शरबती अब जमादारन नहीं
सरकारी बंगले में खड़ी शरबती
संकोच में गड़ रही है
बरसों बाद आई है यहाँ लेकिन
उसके हाथ में आज झाड़ू नहीं है।
पकड़ा है रंगीन झोला
जिसमें सँभली है एक सुरमेदानी
दो कमीजें जिन्हें सीया था उसने खुद
प्लास्टिक की कंघी और एक बटुआ।
बटुए में रखे हैं पाँच सौ रुपए
एक अँगूठी और एक जोड़ी बिछिया
झोला झक सफेद,
जिस पर लाल फूल बना है रेशमी तागे से।
इस बिछिया को लाया था खरीद कर
उसका मरद दूसरे गाँव के मेले से
पहनाई थी अँगूठी पूत के जन्म पर
अब शरबती अँगूठी और बिछिया नहीं पहनती।
सरकारी बंगले के गलियारे से गुजरती शरबती
ठिठक गई पैखाना देखकर
आज इसे टॉयलेट कहते हैं
ऐसा बताया था शरबती के बेटे ने।
पैखाने के करीब गूँज रही थी एक आवाज
ओ जमीदारन ठीक से सफाई करके जाना
शरबती ढूँढने लगी फिर वही झाड़ू
जिससे करती थी वह पैखाना की सफाई।
पचास साल की शरबती
भूली नहीं अपने जमाने की बातें
दूर आँगन में टूटे कप में चाय और
फूटे कुल्हड़ में पानी।
शरबती सरकारी बंगले में खड़ी है लेकिन
आज वह जमादारन नहीं
माँ है इस बंगले में आए
नए सरकारी अधिकारी की।
जिसके कक्ष के बाहर खड़े अर्दली
दे रहे हैं सलामी
शरबती को अम्मा बोलकर,
शरबती किताबों को उठा चूम रही है।
अब अम्मा रोती है
पोतड़े धोती अम्मा
कभी नहीं रोती
ढूँढ लेती है इसमें भी सुख।
उसे खुशी है कि उसका बच्चा
समय पर
कर रहा है अपनी दैनिक क्रियाएं पूरी।
अम्मा तब भी नहीं रोई
जब उसकी छाती पर
लगे कई बार दाँत के निशान
हँस पड़ती थी अम्मा
अपनी हर चीख पर
जब रिसता था
छाती पर पड़े निशान से खून।
भीग जाता पेटीकोट अक्सर पेशाब से
पर अम्मा फिर भी
नहीं कसमसाती
न रोए औलाद
इसलिए बदल देती
तुरंत पोतड़े
पर न बदलती अपने कपड़े
उस गीले बिस्तर पर
छोड़ दिया था अम्मा ने
अपनी ओर देखना।
अम्मा तब भी नहीं रोई
जब जम गया दूध
उसकी छातियों में
जो देता रहा पीड़ा
गर्म पानी की सिकाई
और तुम्हारी देखभाल
अम्मा को देती रही सुख।
अम्मा की छाती अब दूध नहीं देती
और न अम्मा सोती है गीले बिस्तर पर
लेकिन जाने क्यों
अब भी अम्मा की छाती पर
दिखते हैं असंख्य दाँतों के निशान
और भींगे रहते हैं
अम्मा के पोतड़े
तुम्हारे किए पेशाब से।
रहती है अम्मा
आज बिल्कुल अकेली
वृद्धाश्रम के एक कमरे में
वह रोती है और बहुत रोती है।