मोदी के गढ़ दिल्ली में कन्हैया लीला

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एक कन्हैया वृंदावन के थे, तो एक कन्हैया बेगूसराय, बिहार के हैं। या यूं कहिए जवाहर लाल नेहरू विश्व विद्यालय में वामपंथी खाद-पानी, राजनैतिक विचारों से तैयार हुए कन्हैया! जो सत्ता के जुमलों को अपने भाषणों और तर्कों से बेनकाव करने की छमता रखते हैं। वृंदावन के कन्हैया की लीला तो भारत के जन जन के मानस पटल पर है, वे आम जनता की आस्था का हिस्सा हैं। जेएनयू वाले कन्हैया की लीला राजनीतिक है। लोकसभा चुनाव के बहाने उनकी लीला समूचा देश देख रहा है। वे दिल्ली की सत्ता के केन्द्र मंे हैं और सत्ता के गलियारे में कोहराम मचाए हुए हैं। कन्हैया उत्तर पूर्वी दिल्ली सीट से भोजपुरी सिने स्टार मनोज तिवारी के खिलाफ चुनावी मैदान में हैं। यहां चुनाव बहुत ही रोचक हो गया है। दिल्ली से कन्हैया प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ हुंकार भर रहे हैं। उनके भाषणों की गूंज पूरे देश में है।
क्या दिल्ली से कन्हैया को चुनाव में उतारना राहुल गांधी का मास्टर स्ट्रोक है? 2016 में कन्हैया ने जेएनयू का अध्यक्ष बनकर छात्र आन्दोलन से मोदी सरकार की चूलें हिला दी थीं। क्या इस संसदीय चुनाव में कन्हैया कुछ खास कर पायेंगे? कन्हैया के अनुसार यह चुनाव आम चुनाव नहीं बल्कि, धर्म राजसत्ता के खिलाफ न्याय युद्ध है। क्या कन्हैया के सवालों का जवाब है भाजपा के पास? 1977 में छात्र युवा सुनामी से राजनीतिक हवा बदल गयी थी और निरंकुश सत्ता का तख्ता पलट हो गया था। कन्हैंया उसी सुनामी को पुनर्जीवित करने की कोशिश में हैं। तब छात्रों के निशाने पर कांग्रेस थी, अब भाजपा से सीधी लड़ाई है। सत्ता का चरित्र एक जैसा है और विरोध कर रहे लोगों का सुर भी। यह कह पाना मुश्किल है कि सत्ता तब ज्यादा निरंकुश थी या अब! हालात तब ज्यादा बुरे थे या अब! फर्क इतना है कि अब धर्म की चासनी में डुबोकर लोगों को ज्यादा कट्टर और अंधभक्त बनाया जा चुका है। कन्हैया कहते हैं
सत्ता विरोधी खेमे को कन्हैया से बहुत उम्मीदें हैं। खासकर कांग्रेस को। छात्र युवाओं में सबसे ज्यादा सुने जाने वाले कन्हैया, क्या सत्ता का गेम चेंजर बन पायेंगे? सीधे मुद्दों पर सीधी बात करने वाले कन्हैया बेहतरीन वक्ता हैं। गोदी मीडिया जिन महत्वपूर्ण मुद्दों को रफा-दफा कर रही है और पूरी तरह से सत्ता की चाटुकार बन गयी है, ऐसे समय में कन्हैया वेबाक होकर मोदी सरकार की जन विरोधी नीतियों और फैसलों को बेनकाव कर रहे हैं। कन्हैया धीरे-धीरे भाजपा और आरएसएस को चुभने लगे हैं, इसलिए मोदी सरकार के नेता, मंत्री-संत्री कन्हैया को बदनाम करने के लिए देशद्रोही, नक्सली साबित करने में लगे रहते हैं, लेकिन कन्हैया इसका जवाब देने में माहिर हैं और हर बार भाजपा को मुंह की खानी पड़ रही है।
कन्हैया की माने तो वे देश के वंचितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, युवा-छात्रों, मजदूर-किसानों व आम लोगों की आवाज हैं। धीरे-धीरे कन्हैया मोदी और भाजपा विरोधी बड़ा चेहरा बनते जा रहे हैं। यूं तो दिल्ली में 2019 में सातों सीटें भाजपा के पास थीं। तब आम आदमी पार्टी और कांग्रेस ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था। 2024 में इंडिया गठबंधन के तहत आम आदमी पार्टी और कांग्रेस मिल कर चुनाव लड़ रही हैं। दिल्ली की 7 में से 4 सीटों पर आप व 3 सीटों पर कांग्रेस चुनाव लड़ रही है। आम आदमी पार्टी के मुखिया और मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसौदिया जेल में हैं, लेकिन कन्हैया के दिल्ली से चुनाव लड़ने से माहौल काफी रोचक है। कन्हैया और आम आदमी पार्टी की दूसरी लाइन के नेता जमकर मोदी और भाजपा को टक्कर दे रहे हैं।
कन्हैया कह रहे हैं कि भाजपा संविधान को खत्म करने की तैयारी किये हुए है। लोकतंत्र को खत्म करके मोदी तानाशाही लाना चाहते हैं। सरकार से सवाल करने वालों पर मोदी सरकार लगातार गैरकानूनी तरीके से निपट रही है। इसी करण कन्हैया अपने नामांकन में संविधान की प्रस्तावना लेकर जुलूस में उतरे थे।
सवाल कन्हैया से भी हैं। कभी भारतीय वामपंथ का भविष्य कहे जाने वाले कन्हैया में विचारधारा कितनी बची है? यह कांग्रेस प्रत्याशी बतौर उत्तर पूर्वी दिल्ली लोकसभा सीट से नामांकन से पहले उनके हवन, कर्मकांड से उसकी झांकी देखने को मिल गई है। ये वे ही कन्हैया हैं जो जयभीम कामरेड के नारे के साथ काल मार्क्स, अंबेडकर, भगत सिंह की विचारधारा के मुताविक जेएमयू के छात्र आंदोलन से भारतीय राजनीति की नई राह बनाते दिख रहे थे। लेकिन अब कन्हैया ऐन केन प्रकारेण दिल्ली की संसद में पहुंचने के लिए खुद धर्म का सहारा लेते दिख रहे हैं। राजनीति में धर्म की कितनी आवश्यकता है? क्या राजसत्ता से धर्मसत्ता को अलग नहीं होना चाहिए? धर्म के नाम पर कर्मकांड करके वोटों का धुर्वीकरण जो भाजपा कर रही है उससे कांग्रेस या कन्हैया भी पीछे नहीं हैं। शायद कन्हैया जनता की नव्ज समझ चुके हैं। भारतीय राजनीति में बिना धर्म के कामयाव नहीं हुआ जा सकता।
कन्हैया ने नामांकन के हलफनामे में बताया है कि न तो उनके पास घर है और न ही गाड़ी। न कोई कर्ज है न ही हीरे जवाहरात। बैंक के एकाउंट में उनके पास 11 लाख रूपये हैं। यह पैसा कन्हैया के पास उनकी किमाबों और शोध पत्रों से आया है। कन्हैया 28 सितम्बर 2021 को वामपंथ को तिलांजलि देकर कांग्रेस में शामिल हुए थे। वे राहुल गांधी की भारत जोड़ों यात्रा का भी मुख्य हिस्सा थे। दिल्ली में आम आदमी पार्टी के सहयोग से कन्हैया अच्चा चुनाव लड़ रहे हैं हो सकता है कि वे मनोज तिवारी को हरा कर चुनाव जीत भी जाए, लेकिन सवाल यह है कि क्या वे वामपंथ का भविष्य न सही, कांग्रेस का भविष्य बन पायेंगे? गांधी परिवार से अलग कांग्रेस का वैकल्पिक नेतृत्व कर पायेंगे? क्या कांग्रेस में गांधी परिवार के इतर कन्हैया जैसे नेता जो पूरी तरह से वामपंथ से तैयार होकर आये हैं, स्वीकार हो पायेंगे?
इतिहास में झांके तो देवी प्रसाद त्रिपाठी, अनुग्रह नारायण सिंह जैसे तमाम नेता हैं जो वामपंथ से निकले थे और वामपंथी तर्क शक्ति और प्रखता से उभरे थे, लेकिन वे दूसरी-दूसरी पार्टियों में शामिल हुए और कहीं विलुप्त हो गये। क्या चुनाव के बाद कांग्रेस में वहीं हाल कन्हैया का भी होगा? यह वक्त इन सवालों का नहीं है।
चुनाव तेजी से दौड़ रहा है। ऐसे में आज के सन्दर्भ ज्यादा महत्वपूर्ण हैं जिस तरह से संवैधानिक संस्थाओं पर सरकारी कब्जा हो रहा है, संस्थाओं का दुरप्रयोग किया जा रहा है। मीडिया को सरकारी भोपू बनाया जा चुका है, बोलने वालों और सरकार से सवाल करने वालों को जेल में डाला जा रहा है। चुनाव जन मुद्दों से दूर सिर्फ हिन्दू मुसलमान पर ला दिया गया है। देश में प्रधानमंत्री खुद और एक विचारधारा नफरती माहौल बनाने में लगी हो तब कन्हैया जैसे नौजवानों का मुखर होकर बोलना ही काफी है।
चिन्तन मंथन हर भारतीय नागरिक का अधिकर और कर्तव्य है। विचार करके देखिए आखिर देश किस ओर जा रहा है।

Rupesh Kumar Singh
रूपेश कुमार सिंह
सम्पादक, अनसुनी आवाज

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