क्यों छूट जाते हैं तराई के मुद्दे?
उत्तराखण्ड निर्माण के 18 साल बाद नये सिरे से राज्य के परिसीमन पर चर्चा हो रही है। पर्वतीय राज्य की अवधारणा के मुताबिक उत्तराखण्ड में तराई को शामिल करना एक बड़ी भूल थी, तमाम लोग इस मत से सहमत हैं। मैदान के कुछ और जिलों को सूबे में जोड़कर साधन संपन्न बनाने की बात भी रह-रह कर उठती है। 18 साल में पहाड़ का विकास इसलिए नहीं हुआ, क्योंकि विकास का सारा फोकस तराई में रहा। ऊधम सिंह नगर, हरिद्वार के अलावा नैनीताल व देहरादून के कुछ शहरों तक ही सिमट कर रह गया उत्तराखण्ड का विकास। तराई के कारण पहाड़ का विकास नहीं हुआ। तराई ने पहाड़ का हक मारा है, ये बातें अब आम हो गयीं हैं। उत्तराखण्ड तराई के बलबूते चल रहा है, ऐसी प्रतिक्रिया देने वालों की भरमार भी है। पहाड़ और मैदान के बीच खाई लगातार चौड़ी हो रही है। नये विधानसभा परिसीमन के बाद तो सीटों के बंटबारे को लेकर शंकाएं और भी बढ़ गयी हैं। कहना है कि तराई में विधानसभा सीटें लगातार बढ़ रही हैं और पहाड़ में कम हो रही हैं। यदि यही क्रम जारी रहा तो पहाड़ उत्तराखण्ड में भी पिछड़ जायेगा।
उत्तर-प्रदेश की तर्ज पर ही है विकास की स्थिति
सारी असमानताओं और आशंकाओं को सुनियोजित तरह से अब तक सत्ता में काबिज भाजपा-कांग्रेस ने खुलकर बढ़ावा दिया है। इसमें दो राय नहीं कि पहाड़ के दूरस्थ इलाके आज भी जस के तस हैं। पहाड़वासी बदहाल, परेशान हैं। विकास की स्थिति उत्तर-प्रदेश की तर्ज पर ही है। बल्कि माफिया, तस्कर, दलाल नेताओं और भ्रष्ट अफसरों और व्यवस्था के गठजोड़ ने मिलकर प्रदेश को नीलाम करना शुरू कर दिया है। तराई में सिडकुल के लगने से जो कथित विकास हमें दिखाई देता है, तराई उसके लिए कितनी बड़ी कीमत चुका रही है, यह जानने के लिए जमीन पर उतर कर व्यापक अध्ययन करना होगा।
6-6 हजार में फैक्ट्रियां चूस रही है खून
पूंजी केन्द्रित बेतरतीब विकास ने न तो तराई का भला किया और न ही उत्तराखण्ड का। हजारों एकड़ कृषि भूमि पर कंक्रीट का जंगल खड़ा कर दिया गया है। अगले सौ साल में भी यह भूमि पुनः खेती के लिए तैयार नहीं हो पायेेगी। 6-6 हजार रुपये में उत्तराखण्डी नौजवानों का खून चूसने के लिए सैकड़ों फैक्ट्रियां हैं, जिनकी मौजूदा स्थिति बहुत भयावह है। आधे से ज्यादा कम्पनियां या तो उत्पादन में आयी ही नहीं या फिर उत्पादन बंद कर चुकीं हैं। पहाड़ ही नहीं, मैदानी इलाकों से हजारों की संख्या में लोग पिछले दस साल में ऊधम सिंह नगर व हरिद्वार में बस चुके हैं। लोगों के आने का सिलसिला तेजी से जारी है। लोग कीड़े-मकौड़े की तरह जिन्दगी बसर कर रहे हैं। पानी का स्तर तेजी से गिरता जा रहा है। भूमि की उर्वरा शक्ति खत्म हो रही है। यातायात के दबाव और नये-नये अपराधों ने हजारों लोगों को अकाल मौत दी है। कैंसर जैसी बड़ी बीमारी आम हो गयी हैं। वास्तव में तराई अब हांफने लगी है। तीखा अन्तर्विरोध यहां कभी भी विस्फोट पैदा कर सकता है। शान्त और खूबसूरत तराई आज लगातार बदसूरत हो रही है।
भाजपा-कॉंग्रेस ने किया उत्तराखण्ड बांटने का काम
सत्ता में काबिज भाजपा-कांग्रेस ने कभी उत्तराखण्ड का भला नहीं सोचा, बल्कि मूल समस्याओं और मुद्दों से भटकाने के लिए गढ़वाल-कुमाऊं, पहाड़-मैदान, तराई-भाबर के बीच विवाद पैदा करने का काम किया। सरकारों ने हमेशा अपनी असफलता और काहिली के लिए खुद को जिम्मेदार नहीं माना, बल्कि इस तरह की भावनाएं भड़का कर असल बहस को हाशिये पर पहुंचा दिया। साथ ही बेहतर-समतामूलक, खुशहाल उत्तराखण्ड निर्माण के आन्दोलन को तोड़ने का काम किया।
जनवादी लोग भी हैं जिम्मेदार
अफसोस तो यह है कि उत्तराखण्ड के जनवादी लोग, बुद्धिजीवी, साहित्यकार, पत्रकार, सामाजिक- राजनीतिक कार्यकर्ता, संस्कृति कर्मी व आन्दोलनकारी भी 18 साल में अवसरवादी व राज्य की बदहाली के लिए जिम्मेदार सरकारों को कभी मुकम्मल जवाब नहीं दे पाये। बल्कि सत्ताधारियों की साम-दाम-दण्ड-भेद की नीति के आगे घुटने टेकटे रहे और उनके जाल में फंसते गये। कुछ साथी आज भी आवाज बुलंद कर रहे हैं, लेकिन दमन और सत्ता की पावर उन्हें कुचलने की हर संभव कोशिश में है।
शेष अगले भाग में……………………
-रूपेश कुमार सिंह09412946162
क्यों छूट जाते हैं तराई के मुद्दे? (भाग-दो)