बाढ़ का पानी और खिचड़ी की दावत

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तकरीबन 22 साल बाद आज फिर  दिनेशपुर में लोग बाढ़ के पानी में मछली मारते और मस्ती करते नजर आये। 1998 तक हर साल नगर बरसात में जलमग्न रहता था। सुन्दरपुर, टेकपाडा, दुर्गापुर, आनन्दखेड़ा, चन्दननगर सहित तमाम गाँवों के बाढ़ पीड़ित लोग अपनी घर-बाड़ी छोड़कर कुछ जरूरी सामान लेकर दिनेशपुर के इंटर कॉलेज में जमा हो जाते थे। और फिर शुरू होती थी खिचड़ी की दावत•••कई-कई दिनों के लिए।

तब गैस सिलेंडर नहीं थे, लकड़ी के चूल्हे का इस्तेमाल होता था। बाढ़ का पानी उतरने और मिट्टी सूखने तक काॅलेज में हजारों महिला-पुरूष, बच्चों-बुजुर्गों का मेला रहता था। मसलन 8-10 दिन तक। कभी-कभार इससे ज्यादा भी।

 

एक कोने में बाढ़ पीड़ितों की लिस्ट तैयार करने की खानापूर्ति भी पटवारी करता था। उस लिस्ट से होता हबाता कुछ नहीं था। स्थानीय लोग खाने-पीने को मदद न करते तो सरकारी परोपकार पर दिन कटने असंभव होते थे।

असल में तब दिनेशपुर क्षेत्र में बाढ़ किसी उत्सव से कम नहीं थी। घर में पानी भरा है, लेकिन बंगाली महिला-पुरूष मछली मारने में मस्त रहते थे। सैकड़ों लोग खासकर गैर बंगाली समाज के लोग मछली मारने को बहुत उत्सुकता से देखते थे। मस्ती में बच्चे नंगे-पुंगे पानी में लौट मारते थे। हगने के लिए बंद टायलेट नहीं थे, कहीं भी हगो और बाढ़ के पानी से साफ कर लो•••स्पेशल पानी ले जाने का झंझट नहीं था तब सप्ताह भर तक।

 

न लोगों में संक्रमण का डर था न फोड़े-फुंसी का। हाँ, बीमार भी कम ही पड़ते थे उन दिनों भीगने पर लोग।

दरअसल तब नगर में छोटे-बड़े सैकड़ों तालाब थे।

आसपास नदी, नाले भी थे। बाढ़ के बहाव में मछलियां तालाब से निकल आती थीं और लोग उन पर टूट पड़ते थे। कई-कई दिनों का मनोरंजन भी था और भोजन का जुगाड़ भी। बच्चों की धमाचौकड़ी देखते बनती थी। चारों तरफ एक अजीब सी मस्ती रहती थी वातावरण में।

 

इण्टर काॅलेज में पूरे दिन रात बड़े भगोनों में खिचड़ी पकती रहती थी। नगर के संभ्रांत लोग खाद्यान्न दे जाते थे। मसलन दाल-चावल, सब्जी, मिर्च-मसाले आदि। महिलाएं सब्जी काटती और पुरुष छोका-छाकी में लगे रहते थे। खाने का स्वाद•••वाह•••भई•••वाह•••।

जो बाढ़ पीड़ित नहीं भी होते थे वे भी खिचड़ी जरूर चखते थे। लोग पन्नी में भर कर घर भी ले जाते थे। किसी को कोई मनाही नहीं थी। उस समय बाढ़ के उत्सव में पूरा नगर भागीदार होता था। मदद करने में भी और इंज्वाय करने में भी। तब पत्तल पर खाना खाया जाता था।

बांग्ला में गाना-बजाना भी होता था रात में। केरोसीन से लैम्प जलता था। क्योंकि तब दस-दस दिन बिजली नहीं आती थी।

15-20 किमी का क्षेत्र गूलरभोज बौर जलाशय से पानी निकासी के चलते भी बाढ़ग्रस्त रहता था। हमारा घर और समाजोत्थान संस्थान भी तब बाढ़ की जद में हुआ करता था।

हर साल की कहानी थी और हम सब आदी हो चुके थे। न तो सांप-कीड़ों का डर था और न ही घर-मडैया टूटने का। हम चारों भाई तख्त पर बैठते थे। वहीं बगल में मम्मी स्टोव जला लेती थीं। मास्साब और हम सब टीन शेड के भीतर से ही रोमांचक दृश्य देखते रहते थे। तब कहीं कोई घेराबंदी मतलब चहारदीवारी तो थी नहीं, सारा मंजर घर के भीतर से ही दीखता था। हमारा इलाका नीचे में था, तो पानी इधर ज्यादा भरता था। पूरा नगर हमारे घर के आसपास होता था।

नगर के सभी लोग मास्साब को जानते थे, इसलिए हमें उस मुश्किल दौर में भी कभी खाने पीने की कोई किल्लत नहीं होती थी। नीचे का सामान ऊपर रखने में काफी मशक्कत होती थी।

धीरे-धीरे स्थिति बदलने लगी और बाढ़  1998 के बाद इधर कभी नहीं आयी। दो दिन की मूसलाधार बारिश के बाद आज 22 साल बाद फिर भयंकर बाढ़ आँखों के सामने है।

फिर से एक बार लोग जाल लेकर मछली मार रहे हैं, बच्चे मस्ती कर रहे हैं। हम भी विचलित नहीं हैं, बल्कि बच्चों को बता रहे हैं कि पहले के हालात कैसे होते थे। हाँ, वो इण्टर काॅलेज में मेला और खिचड़ी की दावत तक बात नहीं पहुंची। लेकिन बहुत कुछ 22 साल पहले का आज याद आ रहा है।

 

सोचनीय यह भी है कि नगर की लाइफलाइन बड़ी नदी को नाली बना दिया गया है। तमाम तालाब पाट दिए गये हैं, निकासी दुरूस्त नहीं हैं, सरकारी कच्ची जमीनों पर अवैध कब्जे हो गये हैं, गूलें खत्म हैं, आज की बाढ़ के लिए यह कारण भी कम उत्तरदायी नहीं हैं।

सिडकुल औद्योगिक आस्थान दो दिन बंद रहेगा। बरसात बनी हुई है। ऐसे में बेमौसमी बाढ़ हमें पूँजी केन्द्रित बेतरतीब विकास के बारे में सोचने पर मजबूर करती है। आखिर हम विकास की किस दिशा में जा रहे हैं? क्या हमारा आने वाला कल सुरक्षित होगा?? प्रकृति के प्रकोप से हम सबक लेंगे???

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