कुन्दन शाह का जाना पत्रकारिता की एक पाठशाला का अंत
हम 1990 में दिनेशपुर आए थे। इससे पहले मास्साब यानि मास्टर प्रताप सिंह मेरे पिता जी गदरपुर सरस्वती शिशु मंदिर में प्रधानाचार्य थे और अवध मण्डल में विद्या भारती का काम देखते थे। कुन्दन शाह जी तब आई• पी• एफ• के ऊर्जावान, सक्रिय कार्यकर्ता होने के साथ-साथ अमर उजाला के दिनेशपुर संवाददाता थे।
मास्साब तब मासिक पत्रिका प्रेरणा-अंशु निकालते थे। 1986 में ही मास्साब ने गदरपुर से पत्रिका निकालना शुरू किया था। विपरीत विचारधारा होने के बावजूद एक इंसान और पत्रकार के तौर पर मास्साब और कुन्दन शाह की अच्छी जान पहचान थी। तब कुन्दन शाह जी प्रेरणा-अंशु के लिए भी लिखते थे। 90 में दिनेशपुर आने पर यह जान पहचान और प्रगाढ ही गयी।
कालीनगर रोड पर दिनेशपुर चौराहे के पास शाह जी की कुटिया थी। घर छोटा था, लेकिन आँगन बहुत बड़ा था। चारों ओर फुलवारी थी। फलदार पेड़ भी थे। लाल अमरूद इतने पेड़ थे कि हर चलता फिरता राहगीर भी स्वाद लेता चलता था। शाह जी के दरवाजे सबके लिए खुले थे। क्योंकि वे पत्रकार होने से पहले एक शानदार इंसान थे और इंसानों की मदद करने वाले जानदार एक्टिविस्ट भी।
आई पी एफ अपना अस्तित्व खो रही थी और सीपीआई (एम एल) का वो परवान युग था उत्तराखंड में। शाह जी एम एल ग्रुप से थे। लेकिन बहुत उदार, विश्वसनीय और हर विचार का सम्मान करने वाले। वे सच्चे कम्युनिस्ट थे।
शाह जी की पत्नी सरस्वती देवी उनसे एक कदम आगे परोपकारी थीं। उनके आँचल की छाव में हमारा बचपन भी बीता है। अंजू और कल्पना दो बेटी थीं। जिन्हें हम दीदी कहते थे। धर्मू- धर्मेंद्र उनके लड़के का नाम था, लेकिन पूरे परिवार से बिल्कुल जुदा। कहीं न कहीं शाह जी के परिवार के बिखरने का एक बड़ा कारण उनका पुत्र ही था।
खैर! मास्साब ने समाजोत्थान संस्थान की नींव डाली। शाह जी और उनका परिवार हमारा पहला सहयोगी था। तब राम जन्म भूमि आन्दोलन तेज हो रहा था। 91-92 में मास्साब महीनों भूमिगत रहे। हम चार भाई और मम्मी जंगल में एक झोपड़ी में अकेले रहते थे। दूर-दूर तक कोई घर नहीं। चहलकदमी नहीं। लाइट नहीं, सड़क नहीं। ऐसी जगह मास्साब ने स्कूल और घर बनाया था।
यह जानते हुए कि मास्साब आर एस एस के बड़े लीडर हैं, बावजूद इसके शाह जी और उनका परिवार हमेशा हमारे साथ मजबूती से बना रहा। हर तरह से हमारी मदद की। कुछ साल बीते। मास्साब अब रामबाग के मजदूरों के रास्ते के लिए जमींदार से संघर्ष कर रहे थे। भाजपा के बैनर तले। बात 93-94 की है। कुन्दन शाह और दैनिक जागरण के पत्रकार जुगल पंत जी भी मास्साब के आन्दोलन के साथ थे।
तब हर पत्रकार एक जबर्दस्त एक्टिविस्ट होता था। खबर के लिए संघर्ष और जनता के लिए भी संघर्ष करना पत्रकार का काम था। भाजपा मजदूरों की लड़ाई छोड़कर भाग खड़ी हुई। लेकिन मास्साब नहीं डिगे। अब शाह जी मास्साब से राजनीतिक दर्शन पर बात करने लगे थे। कम्युनिस्ट साहित्य पढ़ने के लिए देने लगे थे। मास्साब अंधभक्त कभी नहीं रहे। न ही वे जड़सूत्रवादी थे। पढ़ने लिखने में उनकी दिलचस्पी पुरानी थी। किसी वाद या विचार के गुलाम बने रहना उन्हें कभी नहीं भाया। आर एस एस में रहकर भी मास्साब बुक्सा जनजाति और बंगाली समाज के लिए संघर्षरत थे।
कुन्दन शाह ही वे शख्स थे जो मास्साब को आर एस एस से वामपंथ की ओर लेकर आए थे। वे व्यवहारिक, तर्कसंगत बात करने वाले सच्चे कम्युनिस्ट थे। आज के शहरी भेड़िये जैसे सुख सुविधा वाले मतलब परस्त वामपंथी या भ्रमपंथी नहीं थे। शाह जी के घर तब तमाम संघर्षशील, जनवादी, कम्युनिस्ट, कामरेड आते रहते थे। मास्साब की सबसे बात होती थी। मार्क्सवाद-लेनिनवाद और माओवाद ही जनता की मुक्ति का रास्ता है, यह विचार मास्साब ने कुन्दन शाह के सानिध्य में रहते हुए ही सीखा।
शाह जी का लड़का गलत संगत में पड़ गया, जिस कारण शाह जी का हँसता खेलता परिवार बिखर गया। पत्नी सरस्वती देवी जो मानवता की देवी थीं, उन्होंने सुसाइड कर लिया। बिल्कुल उसी तरह सुसाइड शाह जी ने भी किया। बात 94-95 की रही होगा। कुछ साल बाद बेटा भी गुजर गया। सुनने में आया कि उसने भी सुसाइड ही किया था। अब कुन्दन शाह दिनेशपुर छोड़ जा चुके थे। रुद्रपुर और उसके बाद काशीपुर शिफ्ट हो गए।
सारी जिन्दगी किराये के मकान में रहे। और अमर उजाला को ही सेवा देते रहे। बड़ी बेटी अंजू की मृत्यु करीब दस साल पहले रुद्रपुर में एक सड़क हादसे में हुई। छोटी बेटी कल्पना अपने परिवार के साथ रुद्रपुर में हैं। तीन रोज पहले शाह जी भी अनन्त यात्रा पर निकल लिए। वे आत्महत्या करेंगे, ऐसा कोई सोच भी नहीं सकता था।
हालाँकि दशकों से वे टूटे हुए, असहाय, निरूपाय, खामोश, और अकेले थे। दिनेशपुर न आने की उन्होंने कसम खा रखी थी। 2018 में मास्साब के गुजर जाने पर भी वे दिनेशपुर नहीं आए। फोन पर ही बात की। जबकि उनकी ससुराल और पिता का घर दिनेशपुर क्षेत्र में ही है। लेकिन वे इतना खिन्न हुए दिनेशपुर से कि एक बार जाने के बाद फिर कभी वापस नहीं आए।
शाह जी का जाना पत्रकारिता की एक कुशल पाठशाला का अंत है। एक इमानदार पत्रकार और सच्चा सामाजिक कार्यकर्ता आखिर कब तक तन्हाई और प्रतिस्पर्धा के दौर में जिन्दा रह सकता है? यह सवाल भी शाह जी अपने सुसाइड से छोड़ गए हैं। पूरा जीवन लगाने के बाद आखिर एक पत्रकार को मिलता क्या है? अपने संस्थान का नाम तक नहीं?
कैसे अलविदा कहूं आपको??? आपका और आन्टी जी के चेहरा हमेशा मेरी आँखों में रहेगा और मेरी आँखें हमेशा टकराती रहेंगी, जवाब तलाशने को।
लाल सलाम शाह जी!
आपका:-
रूपेश कुमार सिंह