इतिहास के पन्नों से….
पड़ताल….भाग-दो
किसकी साजिश का परिणाम था पंतनगर गोलीकाण्ड…?
-रूपेश कुमार सिंह
जलियांवाला बाग में हुए नृशंस हत्याकाण्ड को 13 अप्रैल को 100 वर्ष पूरे हो गये। ब्रिटिश नृशंसता व कू्ररता के जख्म आज भी हरे हैं। 100 वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है, सिवाय इस हकीकत के, कि सरकार और जुल्म के खिलाफ आवाज उठाना आज भी निर्दोष जनता को लाठी-गोली से हलकान कर देने का पर्याप्त और वाजिब कारण है। आजाद भारत में जन आन्दोलन के दमन की एक लम्बी दास्तान है। शासन-सत्ता की ओर से बड़े-बड़े कत्लेआम 1947 के बाद हुए हैं। दमन और उत्पीड़न का सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है।
जिस प्रकार 13 अप्रैल 1919 में ब्रिटिश सरकार ने निर्दोष, निहत्थे हजारों आम लोगों को गोली से भून दिया था, उसी तर्ज पर आजाद भारत में 13 अप्रैल 1978 को पंतनगर विश्व विद्यालय के कर्मचारियों और कृषि फार्म के मजदूरों पर शासन-प्रशासन ने जमकर कहर ढहाया। आन्दोलनकारियों को चारों तरफ से घेरकर अंधाधुंध गोली चलायी गयी। सरकारी आंकड़े के अनुसार 14 मजदूरों की मौके पर ही मौत हो गयी। जबकि कर्मचारी यूनियन का दावा था कि पुलिस व पीएससी की गोलीबारी में 150 से ज्यादा मजूदर मारे गये। सैकड़ों लोग गंभीर रूप से घायल हो गये। गन्ने के खेत में छुपे लोगों को ईख में आग लगाकर जिन्दा दफन कर दिया गया। घरों से निकाल-निकाल कर महिलाओं-बच्चों को मारा-पीटा गया। सैकड़ों लोगों का आज तक पता नहीं चला। तमाम मजदूर भय के कारण पलायन कर गये।
भारत सरकार 100 साल पहले हुए जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड के लिए तो ब्रिट्रेन से माफी मांगने का दवाब बना रही है, लेकिन अपने कुकृत्यों के लिए अफसोस जताने को तैयार नहीं है। तत्कालीन भारत और उत्तर प्रदेश सरकार ने दोषियों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की। जस्टिस श्रीवास्तव आयोग की रिपोर्ट पर भी अमल नहीं किया। बहुत ही शर्मनाक तरीके से सरकार ने तत्कालीन विश्व विद्यालय प्रशासन, कुलपति और पुलिस-पीएससी के अधिकारियों का पक्ष लिया। मजदूरों के हिस्से आया मुकदमे और जेल। बाद में एक समझौते के तहत लगभग 4500 कर्मचारियों व मजदूरों को नियमित किया गया।
आज पंतनगर गोलीकाण्ड को 41 वर्ष हो चुके हैं, लेकिन पूरे प्रकरण का दोषी कौन था, उसका चिन्हीकरण आज तक नहीं हुआ। न कोई स्थाई भर्ती हुई और न ही कर्मचारियों को उनका हक मिला। उल्टा कई बार और दण्डात्मक कार्यवाही विश्व विद्यालय प्रशासन द्वारा की गयी। 2004 में भी आन्दोलनरत कर्मचारियों और श्रमिकों पर जबर्दस्त लाठीचार्ज व दमन किया गया। सरकारें बदली, लेकिन दमन के तौर-तरीके आज भी जस के तस हैं।
आइए जानते हैं पूरा प्रकरण क्या है …
17 नवम्बर 1960 को तराई फार्म स्टेट के नाम से एक कृषि विश्व विद्यालय की स्थापना हुई। खेती को विकसित करना और नये प्रयोग करना मकसद था। 1973 में इस विश्वविद्यालय का नाम गोबिन्द वल्लभ पंत के नाम पर रखा गया। प्रारम्भ में विश्व विद्यालय के पास 16000 एकड़ जमीन थी। आज कृषि रकबा घटकर मात्र 5000 एकड़ के आस पास रह गया है। के0 पी0 स्टीवेन्सन पहले कुलपति थे। उस दौर में काम काज सामंती व अंग्रेजी परिपाटी के हिसाब से होता था। मजदूरों पर हुक्म चलाना और उनके साथ गलत तरह से पेश आना अफसरों की फितरत थी। घटना के वक्त डॉ धरमपाल सिंह कुलपति थे। डॉ सिंह तत्कालीन गृहमंत्री चौधरी चरण सिंह के करीबी माने जाते थे। बताया जाता है कि उनकी शिफारिस पर ही धरमपाल सिंह को पंतनगर भेजा गया था। अमूमन अधिकारी वर्ग जाट समुदाय से था और कर्मचारी व मजदूर ज्यादातर पूर्वांचल के थे। जातिगत मनमुटाव भी घटना की एक वजह बतायी जाती है। लेकिन मुख्य वजह कर्मचारी यूनियन को न पनपने देना था।
26 अक्तूबर 1977 को काफी संघर्ष के बाद पंतनगर कर्मचारी संगठन का पंजीकरण हुआ। यूनियन में दस हजार से ज्यादा मजदूर संगठित हो चुके थे। यूनियन को तोड़ने के लिए विश्व विद्यालय प्रशासन ने कई तरह के हथकंड़े अपनाये, लेकिन मजदूरों की एकता और उग्र आन्दोलन के बल पर विवि प्रशासन को झुकना पड़ा। कुलपति धरमपाल सिंह का कई बार यूनियन से टकराव हुआ। 28 नवम्बर को संगठन की ओर से पहला मांगपत्र विवि प्रशासन को दिया गया। जिसमें आवास, प्राथमिक चिकित्सा, स्थायी नौकरी, रविवार की छुट्टी आदि मांगें शामिल थीं। इस दौरान धरना-प्रदर्शन जारी रहा। टकराव और तनाव दोनों ओर से गहराता गया। 7 दिसम्बर को संगठन और प्रशासन के बीच समझौता हुआ, जो सिर्फ कागजों तक ही सीमित रहा। 12 जनवरी 1978 को पुनः मांगपत्र प्रशासन के समक्ष रखा गया। 25 जनवारी को आन्दोलन खत्म करने के लिए फिर से समझौता हुआ, लेकिन इस बार भी प्रशासन समझौते पर खरा नहीं उतरा।
27 जनवरी 1978 को विश्व विद्यालय में आवश्यक सेवा अधिनियम लागू हुआ और अगले ही दिन 91 मजदूरों को एक सप्ताह के नोटिस पर नौकरी से निकाल दिया गया। इसी शाम धारा 144 के तहत अगुवा नेताओं की गिरफ्तारी की गयी। कुलपति धरमपाल सिंह अब पूरी तरह से यूनियन से खार खा चुके थे। उन्हें सरकार का समर्थन भी था। 3 फरवरी तक 1500 मजदूरों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। आन्दोलन और उग्र हो गया। अगले ही दिन गिरफ्तार मजदूरों को छोड़ने को लेकर फिर एक समझौता हुआ। पंतनगर अतिथि गृह में पुलिस का शिविर लग चुका था। भारी संख्या में पुलिस और पीएससी कैम्पस में तैनात थी। 12 अप्रैल को कर्मचारियों ने आम हड़ताल कर दी। कृषि फार्म के मजदूर और विश्व विद्यालय के कर्मचारी एक साथ काम बंद करके आन्दोलन में कूद पड़े। यूनियन की ओर से 13 अप्रैल को कुलपति के घेराव की घोषणा की गयी।
13 अप्रैल 1978 को लगभग दस हजार मजदूर और कर्मचारी रामलीला मैदान में एकत्र हुए। तकरीबन 10 बजे जुलूस तराई भवन में कुलपति कार्यालय की ओर बढ़ चला। घटना स्थल(मौजूदा शहीद चौक) पर चारों ओर से पुलिस व पीएससी के जवानों ने जुलूस को घेर लिया और गोली बरसाना शुरू कर दी। लगभग 250 राउण्ड गोली चलायी गयी। सरकार ने माना कि गोलीबारी में 11 लोग शहीद चौक और तीन लोग मटकोटा पुलिस कैम्प के सामने मारे गये। कुल 14 लोगों के मरने और 26 लोगों के लापता होने की बात प्रशासन ने स्वीकार की। जबकि कर्मचारी यूनियन का मानना है कि 150 से ज्यादा आन्दोलनकारी शहीद हुए। ‘के’ ब्लाक के सामने गन्ने के खेत में इसलिए आग लगा दी गयी, क्योंकि वहां मजदूरों ने शरण ले रखी थी। कर्मचारी यूनियन ने बाद में घटना स्थल को शहीद चौक का नाम दिया और एक स्तूप बनाया। जिसमें शहीद मजदूर केसर, राम असीस, रमा शंकर, गैंदा, सियाराम, पारस, रघुनाथ, कयामुद्दीन, भूखल, शिवपूजन, बृजनन्दन, जमुना, पूरणमासी और लक्ष्मण के नाम अंकित हैं।
घटना की गूंज बीबीसी के माध्यम से पूरी दुनिया में गूंजी। बाद में इन्दिरा गांधी मजदूरों से मिलने पंतनगर आयीं थीं। लेकिन तत्कालीन सरकार ने घटना पर अफसोस तक नहीं जताया। हर साल 13 अप्रैल को शहीदों की याद में यहां एक कार्यक्रम आयोजित होता है। ‘‘दुनिया के मजदूरों एक हो’’ नारे को बुलंद किया जाता है।
‘‘हम आज भी उत्पीड़ित हैं। विवि प्रशासन का रवैया आज भी तानाशाही वाला है। 1978 में लगभग 4500 लोग नियमित हुए थे। आज नियमित कर्मचारी मात्र 800 के आसपास हैं। ठेके पर मजदूरों को रखा जा रहा है। सुविधाएं नदारद हैं। आन्दोलन पर प्रशासन का शिकंजा है। कृषि में शोध लगभग बंद हैं। पंतनगर विश्व विद्यालय अपने अस्तित्व को खोता जा रहा है। विवि की जमीनें नीलाम कर दी गयीं हैं। कर्मचारियों के बच्चों का जीवन अधर में है। जस्टिस श्रीवास्तव की रिपोर्ट पर कोई ध्यान न देना, सरकारों की मजदूरों के प्रति धारणा को स्पष्ट करता है। 1978 का गोलीकाण्ड देश के पटल पर बड़ी घटना है, जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता। यूनियन के पास अब पुनः संघर्ष करने के कोई दूसरा रास्ता नहीं है।’’
– जनार्दन सिंहजिला अध्यक्ष, इंटक, ऊधम सिंह नगर
अगले भाग में जारी…………..