रंगकर्मी साथी सुबीर गोस्वामी अग्नि को समर्पित हो चुके हैं। नम आँखों से दिनेशपुर वासियों और रंगकर्मियों ने उन्हें आखिरी विदाई दी। हम श्मशान घाट पर अंत्येष्टि कर आये हैं। इसी के साथ ही सुबीर दा अब किस्से-कहानी में दर्ज हो गए। एक थे सुबीर दा, जिन्होंने थियेटर और फिल्म निर्माण से दिनेशपुर को जोड़ा•••फला-फला कहकर आने वाली पीढ़ी को लोग बतायेंगे।
सवाल भी बना रहेगा, आखिर इतना प्रतिभाशाली, संवेदनशील और सक्रिय कलाकार बिना काम के लम्बे समय तक डिप्रेशन में बना रहा और अन्ततः नशे का शिकार होकर जीवन से हार गया। सुबीर दा का जाना दिनेशपुर में थियेटर का अवसान है। क्या दिनेशपुर में अब फिर से थियेटर होगा? क्या कोई और युवा दिनेशपुर से निकलकर मुंबई में बड़े पर्दे पर अपना जौहर दिखा पाएगा? पहले डाॅ अभिजीत मण्डल चले गये अब सुबीर दा भी अलविदा कह गये। हम स्तब्ध हैं।
सुबीर दा 19 जुलाई, 1978 को दिनेशपुर के डाॅ अजय गोस्वामी व कल्पना गोस्वामी के घर पैदा हुए। सुबीर दा के माँ-बाबा भी बेहतरीन कलाकार थे। माँ अभी मौजूद हैं। माँ के लिए गहरा सदमा छोड़ गये हैं सुबीर दा। विरासत के तौर पर सुबीर को रंगमंच परिवार से ही मिला। बाल्यकाल से सुबीर बहुत प्रतिभाशाली थे। दिनेशपुर में बाँग्ला जात्रागान से अभिनय का सफर शुरू करने वाले सुबीर 2011 में बड़े पर्दे पर नजर आये। लेखक मनीष गुप्ता की रैगिंग पर आधारित फिल्म हॉस्टल में सुबीर दा को सेकेंड लीड रोल मिला।
इससे पहले वे थियेटर व सिनेमा के प्रख्यात अभिनेता, निर्देशक, शिक्षक बैरी जाॅन जिन्हें शाहरुख खान और मनोज वाजपेयी का थियेटर गुरू भी माना जाता है, ने सुबीर की कलात्मक क्षमताओं का आकलन कर 1999 में ही अपने एक्टिंग स्कूल इमागो में स्कॉलरशिप कैटेगरी में प्रशिक्षण के लिए चयन किया। सुबीर ने बैरी जाॅन के रंगमंडल थियेटर एक्शन ग्रुप से जुड़कर हिन्दी-अंग्रेजी में कई बेहतरीन नाटक किये। जिनमें तुगलक, अंधा युग, इडिपस, इनसेंस-ऑबसेंस मंटो, मोटेराम का सत्याग्रह, रूम नम्बर 420 प्रमुख हैं।
सुबीर दा ने 2004 में टी वी सीरियल हीरो, तारा रम पम, सी आई डी आदि में अभिनय किया। हॉस्टल के अलावा साब चाय-पानी में भी सुबीर दा ने बेहतरीन अभिनय किया। फिल्म के निर्देशन में भी उन्होंने काम किया। 2007 में सुबीर दा ने स्थानीय कलाकारों को लेकर जोमलीला बांग्ला फिल्म भी बनाई।
मैंने भी उनके निर्देशन में ताजमहल का टेंडर, पंचायत में पांचाली व अंधा युग में लीड रोल निभाया है। उस पर कभी बाद में बात करेंगे।
कोरोना के बाद से सुबीर दा खाली थे। तमाम कलाकारों की तरह वे भी गहरे डिप्रेशन में थे। प्रवृत्ति के अनुरूप काम न होने से इंसान टूट जाता है। फिर कलाकार तो बहुत भावुक होता है, सुबीर दा के साथ भी ऐसा ही हुआ। उनकी मौत सामान्य नहीं है। समाज सपोर्ट करता और समय रहते निकटवर्ती लोग काउंसिलिंग करते तो शायद सुबीर दा टूटे नहीं होते।
अकेलापन, अपनी रुचि और योग्यता के अनुरूप काम न होना किसी भी व्यक्ति को गलत दिशा में ले जाता है, जिसका अंजाम सुबीर दा जैसा ही होता है।
आज हमने एक होनहार, ऊर्जावान कलाकार को यूं ही बैठे-बैठे खो दिया।
अलविदा सुबीर दादा! आप हमेशा दिनेशपुर के थियेटर के इतिहास में याद किये जाओगे।