प्रेम क्षणिका 

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                      इंसान 

मुसलमान’

 नहीं हो तुम

 मुझे पता है,

 मैं नहीं हूँ 

 ‘हिन्दू’

  तुम्हें पता है।

  हम हैं सिर्फ 

  ‘इंसान’

  एक-दूजे को पता है।

 गली-मोहल्ले, घर-परिवार/समाज में 

 हमें क्यों नहीं 

 मिलते हैं इंसान?

 मिलते हैं सिर्फ 

 हिन्दू-मुसलमान।

 इतना मुश्किल क्यों है

 जाति-धर्म-सम्प्रदाय 

 को छोड़कर 

 इंसान बनना?

 जीवन भर खटकर

 हम-तुम मिलकर

 बना पायेंगे

 कुछ धार्मिक कठमुल्लों को

 एक बेहतर इंसान?

 खोज पायेंगे इस नफरत भरी दुनिया 

 में 

 अपने प्यार की छोटी सी ‘इंसानी’ 

 दुनिया को?

रूपेश कुमार सिंह 

 स्वतंत्र पत्रकार 

 9412946162

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