तस्लीमा नसरीन ने अपने फेसबुक वॉल पर लिखा है कि उनके पास पहले जो किताबें थीं,वे अक्सर चुरा ली जाती थीं। अलमारी को तालाबंद रखना पड़ता था। अब उनके पास 14 अलमारियां किताबों से भरी हैं और उनपर ताला लगाने की जरूरत नहीं पड़ती।क्योंकि अब किताबें कोई नहीं चुराता।पढ़ने लिखने की संस्कृति खत्म हो गई है।
यह अलग बात है कि अपनी हैसियत और सुरक्षा के मद्देनजर तस्लीमा के घर से किताबें चुराने के लिए किसी चोर को कितनी मशक्कत करनी होगी। सच लेकिन यही है। अब लोग किताबें पढ़ते नहीं हैं। कोलकाता पुस्तक मेला या दिल्ली पुस्तक मेले जैसे बड़े आयोजनों में किताबें खरीदना स्टेटस का सवाल है।
ऐसा सत्तर के दशक में भी था।एक धनाढ्य वीआरजी था,जिनके लिए पढ़ा लिखा दिखना स्टेटस का सवाल था।उनके ड्राइंग रूम में बंद अलमारियों में साहित्य और ज्ञान विज्ञान की कीमतें किताबें बंद रहती थी,जिन्हें पढ़ने की किसी को फुर्सत नहीं होती थी।
अब किताबें बहुत महंगी हो गई हैं,जिन्हें आम लोग खरीद नहीं सकते,चुराने की भी वे कोशिश नहीं करते। खास लोग दिखावे के लिए किताबें खरीदकर घर में भव्य पुस्तकालय जरूर बनाते हैं,लेकिन बहुत कम लोग पढ़ते हैं।वैसे ही जैसे फैशन के तहत बेशुमार महंगे कपड़े और गहने खरीदकर अलमारियों और लॉकर में बंद कर दिए जाते हैं,उन्हे पहनने की जरूरत नहीं होती।
छात्रों के लिए पढ़ना अनिवार्य है।लेकिन वे भी पाठ्य पुस्तकें नहीं पढ़ते। कुंजी और नोट्स के सहारे ज्यादा से ज्यादा अंक बटोरते हैं। न वे पाठ पढ़ते हैं, न उसपर दिमाग खपाते हैं।कोर्स के बाहर की चीज कतई नहीं पढ़ते। सिलेबस में भी सुविधानुसार नोट्स बना लेते हैं बाकी चीजें उलट पुलटकर भी नहीं देखते।
एम ए अंग्रेजी फर्स्ट क्लास को भी मालूम नहीं होता कि शेक्सपियर कौन थे या हिंदी वालों को अपने कवियों लेखकों के नाम नहीं आते। वैसे ही जैसे लोग अपने पुरखों के नाम भी नहीं जानते।
जड़ों से कटना ही आधुनिकता है और तकनीक है तो कोई भी चीज आत्मसात करने की जरूरत नहीं होती।ज्ञान विज्ञान के बजाए जानकारी से ही कामयाबी मिल जाती है।
सत्तर के दशक में डीएसबी कॉलेज नैनीताल का रीडिंग रूम छोटा था।लाइन लगाकर घुसना होता था।देशी विदेशी पत्र पत्रिकाओं, पुस्तकों के लिए मारामारी थी।कॉलेज के पुस्तकालय से कम नहीं चलता था।हम सुकरात, अरस्तू,प्लेटो, हॉब्स,लॉक, रूसो,मोंटेस्कू, फ्रायड,मार्क्स की किताबों के लिए एक पाठ को समझने के वास्ते मिडलेक लाइब्रेरी में कब्जा किए रहते थे।सम्पूर्ण रचनावली हर किसी की खोजते थे।पढ़ते थे।ग्रुप बनाकर उसपर रात दिन बहसें करते थे।साहित्य पर बनी फिल्में भी जरूर देखते थे।
आज के छात्र मोबाइल और लैपटॉप ब्राउज़ करते हैं।स्टडी और ब्राउज़ करना एक हो गया है।
किताबें हथियाना या किताब चुराना आम बात थी।किताबों से चुराकर शोध या मौलिक लेखन का वायरस तब प्रकालन में नहीं था।
ऐसे में साधनविहीन किसी लघु पत्रिका के लिए इच्छित सामग्री जुटा पाना और पत्रिका को समय से निरंतर निकालना बेहद असंभव है। दिनेशपुर जैसे छोटे कस्बे में लेखक तैयार करना दशरथ माझी के पहाड़ काटकर रास्ता बनाने से मुश्किल काम है।
हम हर अंक के लिए विषय के बारे में लगातार सार्वजनिक चर्चा करते हैं।व्हाट्सएप से हमारे संपर्क के हर रचनाकार को सूचित करते हैं और फेसबुक पर लगातार पोस्ट लगाते रहते हैं। लेकिन विषय केंद्रित सामग्री नहीं मिलती।
हमारे पास सिर्फ 44 पेज हैं।हर महीने अंक निकलता है और हर अंक विशेषांक होता है।बिना राजनीतिक या व्यवसायिक समर्थन के यह कितना मुश्किल काम है,सभी साथियों को मालूम होगा।हम पेज बढ़ाने की स्थिति में नहीं होते। लम्बे चौड़े आकर्षक मोटे विशेषांक तो निकाल ही नहीं सकते।
महत्वपूर्ण विषयों पर सामग्री मिलने की स्थिति में दो तीन अंक निकलने को हम तैयार रहते हैं।लेकिन एक अंक के लिए भी पर्याप्त सामग्री नहीं मिलती।
हम जनवरी और फरवरी के दोनों अंक गजल विशेषांक निकलना चाहते थे।देशभर में संपर्क करके गजल पर लिखने के लिए कहते रहे। अंजाम?
आलेख सिर्फ दो मिले।गजलें लेकिन बहुत आई। बहर को हम ज्यादा तवज्जो नहीं देते।लेकिन कथ्य और गजल की गेयता को नजरंदाज करके सिर्फ तुकबंदी,तत्सम कोलाहल और अबूझ पहेलियां कैसे छाप देते?
नए और हाशिए के रचनाकारों की कमजोर रचनाएं भी हम जरूर छपते हैं लेकिन प्रतिष्ठित,पुराने और बुजुर्ग रचनाकारों की कमजोर रचनाओं को संकलित कैसे करते?
गजल पर सार्थक संवाद, मानक,आर्टिमैन और दिशा के बिना सिर्फ गजलें छापने का औचित्य क्या है?
इसलिए फरवरी अंक में हमने ज्वलंत मुद्दों पर रपट मांगी। जोशीमठ पर उत्तराखंड से एक भी रपट नहीं आई। हमारे सरोकार,हमारी विचारधारा कहां और किस दिशा में हैं? बहरहाल फरवरी अंक तैयार हो गया।
मार्च अंक महिला विशेषांक है।जिसमें दलित,आदिवासी, किसान,मजदूर,सफाई कर्मी, कामवालियों,चाय बागान, खदानों और असंगठित क्षेत्र की कमजोर तबके की मेहनतकश औरतों,उनकी आपबीती,दिनचर्या, उनके संघर्ष, उनकी उड़ान और उपलब्धियों पर लिखने के लिए हमने हजारों रचनाकारों को व्हाट्सएप संदेश भेजें।
नतीजा? रचनाओ की बरसात होने लगी हैं,जिनमें इन महिलाओं का जिक्र तक नहीं है।
कहीं से कोई रपट,आपबीती,परिचर्चा भी नहीं आई।विषय को समझे बिना छपने की इस होड़ पर क्या कहें?
इस पर तुर्रा यह कि न छपने पर नाराजगी अलग झेलिए।बुजुर्गों को जवाब दे पाना बहुत भारी है।
दुनिया की हर भाषा में साहित्य और पत्रकारिता की दिशा किस और है? उदाहरण के लिए हम बांग्ला में छपी सामग्री शेयर भी कर रहे हैं। अगर आप हमारे साथ हैं तो हमारे सरोकार भी समझिए,विषय,संदर्भ,प्रसंग,आशय भी समझिए। अपनी दृष्टि और रचना का परिष्कार भी कीजिए। क्या आप चाहते हैं कि कर्म काण्ड की तर्ज पर हम सिर्फ रस्म अदायगी करते दें और कुछ भी छापते। हुए सबकी शाम तुष्टि का सामान बन जाए?
कृपया दिशा निर्देश के साथ साथ रचनात्मक सहयोग भींकरें ताकि पढ़ने लिखने की संस्कृति बहाल करने का मिशन हम जारी रख सके।
बहुत ऊब और थकान महसूस होती है।
पचास साल पहले की ऊर्जा,प्रेरणा और शक्ति खान वापस मिलेगी? नए सिरे से प्रेम करने की मोहलत कितनों को मिलती है फ्री सेक्स के जमाने में?
पलाश विश्वास
28.01.2023