घृणा और हिंसा का महोत्सव

पलाश विश्वास कार्यकारी संपादक
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सामाजिक न्याय के मुद्दे पर सत्ता बदल सकती है?
2024 के लोकसभा चुनाव विपक्ष ने बाकी सारे मुद्दों को छोड़कर सबके लिए न्याय और जनसंख्या के हिसाब से सबकी भागेदारी के मुद्दे पर लड़ा। यह कांग्रेस के चुनाव घोषणापत्र से उठा मुद्दा है, जिसका प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चुनावी भाषणों में तीखा विरोध किया। इस मुद्दे की काट के बतौर वे हिंदू-मुसलमान करते रहे और मंगल सूत्र तक का हवाला देते रहे। मतदाताओं को डराते भी रहे कि विपक्ष सत्ता में आएगा तो संपत्ति का बँटवारा कर मुसलमानों को दे देगा। इसके जवाब में विपक्षी गठबंधन ने साफ किया कि संपत्ति का बँटवारा नहीं होगा और न ही कोई टैक्स लगेगा। यह सामाजिक न्याय का लक्ष्य आरक्षण बढ़ाकर प्राप्त किया जाएगा।
आरक्षण के जरिए सामाजिक न्याय के वायदे पर केंद्र में हिंदुत्व के एजेंडे पर काबिज निरंकुश सत्ता का क्या तख्ता पलट किया जा सकता है? जब तक ‘प्रेरणा-अंशु’ का यह अंक आपके हाथों में पहुँचेगा, तब तक चुनाव नतीजे आ जाएंगे।
सामाजिक न्याय क्या हिंदुत्व के एजेंडे के विरोध के बिना संभव है? प्रधानमंत्री के नेतृत्व में भाजपा और संघ परिवार हिंदुत्व के एजंेडे पर अडिग हैं। भव्य राममंदिर निर्माण की भाजपाई उपलब्धि पर विपक्ष बचाव की मुद्रा में है और चौथे चरण के मतदान के बाद संघी खेमे से अगले लक्ष्य ज्ञानव्यापी मंदिर और कृष्ण जन्मभूमि मंदिर निर्माण की घोषणा भी हो गई।
धारा 370 हो या कॉमन सिविल कोड या संविधान बदलने का मुद्दा-विपक्ष ने हिंदुत्व के मुद्दे पर उस तरह प्रहार क्यों नहीं किया, जैसे मोदी जी ने सामाजिक न्याय और सबकी भागेदारी के मुद्दे को धर्म के नाम धु्रवीकरण की मुहिम में बदल दिया?
मीडिया कवरेज और सोशल मीडिया पर भी लोकसभा चुनाव 2024 के मुद्दों पर खास चर्चा नहीं हो सकी। ज्यादातर विश्लेषक हार-जीत के दावों में उलझे रहे। सामाजिक न्याय के मुद्दे की काट के बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सत्ता पक्ष के स्टार प्रचारकों ने बाकायदा हेट स्पीच का बेलगाम प्रयोग किया, जिस पर न सुप्रीम कोर्ट और न ही चुनाव आयोग ने कोई लगाम लगायी। विपक्षी महारथियों की भाषा मंे भी कोई गुलाब नहीं खिल रहा था। जन हित और जनता के मुद्दों के बदले लोकतंत्र का यह महापर्व क्यों घृणा और हिंसा का महोत्सव बन गया?
यह भारत का अभूतपूर्व चुनाव है, जिसमें सीधे मुसलमानों पर निशाना साधा गया। सत्ता पक्ष ने धार्मिक ध्रुवीकरण से चार सौ पार के लक्ष्य के लिए दसों दिशाओं में धर्मोन्माद का माहौल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। क्या यही धर्मोन्माद लोकतंत्र का भविष्य तय करेगा?
सामाजिक न्याय और सबकी भागेदारी कोई नया मुद्दा भी नहीं है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक स्वतंत्रता और न्याय का उद्घोष है। इसके लिए पंडित जवाहर लाल नेहरू ने साम्यवादी विचारधारा, सार्वजनिक उपक्रम और विकास का समाजवादी सोवियत मॉडल अपनाया। इसी लक्ष्य को श्रीमती इंदिरा गाँधी ने गरीबी हटाओ के नारे से नए सिरे से परिभाषित करते हुए राष्ट्रीय संसाधनों और संस्थाओं का राष्ट्रीयकरण किया। प्रिवी पर्स खत्म कर दिया। आरक्षण तो अनुसूचित जातियों और जनजातियों को संविधान सभा ने ही मंजूर कर दिया था।
नतीजा क्या निकला? कितना न्याय हुआ? सबकी हिस्सेदारी का क्या बना? आरक्षण से अनुसूचित जातियों-जनजातियों का कितना कल्याण हुआ?
राजीव गाँधी प्रधानमंत्री बने तो संचार क्रांति, उच्च तकनीक और कम्प्यूटर को विकास का मंत्र बनाया। लेकिन उन्हें सत्ता से बेदखल करके विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सामाजिक न्याय का नया मोर्चा खोला- ओबीसी के लिए मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करके आरक्षण देकर। वामपंथियों और भाजपा के समर्थन से उनकी सरकार बनी थी। मंडल रपट लागू करने के खिलाफ भाजपा ने समर्थन वापस ले लिया तो सरकार गिर गई। फिर भी विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार गिरने से ओबीसी आरक्षण खत्म नहीं हुआ। आरक्षण विरोधी छात्र-युवा आंदोलन और यूथ फॉर इक्वेलिटी के लीडर थे अरविंद केजरीवाल, जो बाद में अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल आंदोलन के सहारे दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गए।
सामाजिक न्याय के कांग्रेसी एजेंडे के साथ विपक्षी गठबंधन इंडिया जो चुनाव मैदान में है, उसके प्रमुख नेता अरविंद केजरीवाल हैं, जो सिरे से आरक्षण विरोधी हैं। वामपंथियों ने बाकी देश में ओबीसी को आरक्षण के लिए सबसे ज्यादा हल्ला किया, लेकिन पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री कामरेड ज्योति बसु ने कहा, बंगाल में ओबीसी नहीं है। उन्होंने भूमि सुधार पर जोर दिया। बंगाल में वर्ण व्यवस्था कभी लागू नहीं थी। क्योंकि बंगाल में क्षत्रिय हैं नहीं। वहाँ 11 वीं सदी तक बौद्ध पालवंश का शासन रहा। बंगाल में ब्राह्मण जनसंख्या में सिर्फ तीन प्रतिशत हैं। सात प्रतिशत आदिवासी हैं। 19 प्रतिशत दलित हैं। तो 27 प्रतिशत मुसलमान। बाकी जो 44 प्रतिशत हिंदू आबादी है, वह क्या है? ममता बनर्जी ने ओबीसी आरक्षण लागू किया तो सिर्फ मुसलमानों के लिए। जिसे चुनाव के मध्य हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया। इसके बावजूद ममता बनर्जी का जनाधार अटूट है।
विपक्ष की बड़ी नेता हैं ममता बनर्जी। ममता बनर्जी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भाजपा के खिलाफ एक के मुकाबले एक उम्मीदवार खड़ा करने के लक्ष्य के साथ इंडिया गठबंधन बनाने में बड़ी पहल की, लेकिन नीतीश कुमार ने लोकसभा चुनाव से काफी पहले पल्टी मार दी। राजद के साथ गठबंधन तोड़ दिया। मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर फिर भाजपा के समर्थन में मुख्यमंत्री बनकर अपनी पार्टी जेडीयू के साथ भाजपा के नेतृत्व में एनडीए गठबंधन में शामिल हो गए। ममता बनर्जी ने क्या किया? बाकी देश में वे विपक्षी गठबंधन के प्रबल प्रवक्ता हैं लेकिन बंगाल में उन्होंने कांग्रेस और वामपंथियों को एक सीट नहीं दी और उनकी हर सीट पर अपना उम्मीदवार खड़ा करके भाजपा का काम आसान कर दिया। गठबंधन के समर्थन में वे बंगाल से बाहर भी नहीं निकलीं।
चुनाव से पहले सीबीआई, इनकम टैक्स विभाग और ईडी ने खूब सक्रियता दिखाते हुए विपक्षी नेताओं को घेरने का काम किया। नतीजतन झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को ईडी ने गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तारी से पहले उन्होंने मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र जरूर दे दिया। सोरेन के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल गिरफ्तार कर लिए गए। उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव प्रचार के लिए उन्हें 1 जून तक अंतरिम जमानत दी तो वे जेल में 51 दिन बीतने के बाद बाहर निकले।
विपक्ष के तमाम नेता भ्रष्टाचार के आरोपों में ऐसे फँस गए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इंडिया गठबंधन के खिलाफ भ्रष्टाचार को सबसे बड़ा मुद्दा बनाया। वे डंके की चोट पर कहते रहे, ‘‘न खाऊँगा और न खाने दूँगा।’’
भ्रष्टाचार के मुद्दे भाजपा और एनडीए गठबंधन के खिलाफ कम नहीं थे। विपक्ष इसे मुद्दा क्यों नहीं बना सका? चुनावी बांड बहुत बड़ा घोटाला है। कारपोरेट कंपनियों, औद्योगिक घरानों और निजी स्तर पर पूँजीपतियों ने चुनावी बांड खरीदकर भाजपा का खजाना भर दिया। चुनावी बांड को आरटीआई एक्ट के दायरे से बाहर रखा गया। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर एसबीआई ने जब चुनावी बांड के सारे ब्यौरे सार्वजनिक किए तो धमाका हो गया। लेकिन इतना बड़ा धमाका और जबरन चंदा वसूली का इतना बड़ा भ्रष्टाचार का मामला विपक्ष के पक्ष में काम नहीं आया। हिंदुत्व के एजेंडे की तरह भ्रष्टाचार के मामले में भी विपक्ष बचाव की मुद्रा में रहा। क्यों?
सामाजिक न्याय के जो असली झंडेवरदार थे, बाबा साहब भीमराव अंबेडकर और मान्यवर कांशीराम के अनुयायी, क्या उन्होंने कांग्रेसी सामाजिक न्याय और सबको हिस्सेदारी के एजेंडे का समर्थन किया? कतई नहीं। इस धड़े में सबसे शक्तिशाली नेता रही हैं बहन मायावती, जो उत्तर प्रदेश जैसे बड़े और निर्णायक राज्य में 4 बार मुख्यमंत्री बनीं। तीन बार तो भाजपा की कृपा से ही। मायावती और मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी ने मिलकर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को हाशिए पर खड़ा कर दिया। मुलायम सिंह के बेटे अखिलेश यादव अब उत्तर प्रदेश में इंडिया गठबंधन का चेहरा हैं। मायावती कहाँ हैं? विपक्ष के साथ तो नहीं हैं। बहुजन समाज पार्टी की हालत खराब है, लेकिन बहनजी की सेहत पर कोई असर नहीं हुआ। कांशीराम का एजेंडा जरूर ठंडे बस्ते में चला गया। बहनजी अकेले चुनाव लड़ रही हैं और सामाजिक न्याय के झंडेवरदार बचे रहे तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव और कन्हैया कुमार।
इनके होते हुए मंडल मसीहा विश्वनाथ प्रताप सिंह की तरह सामाजिक न्याय के नए अवतार राहुल गाँधी क्या इस लोकसभा चुनाव में कोई नया गुल खिला पाएंगे? 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 440 उम्मीदवार खड़े किए थे और 209 सीटें जीती थी। यह बहुमत के आँकड़े से कम था तो यूपीए गठबंधन की सरकार बनानी पड़ी कांग्रेस को। 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 417 सीटों पर लड़ने के बाद 145 सीटें ही मिली थीं। 1996 में कांग्रेस लोकसभा की 529 सीटों पर लड़ी थी। लेकिन सीटें मिली थीं सिर्फ 140, वोट भी सिर्फ 30 प्रतिशत मिले थे। 2024 के लोकसभा चुनाव में कुल 320 के करीब सीटों पर लड़कर कांग्रेस कितनी सीटें जीत सकेगी? इंडिया गठबंधन की सरकार बन गई तो प्रधानमंत्री कौन बनेगा? सबसे ज्यादा सीटें जीतने की सूरत तो नजर नहीं आती। सबसे ज्यादा सीटें जीतने के लक्ष्य के सबसे करीब है भाजपा। सामाजिक न्याय का लक्ष्य फिर कैसे हासिल करेगी कांग्रेस?
बेरोजगारी, महँगाई, किसानों, मजदूरों, दलितों, आदिवासियों का कोई मुद्दा विपक्ष नहीं उठा सका। कोरोना काल में चिकित्सा व्यवस्था का ढाँचा चरमरा गया था। लोग बिना इलाज बेमौत मरे। लॉकडाउन, कर्फ्यू से करोड़ों लोग नौकरी, आजीविका और कारोबार से बेदखल हो गए। जितने लोग महामारी से मरे, उससे ज्यादा लोग भूख और बेरोजगारी से मरे। घर वापसी के दौरान दुर्घटनाओं में भी बड़ी संख्या में लोग मरे। अर्थव्यवस्था पटरी से उतर गई। हमने कब्रिस्तानों और श्मशानघाटों में लाशों की लंबी कतारें देखीं। अभूतपूर्व ऑक्सीजन संकट से लोगों को दम तोड़ते देखा। महामारी के कारोबार और राजनीति में बेबस जनता ने नदियों में लाशें तैरती देखीं। महामारी के बाद चिकित्सा व्यवस्था सुधरी क्या? यह कोई मुद्दा नहीं बना। मतदान के दूसरे चरण के दौरान ही वैक्सीन घोटाला सामने आया। अनिवार्य टीका दो-दो बार लगाने के बाद बूस्टर डोज से टीकाकरण का जो विश्व रिकार्ड बना, उसकी असलियत कोविशील्ड और कोवैक्सीन के गंभीर साइड इफैक्ट के रूप मंे सामने आ गई। इतना बड़ा खुलासा भी चुनावी मुद्दा नहीं बना।
क्या समाजिक न्याय और सबकी साझेदारी का एजेंडा 2024 में लोसभा चुनाव में कोई मुद्दा बन सका? प्रधानमंत्री के हेटस्पीच में इस एजेंडे का विरोध जरूर चर्चा में रहा। क्या आम जनता और मतदाताओं तक यह संदेश पहुँचा? पिछड़े यानी ओबीसी जो हिंदुत्व के एजेंडे की पैदल सेना है, पिछड़ों के जो भाजपा और संघ परिवार के सिपहसालार हैं, उन तक यह संदेश पहुँचा क्या? अनुसूचित जातियों, जनजातियों, अल्पसंख्यकों और आदिवासियों में कांग्रेस या विपक्ष का जनाधार बढ़ा क्या?
इन सवालों का जवाब 4 जून के नतीजों से मिलेगा। लेकिन यह साफ है कि सामाजिक न्याय को भी विपक्ष अपना मुद्दा नहीं बना सका। उसके पास दरअसल कोई मुद्दा था ही नहीं। एजेंडा भाजपा और संघ परिवार का चला। मुद्दे भी उन्होंने तय किए।
संगठन के स्तर पर विपक्षी पार्टियों ने भाजपा का कैसे मुकाबला किया या संघ परिवार का संगठन भाजपा के समर्थन में कितना सक्रिय रहा, इन बातों का खुलासा भी ईवीएम से होगा। ईवीएम में धाँधली के आरोप खारिज कर दिए गए। चुनाव आयोग ने चुनाव प्रक्रिया के दौरान विपक्षी की कोई सुनवाई नहीं की। मतदान प्रतिशत में बड़ा अंतर बनाया आयोग ने देरी से संशोधन के साथ। मतदान के ब्यौरे वाले फार्म सी-17 के ब्यौरे को सार्वजनिक करने की एपीडीआर की याचिका भी सुप्रीम कोर्ट से खारिज हो गई। चुनाव नतीजों पर इन बातों का कितना और कैसा असर होगा, वह भी नतीजों से पता चलेगा। लेकिन चुनाव प्रक्रिया में पारिदर्शिता का अभाव तो दर्ज हो ही गया।
इतना सबके बाद कहना होगा कि सामाजिक न्याय और सबको साझेदारी का मुद्दा ही इस चुनाव में निर्णायक होगा। क्योंकि 400 पार के एजेंडे के साथ सत्ता पक्ष ने संविधान बदलने और आरक्षण खत्म करने की घोषणाएं करने से अपने नेताओं को नहीं रोका। सामाजिक न्याय से जुड़ा संविधान और आरक्षण का मुद्दा है। महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा जैसे राज्यों के अलावा मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और गुजरात जैसे भगवा राज्यों में भी दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों में संविधान और आरक्षण बचाने के लिए भाजपा के खिलाफ जीतने वाले उम्मीदवार के पक्ष में रणनीतिक मतदान की रुझान देखी जा रही है। यह रुझान कितनी है, इसका अंदाजा किसी को नहीं है, लेकिन इसने हिंदुत्व खेमे में खलबली जरूर मचा दी है। अगर संविधान और आरक्षण बचाने के नाम पर ध्रुवीकरण हो गया तो भाजपा के लिए बहुमत जुटाना मुश्किल हो सकता है। ऐसे में बहुजन जनता देश में संघ परिवार का तख्ता पलट भी कर सकती है। देखें, होता क्या है।

पलाश विश्वास
कार्यकारी संपादक
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