दी हैं। इसके बहुत से कारण रहे। अधिकांश लोग अब भूमिहीन हैं।
तीन साल पूरे परिवार की मेहनत करने के बाद पाँच एकड़ जमीन खेती के लिए तैयार हुई
वे बताते हैं कि उस समय जमीन लाटरी सिस्टम से भी आवंटित की गयी। हम कई महीने शक्तिफार्म न0 4 में खुले मैदान में रहे। फिर लाटरी से हमें नम्बर तीन में पाँच एकड़ जमीन मिली। जमीन नदी पार थी। आवाजाही में बहुत परेशानी थी। लिहाजा कुछ महीने बाद पुनर्वास विभाग के लोगों ने पचास रुपये लेकर हमें तीन नम्बर में ही दूसरी जगह जमीन दे दी। सरकारी ट्रैक्टर खेत तैयार करने में लगे हुए थे। एक मशीन बड़े पेड़ उखाड़ रही थी। ट्रैक्टर से खेत जोतने के भी पैसे देने पड़ते थे। यह अवैध वसूली थी, लेकिन उसके बगैर कुछ होने वाला भी नहीं था। तीन साल पूरे परिवार की मेहनत करने के बाद पाँच एकड़ जमीन खेती के लिए तैयार हुई और हमने बीज छिड़ककर पहली फसल बोई। यह सुखद एहसास था। आखिर मेहनत रंग लाती नजर आ रही थी। जंगली जानवर खेती को नुकसान पहुँचाते थे। लिहाजा दिन-रात हम दोनों भाइयों को पहरा देना होता था। खेत में बाँस से मचान बनाया हुआ था। दोपहर में उसी पर बैठकर आराम करते थे। जानवर हमलावर हो तो बचने के लिए भी यही मचान काम आते थे। बनाते वक्त इनकी मजबूती पर विशेष ध्यान दिया जाता था।
शक्तिफार्म क्षेत्र में 17 गाँव बंगाली विस्थापितों के बसे।
1961 में धान की पहली फसल हुई। सात रुपये कुन्तल का रेट मिला। अनाज के बदले सितारगंज के थारू जनजाति के लोगांे से अन्य फसल का आदान-प्रदान हुआ। बाजार में भी फसल देकर सामान मिल जाता था। लेकिन इससे किसान को खासा नुकसान होता था। बिचैलिए मुनाफा कमा जाते थे। उस समय जंगली जानवरों का शिकार भी खूब होता था। साग सब्जी उगा लेते थे। आलू, प्याज बाजार से खरीदना होता था। तब सितारगंज या किच्छा बाजार लोग इक्का-दुक्का नहीं जाते थे। हर सप्ताह समूह में लोग बाजार जाते थे। ऐसा सुरक्षा के लिहाज से होता था। पैदल ही जाना होता था, इसलिए लोग झुंड़ बनाकर बातचीत करते हुए निकल जाते थे। 1959 में शक्तिफार्म नम्बर छः बसा। 1960-61 में पाड़ा गाँव, रतनफार्म एक से लेकर तीन तक, बीस क्वाटर में लोगों को बसाया गया। 1964-65 में रतनफार्म चार से नौ तक, आनन्दनगर, आचार्य गाँव बसे। कुल मिलाकर शक्तिफार्म क्षेत्र में 17 गाँव बंगाली विस्थापितों के बसे। गाँवों के नाम या तो बंगाली महापुरूषों के नाम पर रखे गये या फिर उस समय के संभ्रान्त लोगों के नाम पर । प्रारम्भ में शक्तिफार्म के कुल 17 गाँव में 1275 परिवारों को बसाया गया था।
नारायण मण्डल बताते हैं कि उस समय समाज के अग्रज लोगों में भद्र मिस्त्री, सुशील हाल्दार, सुरेन्द्र सरकार, बंक गोल्दार प्रमुख थे। 1961 में पुलिस चैकी के सामने दुर्गा पूजा शुरू हुई। बाद में यह पूजा चार नम्बर में होने लगी। जो आज तक जारी है। 1971 के समय बड़ी संख्या में बंगाली विस्थापित
शक्तिफार्म क्षेत्र में आये, जिन्हें कोई सरकारी सुविधा नहीं मिली। समाज के लोगों ने अपनी जमीन पर ही रहने लायक जगह दी। आज भी बड़ी तादाद भूमिहीन गरीब बंगालियों की हैं। नारायण मण्डल की 1962 में भूढ़िया फार्म(बरेली) से शादी हुई। 40-50 लोग बरात लेकर पैदल ही गये और उधर से बहु को पैदल ही लेकर आये। तब बारात कई दिनों बाद वापसी करती थी। बारात में लोग खूब मनोरंजन करते थे। जहाँ एक ओर हँसी मजाक करने और अभिनय करने वाले लोग बारात में ले जाये जाते थे, वहीं शारीरिक दक्ष लोगों को भी सुरक्षा के लिहाज से साथ ले जाया जाता था। शादी के बाद पिता जी ने साईकिल ली। उस समय बहू को ससुराल ले जाने ले आने का काम ससुर ही करते थे। पति को साथ जाने की इजाजत नहीं थी। नारायण मण्डल बताते हैं कि उस समय 600 रुपये खर्च हुए थे शादी में।
सरकारी उपेक्षा झेलते हुए पहाड़ सी जिन्दगी का सामना करते हुए नारायण मण्डल ने अपने चारों बेटों को उच्च शिक्षा तक पहुँचाया। उनके बड़े बेटे संजीव कुमार मण्डल हाईकोर्ट नैनीताल में वकील हैं। छोटे बेटे शंकर मण्डल पिथौरागढ़ डिग्री काॅलेज में पढ़ाते हैं। समीर और संजय खेती देखते हैं।
नारायण मण्डल मानते हैं कि अनपढ़ होना बंगाली समाज के लिए अभिशाप है। बंगाली समाज श्रमशील समाज है, जिसकी कद्र नहीं की गयी। आज इतने साल बाद भी हमसे भारतीय होने का प्रमाण पत्र मांगा जाता है, यह बहुत ही पीड़ादायक है। हम विभाजन के बाद से ही उत्पीड़ित हैं और आज तक सरकारी दंश को झेल रहे हैं। बंगाली समाज को सम्मान और उनका वाजिब हक कब मिलेगा? इसका जवाब किसी सरकार के पास है?
–रूपेश कुमार सिंह
स्वतंत्र पत्रकार
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