जंगल की आग साजिश तो नहीं?

uttarakhand jangal ki aag
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उत्तराखंड के पहाड़ों में तबाही का मंजर है। पिछले तीन माह से जंगल धधक रहे हैं। इस फायर सीजन में अब तक राज्य में 1100 से ज्यादा आग की घटनाएं दर्ज की गई हैं। अनुमान के हिसाब से करीब 1500 हेक्टेयर वन क्षेत्र जल चुका है, जिसमें वन विभाग के मुताबिक आग लगने से रिजर्व फॉरेस्ट एरिया का ही 749.63 हेक्टेयर जंगल जल गया है। ये सरकारी आँकड़े हैं। इन पर ही भरोसा करना काफी नहीं होगा। स्थानीय लोगों की माने तो हालात काफी भयावह है। आधा दर्जन से ज्यादा लोगों के जलकर मारे जाने की खबर है, जबकि तमाम लोग आग की चपेट में आ जाने से घायल हैं।
तीन महीने से पहाड़ों का नजारा यही है कि जिधर देखो, आग की लपटें। जमीन और आसमान धुआँ-धुआँ। कुमायूँ और गढ़वाल में अमूल्य वन संपदा की करोड़ों की क्षति हुई है। पिछले दिनों पहाड़ों में बरसात होने से हालाँकि हालात अब नियंत्रण में हैं, लेकिन मौसम बदलते ही फिर जंगल आग के शिकंजे में हैं। उत्तरकाशी के जंगल इन दिनों धधक रहे हैं। आग से वन्य जीवों के अस्तित्व पर खतरा मँडराने लगा है। वन विभाग, एसडीआरएफ, एनडीआरएफ और आपदा प्रबंधन की टीमें आग पर काबू पाने की कोशिशों में लगी हैं। वरुणावत- गूफवारा एरिया के साथ-साथ आग गंगा और यमुना क्षेत्रों के जंगलों में भी लगी हुई है। इस क्षेत्र में इस वक्त चारधाम यात्रा जारी है और लाखों की संख्या में तीर्थयात्री आ जा रहे हैं। जंगल से वन्य जीवों और स्थानीय लोगों के अलावा इन लाखों तीर्थयात्रियों की सुरक्षा भी खतरे में पड़ गई है।
कुमायूँ मंडल में पिथौरागढ़ में सबसे ज्यादा आग लगने की घटनाएं सामने आईं, जहाँ फिलहाल हालत नियंत्रण में है। अल्मोड़ा, नैनीताल, चंपावत, बागेश्वर जिलों में जंगल की आग से लगातार तीन महीनों से हालत गंभीर बनी रही, जहाँ कमोबेश स्थिति अब काबू में है। इसी बीच नैनीताल के प्रसि( तीर्थ स्थल कैंचीधाम मंदिर के आस-पास के जंगल में भीषण आग लग गई। आग फैल रही है।
जंगलों के प्रति हमारा रवैया क्या है? क्यों जंगल धधकते हैं हर साल? क्यों वन क्षेत्र लगातार सिकुड़ रहा है? आलम तो यह है कि उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के बाद अब जम्मू और कश्मीर के जंगल भी सुलग रहे हैं। जहाँ धारा 370 खत्म कर दी गई है। कश्मीर में अब बाहरी लोग भी जमीन खरीद सकते हैं। बाकी देश में भी जंगल खूब धधक रहे हैं। इस साल 1 मई से 27 मई तक देश में अस्सी हजार से ज्यादा जगह जंगलों में आग लगी है।
साल दर साल जलवायु परिवर्तन और बदलते मौसम, बढ़ती गर्मी की शिकायतें करने वाले हम इस पर गौर क्यों नहीं करते कि किस तरह खत्म हो रहे हैं जंगल? हिमालय जल रहा है। उत्तराखंड जल रहा है। हिमाचल जल रहा है। अब जम्मू- कश्मीर के राजौरी सेक्टर के जंगल में आग लगी है।
हर साल यह चक्र अपने आप को दोहराता है। जंगलों की आग से उत्तराखंड में तबाही जैसे नियति बन चुकी है। सरकार और सिस्टम को अब क्या ही कहिए, जवाबदेही तय करने के लिए सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा। सरकारी खानापूर्ति पर्याप्त नहीं थी आग पर काबू पाने के लिए। बेशर्मी से सरकारी दावे होते रहे और उत्तराखंड के जंगल जलते रहे। आज भी जल रहे हैं। 21 मई को ही उत्तराखंड में वनाग्नि की 23 घटनाएं सरकारी तौर पर दर्ज की गईं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकारी ताम-झाम और बचाव कार्य पर्याप्त नहीं हैं। 10 वनकर्मी सस्पेंड कर दिए गए। 7 के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की गई है। लेकिन इससे क्या होगा?
क्या वनकर्मी ही अपनी ड्यूटी में चूके हैं या सरकार ने भी अपनी जिम्मेदारी समय रहते पूरी नहीं की? वनकर्मियों पर तो सरकार ने कार्यवाही कर दी, लेकिन सरकार के दोषी होने पर क्या होगा? 425 अज्ञात के खिलाफ मुकदमा भी दर्ज किया गया है। क्या आग लगाने वाले कभी ज्ञात भी हो पाएंगे? यदि कोई आग लगा रहा है तो वो ऐसा क्यों कर रहा है? किसके इशारे पर आग लगाई जा रही है? सरकार, पुलिस और वन विभाग आखिर क्या कर रहे हैं?
सवाल जंगलों के इर्द-गिर्द रहने वाले लोगों से भी है, वे क्यों मुँह फेरे रहे अपने जंगलों से? अब तक उत्तराखंड के दूरस्थ जंगलों में आग लगने का समाचार रहता था। इस बार यह आग विकराल रूप धारण कर नैनीताल, अल्मोड़ा, रानीखेत जैसे पर्यटनस्थल तक पहुँच गई। रानीखेत में सेना का अस्पताल धुआँ-धुआँ हो गया। गढ़वाल मंडल में भी नरेंद्र नगर, लैंसडाउन, रूद्रप्रयाग, मसूरी उत्तरकाशी, कोटद्वार, टिहरी गढ़वाल, गोपेश्वर तक के जंगल खूब धधक रहे हैं।
महँगे हिल स्टेशनों और उत्तराखंड के बड़े नगरों तक जंगल की आग पहुँचना हैरतअंगेज है। वायु सेना के हेलीकाप्टर आग बुझाने में लगे हुए हैं। लेकिन काबू पाना मुश्किल हो रहा है।
उत्तराखंड में जंगल की आग अति महत्वपूर्ण, सबसे ज्यादा महँगी जमीन को अपने शिकंजे में लेे रही है। क्या बेशकीमती जमीन को खाली कराने के लिए यह सुनियोजित साजिश तो नहीं है?
जंगल की आग दुनियाभर की समस्या है। ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन से तापमान में वृ(ि और समय से बारिश न होने के कारण दुनिया के तमाम देशांे में जंगल की आग विकराल होती जा रही है। उत्तराखंड भी इससे अछूता नहीं है। लातिन अमेरिका में विश्व प्रसि( अमेजन के जंगल आग से नष्ट हो रहे हैं, वहीं उत्तराखंड में भी पहाड़ों पर विनाशकारी आग थमने का नाम नहीं ले रही है। पहाड़ के विकास के नाम पर देशी-विदेशी पूँजी निवेश के लिए जमीन की लूट अब आम है। विकास के नाम पर पहाड़ में जमीन की लूट आसान बनाने के लिए कायदे-कानून में तेजी से बदलाव हो रहे हैं।
दिक्कत यह है कि पहाड़ के हिल स्टेशनों, तीर्थस्थलों और बड़े नगरों में कहीं खाली जमीन नहीं बची है। जो जमीन है, वह बेशकीमती स्थलों से लगे जंगलों की है, जो वन विभाग की है। कानून के मुताबिक इस जमीन का लेन-देन असंभव है। कहीं इस असंभव लेन-देन को संभव बनाने के लिए उत्तराखंड के जंगलों को आग के हवाले तो नहीं किया जा रहा है? ताकि साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। ऐसी संभावना उत्तराखंड के सामाजिक कार्यकर्ता व्यक्त करते रहते हैं।
जंगल के सफाए के बिना पहाड़ के शहरीकरण, बाजारीकरण और विकास के स्वर्णिम राजपथ नहीं खुल सकते। शायद इसलिए उत्तराखंड की जमीनों पर देश और दुनिया के कारपोरेट की नजर है। आदिवासी भूगोल में जंगल में आग की घटनाएं सबसे ज्यादा दर्ज होती हैं। ओडीशा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश के जंगल भी आग की चपेट में रहते हैं। आदिवासी जंगलों में रहते हैं और पेड़-पौधों, वन्यजीवों, पहाड़ों, नदियों की पूजा करते हैं। वे जंगलों को आग से भी बचाते हैं। लेकिन बेशकीमती खनिज का खजाना इन्हीं जंगलों में छुपा हुआ है। जिस पर पूँजी निवेश व कारपोरेट फायदे के लिए कहीं जंगलों को काटा जा रहा है तो कहीं जंगलों को आग के हवाले किया जा रहा है।
उत्तराखंड में जहाँ-जहाँ जंगलों में आग पहुँच रही है, वहाँ जमीन की कीमत कितनी है? विकास के लिए कितनी जमीन चाहिए? आखिर जंगलों मंे आग कौन लगा रहा है?
परंपरागत ढंग से पहाड़ की जनता आदिवासियों की तरह जंगल की रक्षा करती है, लेकिन जंगलात के नए कायदे-कानून ने जैसे आदिवासियों को जल, जंगल, जमीन से बेदखल कर दिया है, उसी तरह पहाड़ के लोगों के साथ भी हो रहा है।
उत्तराखंड में वन पंचायतें हैं, लेकिन उनसे उनके अधिकार छीन लिए गए हैं। उत्तराखंड में हमेशा जंगल की आग के लिए चीड़ के पेड़ों को जिम्मेदार बताया जाता है। चीड़ के पत्ते पिरूल और लीसा ज्वलनशील हैं, यह सही है, लेकिन बहुत लंबे समय से हिमालय के जंगलों में चीड़ मौजूद है, लेकिन तब आग लगने की घटनाएं कितनी होती थीं? और अब इस अमृतकाल में आग लगने की घटनाएं कितनी हो रही हैं?
कोई भी जंगल हवा, पानी, मिट्टी, वन्यजीव व पशु-पक्षी आदि से जुड़कर बनता है। जंगल की आग से वन संपदा की क्षति को सिर्फ आर्थिक नुकसान से नहीं आँका जा सकता। जंगल की आग से कितने पशु-पक्षी, वन्यजीव प्रभावित होते हैं, कितने मारे जाते हैं, क्या इसका ऑकलन है? वन की आग और उसके दुष्परिणामों को हम मात्र संख्या से नहीं आँक सकते।
भविष्य में जंगलों की आग से कितना नुकसान होगा, यह हमारी और सरकार की सोच से बाहर है। पर्यावरण की दुश्मन सरकार और सरकारी नीतियां तो हैं ही, इंसान भी कम दोषी नहीं है। एक तरफ उत्तराखंड के जंगल जल रहे हैं, वहीं दूसरी ओर चारधाम यात्रा में क्षमता से कहीं ज्यादा लोग पहुँचकर पहाड़ों को डिस्बैलेंस कर रहे हैं। केदारनाथ, बद्रीनाथ युमनोत्री, गांगोत्री में बेतहाशा अनियंत्रित भीड़ धर्म के आडंबर में डूबकर पहाड़ के लिए असंतुलन पैदा कर रही है। जिसका परिणाम हम 2013 की केदार त्रासदी में देख चुके हैं। लेकिन सीखें क्या? हजारों लोगों की मौत का जिम्मेदार कौन है? 10 मई से चारधाम यात्रा शुरू है, लेकिन सरकारी इंतजाम क्या हैं?
आखिर लोग सिर्फ पहाड़ों पर मौज मस्ती के लिए आना चाहते हैं या उनका पहाड़ों से कोई जुड़ाव भी है? सरोकार भी है? यह जागरूकता लाने की कोशिश सरकार नहीं कर रही है और लोग तो अंधभक्त बने अपने सर्वनाश की कहानी खुद लिखने में मशगूल हैं ही। ऊपर से राजनीति का तड़का। ऐसे में जल, जंगल, जमीन के बारे में कौन विचार करेगा? कैसे बचेंगे पहाड़ के जंगल? इसका जवाब मेरे पास तो नहीं है। क्या आप बता सकते हैं?

रूपेश कुमार सिंह सम्पादक, अनसुनी आवाज
रूपेश कुमार सिंह
सम्पादक, अनसुनी आवाज

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