क्यों छूट जाते हैं तराई के मुद्दे?
तराई को सिरे से कर दिया जाता है गायब
दो दशक से मैं उत्तराखण्ड में होने वाली गोष्ठियों, सेमिनार, सम्मेलन, आन्दोलन में शिरकत करता आ रहा हूं। इस दौरान राज्य के विविध क्षेत्रों में स्थापित विद्वानों के विचार एवं अनुभवों को जानने-समझने का मौका मिला। जब बात उत्तराखण्ड की होती है, राज्य के परिपेक्ष्य में होती है, तो उत्तराखण्ड का महत्वपूर्ण हिस्सा तराई सिरे से गायब कर दिया जाता है। तराई की सहमति-असहमति या समस्याओं से कोई सरोकार नहीं दीखता है। ऐसा लगता है, जैसे मानो उत्तराखण्ड में तराई शामिल ही नहीं है। गैरसैंण को राजधानी बनाने को लेकर संचालित आन्दोलन में भी तराई को शामिल नहीं किया गया। जबकि तराई की बड़ी आबादी हमेशा उत्तराखण्ड पृथक राज्य की समर्थक रही। गैरसैंण राजधानी का समर्थन भी तराई के तमाम संगठन व सामाजिक कार्यकर्ता करते रहे हैं और कर रहे हैं। लेकिन तराई के मुद्दे कभी क्यों नहीं बहस का हिस्सा बनते? मैंने कभी भी किसी जनवादी लेखक, पत्रकार, प्रगतिशील कार्यकर्ताओं, साहित्यकार, सामाजिक कार्यकर्ताओं व आन्दोलनकारी नेतृत्वकर्ताओं को तराई के मूल मुद्दों पर लिखते, बोलते व संघर्ष करते नहीं देखा। कायदे में जब बात सम्पूर्ण राज्य की होती है तो पहाड़ एवं तराई के मुद्दे-समस्याएं समान रूप से उठायी जानी चाहिए। आपस में फर्क करना किसी भी मायने में उचित नहीं है।
विद्रोह के बारूद पर खड़ा है जनपद
उत्तराखण्ड की तराई खास तौर पर ऊधम सिंह नगर जनपद राज्य के लिए कई मायनो में महत्वपूर्ण है। सिडकुल की स्थापना के बाद तो नित नये परिवर्तन यहां की समस्याओं, यहां के भूगोल एवं स्वरूप में हो रहे हैं। अनेक चुनौतियों को लिये जनपद विद्रोह के बारूद पर खड़ा है। यहां घटने वाली घटनाएं पहाड़ को भी प्रभावित करती हैं। इसलिए तराई को राज्य से अलग करके सोचना सही नहीं है। तीखे अन्तर्विरोध से ग्रस्त जनपद में तेजी से बड़ी-बड़ी विसंगतियां जन्म ले रही हैं। पहले से मौजूद बड़े मुद्दे और भी जटिल और विकराल हो रहे हैं। मसलन खटीमा-सितारगंज क्षेत्र में थारू जनजाति की जमीन वापसी, शक्तिफार्म क्षेत्र में बंगाली समाज की जमीन व भूमिधारी हक, सूदखोरों से मुक्ति, बंगाली लोगों के स्थायी निवास प्रमाण पत्र में पूर्वी पाकिस्तान बंगला देशी शब्द हटाने का मामला, अल्पसंख्यकों (मुस्लिम-सिख) को उचित सम्मान, हजारों भूमिहीनों को भूमि उपलब्ध कराना, सीलिंग एक्ट सख्ती से लागू करना, गूलरभोज के विस्थापित बुक्सा समाज को संरक्षण और जमीन की सुरक्षा, कृषि जोत का लगातार नष्ट होना, पंतनगर विश्वविद्यालय को मजबूती देना, मजदूरों की बदहाली, किसानों का कर्जदार होना, चीनी मिलो का लगातार बंद होना, गन्ना किसानों का बकाया भुगतान, किसानों की बदहाली और आत्महत्या की घटनाओं में इजाफा, अपराध में वृद्धि, जनसंख्या का बढ़ता दबाव, धार्मिक उन्माद, सड़क पर वाहनों का दबाव, प्रदुषण, सांस, नाक, त्वचा व फेफड़े की बढ़ती बीमारियां, जमीन की खरीद-फरोख्त, नशे का बढ़ता चलन, लघु उद्योगों का चोपट होना, बढ़ता शहरीकरण, गांव की उपेक्षा, नजूल भूमि का निस्तारण, अतिक्रमण आदि तमाम वो मुद्दे हैं जो हमेशा यहां कुुछ न कुछ नया गुल खिलाते रहते हैं। महत्वपूर्ण यह है कि जब भी उत्तराखण्ड के परिपेक्ष्य में बात होती है तो इन मुद्दों को बातचीत में जगह नहीं मिल पाती है। सिर्फ पहाड़ के मुद्दे ही चर्चाओं में शुमार रहते हैं।
पहाड़ के मुद्दे भी गौण नहीं
ऐसा नहीं कि पहाड़ के मुद्दे कम महत्वपूर्ण हैं। पहाड़ के तमाम मुद्दे राज्य बनने के 18 साल बाद भी जस के तस बने हुए हैं, बल्कि और भी विकराल स्थिति में हैं। जल-जंगल-जमीन का सवाल हो, वन्य जीवों के संरक्षण और सुरक्षा का मुद्दा हो, बिजली, पानी, सड़क का सवाल हो, पलायन, खेती की दुर्दशा, खनन, शराब, चिकित्सा, शिक्षा, बड़े बांधों से उत्पन्न समस्याएं पहाड़ को झकझोर रही हैं। इसके अलावा तमाम ऐसे मसले हैं, जो दशकों से पहाड़ के लोगों को आन्दोलित कर रहे हैं। प्राकृतिक आपदाएं अलग से कहर बरपाती रहती हैं। पहाड़ की समस्याओं में खास बदलाव नहीं आया है, लेकिन तराई में अन्तर्विरोध लगातार तीखा हो रहा है। तराई में वर्गीय संघर्ष आमने सामने का है जो कभी भी विस्फोटक हो सकता है।
उत्तराखण्ड के हर क्षेत्र का मुद्दा है अहम
मेरा सवाल है, जब पूरे उत्तराखण्ड की बात होती है तो तराई के मुद्दों को क्यों छोड़ा जाता है? सत्ता में काबिज पार्टियों ने तो हमेशा से उत्तराखण्ड को बांटने का काम किया है, लेकिन राज्य के इंसाफ पसंद लोगों का भेद करना अखरता है। हमे समान रूप से पूरे उत्तराखण्ड के भीतर एक ठोस कार्यक्रम बनाकर चलना होगा। हर क्षेत्र और समुदाय का प्रतिनिधित्व आवश्यक है संघर्ष के वास्ते। एक मंच से संदेश देना होगा कि उत्तराखण्ड के हर क्षेत्र का मुद्दा अहम है और उसके लिए संघर्ष करना हमारी जिम्मेदारी है। तभी हम खुशहाल और समृद्ध उत्तराखण्ड की लड़ाई जीत सकेंगे।
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-रूपेश कुमार सिंह
क्यों छूट जाते हैं तराई के मुद्दे? (भाग- एक)