रूपेश कुमार सिंह की दो लघुकथाएं !

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मेरी पोटली से – रूपेश कुमार सिंह

(1)

लघुकथा – रोटी

जेठ की तपती दोपहर; जानलेवा लू चल रही थी। सेठ राम प्रसाद की कोठी का निर्माण हो रहा था।

सेठ की सात वर्षीय बेटी रूपा घूमते-घूमते घर से बाहर आकर खेलने लगी।

“अरेsss अरेsss रूपा बेटा तुम यहाँ क्या कर रही हो? देखो! धूप कितनी तेज है। बाहर मत घूमो। तुम्हारी तबियत खराब हो जाएगी। चलो अन्दर आओ और कूलर वाले रूम में बैठो।” सेठ ने रूपा को समझाते हुए बहुत प्यार से कहा।

कोठी के लिए ईंट ढो रही श्यामली थक कर कुछ देर के लिए पेड़ की छाँव में बैठी हुई थी।

“काम चोर यहाँ बैठी आराम फरमा रही है, ईंट क्या तेरा बाप ले जायेगा? चल जल्दी उठ और ईंट ले जा। शाम तक यह चट्टा खाली करना है तुझे। काम चोर कहीं की।” श्यामली को बैठा देख सेठ आगबबूला होकर तेज आवाज़ में चिल्लाया।

बेचारी श्यामली चुपचाप उठी और ईंट ढोने लगी।

उसे तीन बच्चों के लिए शाम की रोटी का जुगाड़ करना था। जिनकी किस्मत सेठ की बेटी रूपा जैसी नहीं थी।

श्यामली के चेहरे पर उसकी बेचैनी साफ पढ़ी जा सकती थी।

(2)

लघुकथा- हूटर

माँ बहुत भूख लगी है। मुझे खाना दो

माँsss मुझे खाना दो।” मंगल ने अपनी माँ को झकझोरते हुए कहा।

“बेटा थोड़ा और सब्र कर; अभी तेरे बापू नहीं आये। उनके आने पर ही खाना मिलेगा।” माँ ने मंगल को अपने दामन में समेटते हुए धीमे स्वर में कहा।

भूख से पेट में नौंचन बढ़ रही थी। मंगल ने थोड़ी देर बाद फिर वही बात दोहराई।

“बेटा तू समझता क्यों नहीं? यह मान कि आज तेरा व्रत है। तू पानी पीकर सो जा।” माँ ने अपने आँसू छिपाते हुए रुवासन होकर कहा।

मंगल ने माँ का उतरा हुआ चेहरा देखा और उदास होकर सवाल किया, “माँ शाम ढल रही है, रात चढ़ रही है, आखिर हम खाना कब खायेंगे?”

“जब तेरे बाबू की फैक्ट्री का हूटर बजेगा तब।” माँ ने भारी मन से मंगल को जवाब दिया। माँ की आँख डिबडिबा रही थी। आँखों में पानी भर आया था।

कुछ ठहर मंगल ने फिर सवाल किया, “माँ ये हूटर कब बजेगा?”

माँ निरूत्तर थी। उसने मंगल को अपनी बाँहों में जकड़ लिया और दहाड़े मार-मार कर रोने लगी।

मंगल माँ के सीने से चिपटा रहा और पता नहीं कब भूखा ही सो गया।
(लघुकथा 2005 में लिखी गई)

रूपेश कुमार सिंहसमाजोत्थान संस्थानदिनेशपुर, ऊधमसिंह नगरउत्तराखंड 2631609412946162

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