विकास का आतंकवाद

संजय पराते रायपुर, छत्तीसगढ़
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देश के भीतर छह करोड़ लोगों का विस्थापन
आजादी के बाद औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था से मुक्ति के लिए पंचवर्षीय योजना की अवधारणा सामने आई, ताकि देश के आत्मनिर्भर और संतुलित विकास को बढ़ावा दिया जा सके। लेकिन विकास की यह अवधारणा पूँजीवाद के विकास के लिए ही थी और देश के विकास के नाम पर बनी तमाम विकास परियोजनाओं की कीमत गरीबों को ही चुकानी पड़ी। लागत गरीबों से वसूली गई, मुनाफे संपन्नों के बीच बाँटे गए। इन गरीबों में शामिल हैं आदिवासी, दलित और सामाजिक- आर्थिक रूप से कमजोर तबके। इन गरीबों को कथित विकास परियोजनाओं के कारण अपनी जमीन और गाँवों से विस्थापित होना पड़ा है। कईयों को तो कई-कई बार विस्थापित होना पड़ा है। उदाहरण है मध्यप्रदेश का सिंगरौली क्षेत्र- यहाँ के लोगों को तीन बार विस्थापित होना पड़ा है-वर्ष 1952 में रिहंद बाँध से जुड़ी बिजली परियोजना के कारण, उसके बाद 1965 में नॉर्दर्न कोल फील्ड लिमिटेड द्वारा कोयला खनन के कारण और फिर 1980 में नेशनल थर्मल पॉवर कॉर्पाेरेशन (एनटीपीसी) की बिजली परियोजना के कारण। इसी प्रकार, मिजोरम के आदिवासी परिवार, जिन्होंने अपनी जमीन आइजोल के लेंगपुई एयरपोर्ट बनने में गॅवा दी थी, 1990 के दशक में तीन बार विस्थापित हुए। यही हाल कर्नाटक के सोलिगा आदिवासियों का हुआ, जिन्हें वर्ष 1970 में काबिनी बाँध निर्माण के कारण उजड़ने के बाद फिर से राजीव गाँधी नेशनल पार्क के कारण उजड़ना पड़ा। यही कहानी दुहराई गई है मंगलौर पोर्ट के कारण विस्थापित हुए कई मछुआरे परिवारों के साथ, जो 1980 के दशक में कोंकण रेलवे की वजह से फिर से उजाड़े गए। आजादी के बाद बाँध, सड़क, एयरपोर्ट, खनिज खनन, बिजली और नेशनल पार्क आदि के नाम पर बनी विकास परियोजनाएं आम तौर पर गरीबों और विशेषकर आदिवासियों के विस्थापन का कारण बनीं। छत्तीसगढ़ में बसने वाले उड़िया भाषियों में से अधिकांश, जो पहले हाथ रिक्शा चलाकर और अब ऑटो चलाकर और महिलाएं, जो घरेलू सेविकाओं के रूप में अपना जीवन यापन करती हैं, इसी तरह ओडीशा से विस्थापित होकर छत्तीसगढ़ में बसे हैं। विस्थापन के इन तमाम मामलों में विकास के अधिकार की अंतर्राष्ट्रीय संधि (1987), जनजातीय समुदायों के अधिकारों की उद्घोषणा (2008) और अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की संधि क्रमांक 107 व 169 का पालन नहीं हुआ।
आजादी के बाद वर्ष 2000 तक इन विकास परियोजनाओं के कारण प्रभावित लोगों की संख्या 6 करोड़ तक पहुँचती है। भारत में आदिवासी समुदायों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति, शिक्षा और स्वास्थ्य के स्तर का ऑकलन करने के लिए गठित एक उच्च स्तरीय कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार, तकरीबन 25 प्रतिशत आदिवासी अपने जीवन में कम-से-कम एक बार विकास परियोजनाओं के कारण विस्थापन का शिकार होते हैं। इन विकास परियोजनाओं के कारण विस्थापित होने वाले लोगों में जनजातीय समुदाय के लोगों की संख्या 47 प्रतिशत है। अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग ने पाया है कि वर्ष 1951-80 के बीच हुए कुल विस्थापन में दलितों की आबादी लगभग 20 प्रतिशत थी।
झारखंड की जनसंख्या में लगभग 30 प्रतिशत आदिवासी हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, आजादी के बाद से वर्ष 2000 तक यहाँ लगभग 65 लाख लोग विस्थापित हुए हैं। इसमें खनन के कारण 25.50 लाख, बड़ी सिंचाई परियोजनाओं के कारण 16.40 लाख, कारखानों के कारण 12.50 लाख और अभयारण्यों के कारण 11 लाख लोग विस्थापित हुए हैं। विस्थापितों में आधी से ज्यादा आबादी आदिवासियों की हैं। इसी प्रकार, आंध्र प्रदेश में आदिवासियों की आबादी उसकी कुल आबादी का मात्र 6 प्रतिशत है, लेकिन विस्थापितों में उनकी हिस्सेदारी 30.19 प्रतिशत थी। ओडीशा में उनकी आबादी 22 प्रतिशत है, लेकिन 40.38 प्रतिशत आबादी विस्थापन का शिकार हुई है। केरल व कर्नाटक में उनकी आबादी मात्र 1-1 प्रतिशत ही है, लेकिन यहाँ भी कुल विस्थापितों में बहुतायत आदिवासियों का ही है।
देश के लगभग 60 प्रतिशत वनाच्छादित हिस्से जनजातीय इलाकों में हैं। जिन 58 जिलों में वनाच्छादन 67 प्रतिशत से ज्यादा है, उनमें से 51 जिले आदिवासीबहुल हैं। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के अध्ययन के अनुसार, सर्वाधिक खनिज उत्पादन करने वाले कुल जिलों में 50प्रतिशत जिले आदिवासी बहुल हैं। इन जिलों में वनाच्छादन भी, राष्ट्रीय औसत 20.9 प्रतिशत से ज्यादा, 28 प्रतिशत है। ओडीशा, झारखंड व छत्तीसगढ़ में देश के कुल कोयला भंडार का 70 प्रतिशत, लौह अयस्क का 80 प्रतिशत, बॉक्साइट का 60 प्रतिशत तथा क्रोमाइट का लगभग 100 प्रतिशत हिस्सा मौजूद है। बाँध निर्माण के बाद इन खनिजों का अंधाधुंध खनन व दोहन विस्थापन की एक बड़ी वजह है।
एक अनुमान के अनुसार, आजादी के बाद से वर्ष 2000 तक इन विकास परियोजनाओं के कारण गरीबों को ढाई करोड़ हेक्टेयर जमीन छोड़नी पड़ी है, जिसमें 70 लाख हेक्टेयर वन भूमि भी शामिल है। वर्ष 2000 के बाद प्राकृतिक संसाधनों को लूटने और उसे कारपोरेटों के हवाले करने के लिए नव उदारवादी नीतियों को जिस निर्ममता से लागू किया गया है, इसके कारण विस्थापन और भूमि से गरीबों के अलगाव की प्रक्रिया में दुगुनी तेजी आई है। लेकिन इस दौर में अब आँकड़े उजागर नहीं किए जा रहे हैं और इन्हें हर संभव तरीके से छुपाने की ही कोशिश की जा रही है। एक उदाहरण- छत्तीसगढ़ में जशपुर जिले में गुल्लू में ईब नदी पर 131 करोड़ रुपयों की लागत से हाइड्रो-इलेक्ट्रिक पॉवर प्लांट प्रस्तावित है। इसके लिए 381 किमी. जमीन अधिग्रहित होगी। इसमें 3,299 हेक्टेयर शासकीय जमीन, 24,867 हेक्टेयर निजी और 5,105 हेक्टेयर वन भूमि शामिल है। कंपनी के अनुसार, इस पूरी परियोजना से केवल चार गाँवों के 38 परिवार ही प्रभावित होंगे, जबकि वास्तव में इसके कारण 22 गाँवों में रहने वाले 1476 परिवारों के 9471 आदिवासी सीधे तौर पर प्रभावित हो रहे हैं।
जबरन भूमि अधिग्रहण
इस विस्थापन का सीधा प्रभाव आदिवासियों के बीच बढ़ती भूमिहीनता पर पड़ा है। जनजाति समुदायों से जुड़े लगभग 80 प्रतिशत लोग अर्थव्यवस्था के प्राथमिक क्षेत्र-कृषि-में कार्यरत हैं। वर्ष 2001 में खेती करने वाले आदिवासियों की संख्या 68 प्रतिशत से घटकर 45 प्रतिशत रह गई थी, जबकि खेतिहर मजदूरों की संख्या 20 प्रतिशत से बढ़कर 37 प्रतिशत हो गई थी। इसके अलावा लाखों आदिवासियों ने अनौपचारिक श्रम बाजार का रुख किया है। इससे आदिवासियों के बीच बढ़ती भूमिहीनता का पता चलता है।
विकास परियोजनाओं के नाम पर भूमि का जबरन अधिग्रहण तो होता है (जबरन इसलिए कि कोई भी अपनी जमीन स्वेच्छा से नहीं देना चाहता, क्योंकि भूमि अधिग्रहण के बाद मुआवजा, जमीन, रोजगार और पुनर्वास मिलने की कोई गारंटी नहीं होती)। लेकिन उद्योग लगने की कोई गारंटी नहीं होती। छत्तीसगढ़ में कोरबा, रायगढ़, बिलासपुर और चांपा-जांजगीर जिलों में पिछले दो दशकों में हजारों एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया गया है, लेकिन जिस औद्योगिक प्रयोजन के लिए भूमि का अधिग्रहण किया गया था, आज तक पूरा नहीं हुआ है। बस्तर के लोहंडीगुड़ा क्षेत्र में टाटा के स्टील प्लांट के लिए तत्कालीन भाजपा सरकार द्वारा सुरक्षा बलों का दुरुपयोग करते हुए बंदूक की नोंक पर (जी हाँ, अक्षरशः बंदूक की नोंक पर) 5000 हेक्टेयर भूमि का अधिग्रहण किया गया था और आदिवासियों से सहमति पत्र पर अँगूठे लगवाए गए थे। कईयों ने इस अधिग्रहण का विरोध करते हुए मुआवजा नहीं लिया और अपना प्रतिरोध जारी रखा। अंततः टाटा को वापस जाना पड़ा, लेकिन भाजपा सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून के प्रावधानों के अनुसार मूल भूस्वामियों को जमीन लौटाने के बजाय उसे लैंड बैंक में रख दिया। यह चुनावी मुद्दा बना और भाजपा की हार के बाद कांग्रेस सरकार आने पर ही जमीन की वापसी संभव हो पाई।
सलवा जुड़ूम
इसी दौरान छत्तीसगढ़ के दक्षिण बस्तर में भाजपा सरकार द्वारा सलवा जुडूम अभियान प्रायोजित किया गया, जिसका नेतृत्व विपक्ष के कांग्रेस के आदिवासी नेता महेंद्र कर्मा ने किया। उन्हें भाजपा मंत्रिमंडल का 16वां मंत्री माना जाता था। इस अभियान को नक्सलविरोधी अभियान के रूप में प्रचारित किया गया, लेकिन वास्तव में इसका उद्देश्य बस्तर की प्राकृतिक संपदा की कारपोरेट लूट सुनिश्चित करने के लिए आदिवासी गाँवों को खाली कराना था। इसके लिए हिंसक अभियान चलाया गया। कई गाँवों में आगजनी की गई, सैकड़ों आदिवासी ग्रामीणों की हत्या की गई और सैकड़ों आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया। इस प्रकार, हजारों आदिवासियों को अपना घर-गाँव-जमीन छोड़कर शहरों में सड़क किनारे सुरक्षा बलों के साए में रहने के लिए मजबूर किया गया। यहाँ उनके लिए न तो कोई रोजगार था और न ही आजीविका का कोई अन्य साधन। पूरे बस्तर में सुनियोजित रूप से अराजकता का माहौल बनाया गया और कानून व संविधान की खुले आम धज्जियां उड़ाई गई। इन हिंसक घटनाओं की सीबीआई जाँच, मानवाधिकार आयोग और अनुसूचित जनजाति आयोग की जाँच में यह साबित हो चुका है कि यह सब प्रशासन के संरक्षण में किया गया, लेकिन आज तक किसी भी जिम्मेदार अधिकारी के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हुई है। इस अभियान पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ही रोक लग पाई।
सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायाधीशों बी.सुदर्शन रेड्डी तथा सुरिंदर सिंह निज्जर ने जिस सवाल की विस्तृत विवेचना की थी, वह थी- ‘‘क्या सत्ताधारी नीति-निर्माता संविधान के दर्शन, मूल्यों और सीमाओं से निर्देशित हो रहे हैं?’’ (पैरा-16). इस सवाल की विवेचना ने भाजपा और कांग्रेस की उन जनविरोधी नीतियों को बेनकाब कर दिया, जो नक्सलवाद के दमन के नाम पर आमतौर पर आदिवासियों के दमन, उनके मानवाधिकारों के हनन तथा बस्तर की भूगर्भीय संपदा की लूट के लिए अपनाई जा रही है। अपने निर्णय में कोर्ट ने योजना आयोग द्वारा गठित विशेषज्ञों के समूह की ‘उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में विकास की चुनौतियां’ नामक रिपोर्ट को उद्धृत किया है ‘‘इस कारण इन्हें अनिवार्य रुप से विस्थापन का सामना करना पड़ा है और ये एक तरह से उप-मानवीय (या सामान्य मनुष्यों से बदतर) जिंदगी जीने को मजबूर हो गए हैं। खासतौर पर आदिवासियों के मामले में इसका प्रभाव बहुत ज्यादा नकारात्मक रहा है। इसने उनके सामाजिक संगठन, सांस्कृतिक पहचान और संसाधनों को नष्ट किया है। … इन सबका मकसद इनके संसाधनों पर कब्जा करना और वंचित लोगों की गरिमा का हनन करना है।’’ (पैरा-6). प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमित भादुड़ी के हवाले से विकास के इस प्रतिमान को ‘विकास आतंकवाद’ करार देते हुए कोर्ट ने उद्धृत किया है, ‘‘इसमें राज्य के विकास के नाम पर गरीबों के खिलाफ लगातार हिंसा की जा रही है। राज्य मुख्य रुप से कारपोरेट अभिजात तंत्र के हित में काम कर रहा है। इस काम में इसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के साथ ही साथ स्वार्थी राजनैतिक वर्ग का समर्थन भी मिला हुआ है। राजनीतिक समूहों द्वारा इस विकास आतंकवाद को ही प्रगति बताया जा रहा है। … ‘विकास आतंकवाद’ का सामना करने वाले गरीब भी अपने सीधे प्रतिरोध से इसे नकार देंगे।’’ (पैरा- 14).
देश के कथित विकास के लिए और प्राकृतिक संसाधनों के प्रभुत्वशाली वर्ग के पक्ष में दोहन तथा ऊँची विकास दर सुनिश्चित करने के लिए जो नीतियां अपनाई जा रही हैं, उससे वंचितों और उपेक्षितों तथा मानवीय गरिमा से च्युत लोगों की संख्या बहुत बड़े पैमाने पर बढ़ी है। जिस ऊँची आर्थिक संवृद्धि तथा विकास दर की बात की जा रही है, उसने केवल और केवल आय के असमान वितरण को ही सुनिश्चित किया है। पूरे देश में चल रहे भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया और इसके खिलाफ जनांदोलनों से भी यही बात स्पष्ट होती है। यही ‘वैश्वीकरण का काला पक्ष’ है, जो संपन्न तबकों के चंद लोगों के लिए अधिकांश वंचितों और इनमें से लगभग सभी आदिवासी, दलितों तथा आर्थिक रुप से कमजोर तबके के लोग ही हैं, की बलि माँगता है। इसीलिए कोर्ट की टिप्पणी है कि भारतीय राज्य ने ‘‘जिस झूठे विकास प्रतिमान को बढ़ावा दिया है, उसका कोई मानवीय चेहरा नहीं है।’’ (पैरा- 14) और ‘‘राज्य ने सीधे तौर पर संवैधानिक मानकों और मूल्यों का उल्लंघन करके पूँजीवाद के लुटेरे रूपों को समर्थन और बढ़ावा दिया है।’’ (पैरा- 12) तथा ‘‘निश्चित तौर पर ये नीतियां उन सिद्धांतों का उल्लंघन करती हैं, जिन्हें ‘गवर्नेंस की बुनियाद’ माना जाता है।’’ (पैरा- 13).
इसीलिए छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार द्वारा प्रायोजित सलवा जुडूम के संदर्भ में यह सवाल प्रासंगिक था कि क्या भाजपा सरकार शासन के लिए संविधान द्वारा निर्देशित मूल्यों और उसकी सीमाओं का पालन कर रही है? सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट मानना था ‘नहीं’, क्योंकि उसकी नीतियां और कारगुजारियां संविधान के अनुच्छेद-14 (कानून के समक्ष समानता) और अनुच्छेद-21 (मानव जीवन की गरिमा) का उल्लंघन करती है और यह उल्लंघन बहुत बड़े पैमाने पर किया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ के लोगों के मानवाधिकारों के उल्लंघन के लिए माओवादियों/नक्सलियों तथा राज्य सरकार और उसकी मशीनरी दोनों को जिम्मेदार माना है। (पैरा- 5). लेकिन कोर्ट ने भाजपा सरकार के इस दावे को स्पष्ट रुप से ठुकरा दिया था कि नक्सलियों के दमन के नाम पर ‘‘उसे संविधान से यह अधिकार मिला हुआ है कि वह लगातार तथा अंतहीन रुप से मानवाधिकारों का गहरा उल्लंघन करे। … वह चाहे तो इसके लिए माओवादी/नक्सलवादी चरमपंथियों के तरीकों को भी अपना सकता है।’’ (पैरा- 6). उसने छत्तीसगढ़ सरकार की इस माँग को भी ठुकरा दिया कि संवैधानिक व्यवस्था को स्थापित करने के लिए उसके पास एकमात्र विकल्प यही है कि वह दमन के सहारे शासन करे और इसके लिए बेरहम हिंसा की नीतियों को लागू करने के लिए उसे संवैधानिक मान्यता दी जाए। इसीलिए कोर्ट ने अपने फैसले में राज्य के बहुत से इलाकों में मौजूद अमानवीय स्थिति तथा मानवाधिकारों के बारे में सवाल पूछने वाले हर व्यक्ति को संदिग्ध और माओवादी या माओवादियों के हमदर्द के रुप में देखे जाने के भाजपाई सरकार के नजरिए को भी खारिज किया है। (पैरा- 4).
लूट का अभियान जारी
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के बाद सलवा जुडूम अभियान रुक गया, लेकिन बस्तर में प्राकृतिक संसाधनों की लूट का अभियान आज भी जारी है चाहे सरकार भाजपा की हो या कांग्रेस की। इस लूट के खिलाफ आदिवासियों के प्रतिरोध और जनवादी आंदोलन को कुचलने के लिए बड़े पैमाने पर बस्तर का सशस्त्रीकरण किया गया है और आज हर दो किमी. पर एक छावनी स्थापित है। ये छावनियां आदिवासियों से उनकी कृषि भूमि और वन भूमि को जबर्दस्ती छीनकर स्थापित की गई है। प्राकृतिक संसाधनों की कॉरपोरेट लूट, आदिवासी अधिकारों का दमन और हनन तथा उनके अमानवीय विस्थापन के कारण छत्तीसगढ़ में वर्ष 2011 की जनगणना में आदिवासियों की जनसंख्या में 1.25 प्रतिशत से ज्यादा की गिरावट दर्ज की गई है।
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय स्पष्ट रूप से यह कहता है कि राज्य और देश के नागरिकों के जान माल की रक्षा करने की जिम्मेदारी सरकार की है, न कि किसी संविधानेत्तर सत्ता की। इस प्राथमिक जिम्मेदारी से कोई भी सरकार मुँह नहीं मोड़ सकती। लेकिन इस फैसले की कांग्रेस और भाजपा दोनों ने आलोचना की थी और दिवंगत भाजपा नेता अरुण जेटली ने तो इसे ‘‘विचारधारा पर आधारित निर्णय’’ करार दिया था। अब यदि भाजपा और उसके विकल्प का दावा करने वाली कांग्रेस दोनों एक ही पक्ष में खड़े हैं, तो स्पष्ट है कि वैचारिक-नीतिगत स्तर पर वे एक ही धरातल पर, लुटेरे पूँजीवाद के साथ खड़े हैं। संविधान जाए भाड़ में! सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय हालाँकि सलवा जुडूम अभियान के संदर्भ में दिया था, लेकिन प्राकृतिक संसाधनों की कारपोरेट लूट और राज्य सत्ता के साथ उसके गठबंधन की जिस अमानवीय प्रक्रिया और इसके कारण आदिवासियों और उनके सांस्कृतिक जीवन के नष्ट होने को रेखांकित किया है, वह पूरे देश के लिए सही है।
हाले हीरे
बस्तर के बाद अब हम छत्तीसगढ़ के एक दूसरे आदिवासीबहुल जिला कोरबा की बात करते हैं, जो प्राकृतिक संसाधनों में संपन्न होने के बावजूद विकास सूचकांक में देश के पिछड़े जिलों में शामिल है। घने वनों से घिरे इस जिले में काले हीरे (कोयला) की प्रचुरता के कारण सन 1960-61 से कोयला खदानों के अलावा बिजली प्लांट सहित अन्य उद्योग भी स्थापित होते चले गए। लेकिन इस औद्योगिक विकास ने विस्थापन की समस्या को भी जन्म दिया, जिसका शिकार यहाँ के किसानों और आदिवासियों को होना पड़ा है और उनके परिवार की दशा-दिशा में सुधार आने के बजाय उनकी जिंदगी और बदतर होती चली गई। गाँव की जमीन और जंगलों को उद्योग-कारखानों ने निगल लिया है और प्रभावित गाँवों में पानी, बिजली, सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी समस्याओं से आम जनता जूझ रही है। यहाँ के विस्थापित परिवार बेरोजगारी और गरीबी के साथ जीवन बसर करने को मजबूर हैं। ऊपर से पर्यावरण विनाश और फैलते प्रदूषण की वजह से जानलेवा बीमारियों ने उनके जीवन की औसत आयु को आधे से भी कम कर दिया है।
कोयला खदान परियोजनाओं में वर्ष 1962 से अब तक 62 से अधिक गाँवों की जमीन का अधिग्रहण किया गया है, जिससे लगभग 20000 से ज्यादा खातेदारों की जमीन अधिग्रहित हुई है, लेकिन केवल 40 प्रतिशत लोगों को ही एसईसीएल ने नियमित रोजगार प्रदान किया है। पहले एसईसीएल की नीति भूमि के एक छोटे-से टुकड़े के बदले रोजगार देने की थी, लेकिन प्रभावित परिवारों को उसने तब भी रोजगार नहीं दिया। बाद में यह नीति बदलकर न्यूनतम दो एकड़ भूमि के अधिग्रहण पर एक रोजगार देने की बना दी गई। इससे अधिग्रहण से प्रभावित अधिकांश किसान रोजगार मिलने के हक से वंचित हो गए।
कोयला खदानों के अस्तित्व में आने के बाद विस्थापित किसानों और उनके परिवारों की सुध लेने की सामाजिक जिम्मेदारी को किसी सरकार और खुद एसईसीएल ने आज तक पूरा नहीं किया है। औद्योगिक विकास की अवधारणा में प्रभावित किसान परिवारों के लिए कोई जगह ही नहीं थी। खानापूर्ति के लिए कुछ लोगों को रोजगार और पुनर्वास दिया गया है, लेकिन आज भी हजारों भूविस्थापित किसान, जिनमें से अधिकांश आदिवासी हैं, जमीन अधिग्रहण के बाद रोजगार और पुनर्वास के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अब केंद्र और राज्य सरकार की कारपोरेटपरस्त नीतियों के कारण यह संघर्ष और कठिन हो गया है, क्योंकि ये नीतियां गरीबों की आजीविका और प्राकृतिक संसाधनों पर सीधे हमले कर रही है। इन कारपोरेटपरस्त नीतियों के कारण कुछ लोग मालामाल हो रहे हैं, तो अधिकांश जिंदा रहने की लड़ाई लड़ रहे हैं। इसलिए विस्थापन के खिलाफ और रोजगार के लिए संघर्ष इस देश में चल रहे एक व्यापक राजनैतिक संघर्ष का एक हिस्सा है और इन सरकारों की कॉरपोरेटपरस्त नीतियों को बदलकर ही इसे जीता जा सकता है।
आंदोलन
कोरबा में अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा ने एक अन्य स्थानीय संगठन भूविस्थापित रोजगार एकता संघ के साथ मिलकर इस संघर्ष को अपने दैनिक जीवन के एक हिस्से के रूप में आगे बढ़ाने की कोशिश की है। उनकी घोषणा है कि यह आंदोलन तब तक जारी रहेगा, जब तक सभी खातेदार भूविस्थापितों को रोजगार के लिए नियुक्ती पत्र नहीं मिल जाता और पिछले तीन सालों से वे अनिश्चितकालीन धरना दे रहे हैं। वास्तव में इस तरह के लंबे आंदोलन की प्रेरणा उन्हें संयुक्त किसान मोर्चा के आंदोलन से मिली है। इस बीच 6 बार खदान बंद आंदोलन भी किया गया, एसईसीएल के कई बड़े अधिकारियों का घेराव किया गया है और उनके कार्यालय के कमरों में धरना दिया गया है, रास्ता जाम किया गया है, अधिकारियों और मंत्रियों के पुतले जलाए गए हैं। इन आंदोलनों के चलते सोलह आंदोलनकारियों को जेल भी भेजा गया है। लेकिन दमन के आगे न झुकते हुए आंदोलन जारी है।
इस आंदोलन के दबाव में ही कम जमीन, डबल अर्जन और रैखिक संबंध के मामले में एसईसीएल को कोरबा जिले में अपने नियमों को शिथिल करना पड़ा है और भूविस्थापितों के लंबित रोजगार प्रकरणों पर कार्यवाही शुरू करने के लिए मजबूर होना पड़ा है। अब अर्जन के बाद जन्म के मामले में विस्थापितों के पक्ष में फैसला देने के लिए प्रबंधन के खिलाफ संघर्ष तेज करने का फैसला किया गया है। विस्थापितों का तर्क बहुत ही स्पष्ट है कि यदि भूमि अधिग्रहण के साथ ही रोजगार देने की प्रक्रिया पूरी कर ली जाती, तो आज उन्हें रोजगार के मुद्दे पर आंदोलन नहीं करना पड़ता। इसलिए पुरानी नीति से मुआवजा और नई नीति से रोजगार की एसईसीएल की पेशकश किसानों को स्वीकार नहीं है।
कई भूविस्थापित परिवारों के बच्चों ने एमबीए, इंजीनियरिंग जैसी उच्च शिक्षा भी हासिल कर ली है। लेकिन एसईसीएल की पॉलिसी है कि आप कितने भी पढ़े-लिखे हों, जमीन अधिग्रहण के बाद कंपनी में कैटेगरी-1 मजदूर को ही नौकरी मिलेगी। एसईसीएल की ऐसी रोजगार नीति भेदभावपूर्ण है। जमीन अधिग्रहण के कारण किसानों की आजीविका का एकमात्र साधन खेती छिन गया है, इसके कारण विस्थापित किसानों की आर्थिक स्थिति काफी खराब है। जिन गाँवों का पूर्व में अधिग्रहण किया गया है, उन्हें आज तक पुनर्वास की सुविधा नहीं मिली है। जिन भूविस्थापितों को कहीं बसाया भी गया है, उन्हें 40 वर्षों के बाद भी उस जमीन का पट्टा या मालिकाना हक नहीं दिया गया है, जिससे सरकार की कई योजनाओं का लाभ पाने से वे वंचित है।
जमीन की जमाखोरी
कोरबा जिले में कोयला परियोजना के लिए सन 1962 से ही जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है। किंतु आज भी कई गाँवों में उक्त अधिग्रहित भूमि पर किसानों का ही भौतिक कब्जा है, क्योंकि कोल इंडिया ने न तो इस जमीन पर खनन कार्य किया है और न ही इसे अपने कब्जे में लिया है। इसे सरकार और कंपनी द्वारा जमीन की जमाखोरी भी कहा जा सकता है। कई खदानें बंद हो गई हैं। बहुत-सी जमीन ऐसी है, जिसमें खनन कार्य पूरा हो चुका है। ऐसी जमीनों को मूल खातेदार किसानों को वापस करने से एसईसीएल इंकार कर रहा है। इसके अलावा, खनन और डी-पिल्लरिंग के कारण लोगों के घर और खेत भी बर्बाद हुए हैं। अपने संघर्षों के जरिए उन्होंने खेती-किसानी को हो रहे नुकसान की वार्षिक भरपाई करने के लिए एसईसीएल को बाध्य किया है।
उद्योगों के नाम पर भूमि अधिग्रहण के बाद गरीब सड़क पर आ जाते हैं, क्योंकि सरकार और कंपनी रोजगार, पुनर्वास और मुआवजा संबंधी अपनी जिम्मेदारियों को पूरा नहीं करती। भूविस्थापित इतने गरीब होते हैं कि कोर्ट नहीं जा सकते, क्योंकि उनके पास इतने पैसे ही नहीं होते। इसके अलावा सालों साल अदालतों में मामले लंबित रह जाते हैं और फैसले उनके पक्ष में नहीं आते। ऐसी परिस्थितियों में गरीबों के पास जमीनी संघर्ष के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता।
हसदेव अरण्य
छत्तीसगढ़ में हसदेव अरण्य को बचाने के लिए चल रहे आंदोलन ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा है। ये जंगल 1.70 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में फैले हुए हैं और वर्ष 2014 से ही पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) द्वारा ‘‘नो गो एरिया’’ घोषित किया जा चुका है, जहाँ तमाम खनन गतिविधियां प्रतिबंधित होती हैं, लेकिन राज्य और केंद्र के विभिन्न अधिकारियों द्वारा समय-समय पर इसकी अनदेखी की गई है। पिछले वर्ष 2022 में जारी अलग-अलग रिपोर्टों में, जिसमें भारतीय वानिकी अनुसंधान और शिक्षा परिषद (आईसीएफआरई) और भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्लूआईआई) की रिपोर्टें प्रमुख हैं, दोनों ने इस क्षेत्र में खनन परियोजना का इस आधार पर कड़ा विरोध किया है कि इससे हसदेव नदी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, मानव-हाथी संघर्ष बढ़ेगा और बहुमूल्य जैव-विविधता को नुकसान पहुँचेगा। इसके अलावा, ‘‘छत्तीसगढ़ का फेफड़ा’’ माने जाने वाले इन जंगलों के अस्तित्व के बिना छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और उत्तर भारत में संतुलित वर्षा की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
भारतीय वन्य जीव संस्थान (डब्लूआईआई) ने कोयला खनन से वनों में रहने वाले समुदायों के जीवन और आजीविका पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव पर भी प्रकाश डाला था। इस रिपोर्ट के अनुसार, गैर-काष्ठ वनोपज (एनटीएफपी) यहाँ रहने वाले आदिवासी परिवारों की नकद आय में लगभग 46 प्रतिशत का योगदान देती है। ईंधन की लकड़ी, चारा, औषधीय पौधे, पानी और अन्य संसाधन, जो स्थानीय समुदायों को जंगलों से प्राप्त होते हैं, अगर उनका मुद्रीकरण किया जाता है, तो उनकी आय में 15 से 25 प्रतिशत की अतिरिक्त वृद्धि होती है। इस प्रकार, यहाँ रहने वाले आदिवासी परिवारों की आजीविका का 60-70 प्रतिशत तक वनों पर ही निर्भर है। चूंकि खनन और संबंधित वनों की कटाई की गतिविधियों से केवल कारपोरेट घराने को लाभ मिलता है और स्थानीय समुदायों को तथाकथित विकास में कोई हिस्सेदारी मिलने के बजाए मिलता है केवल विस्थापन, भूमि और आय की हानि तथा विभिन्न प्रकार के संसाधनों तक पहुँच की हानि। इसलिए आदिवासी ऐसी परियोजनाओं के खिलाफ विद्रोह करते हैं, जो भारी पारिस्थितिक विनाश का कारण बनती हैं।
एक अनुमान के अनुसार, हसदेव के जंगलों में 5 अरब टन कोयला मौजूद है, जो कारपोरेटों को उनके मुनाफे के लिए ललचाते हैं। यहाँ के कोल ब्लॉक राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम को आवंटित किए गए हैं, जिसे उसने एमडीओ के जरिए अडानी को सौंप दिए हैं। वर्ष 2014 में केंद्र में भाजपा सरकार के आने के बाद से ही तमाम कानूनों को कमजोर किया गया है और नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए खनन प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की कोशिश की गई है। पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) नियमों में जो हालिया संशोधन किए गए हैं, उसके जरिए सरकार और कारपोरेट घराने, ईआईए और उचित पारिस्थितिक प्रबंधन योजना के बिना ही, परियोजना क्षेत्रों को सुविधाजनक रूप से पुर्नपरिभाषित करके इन समुदायों के प्राकृतिक रहवास को नष्ट कर सकते हैं। वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 में वर्ष 2023 के संशोधन ने भी हसदेव जैसे संरक्षित वन क्षेत्रों को नष्ट करने के काम को सुगम बनाया है और वर्ष 2006 के वन अधिकार अधिनियम के तहत वनों में रहने वाले समुदायों के अधिकारों को कम कर दिया है।
पिछली कांग्रेस सरकार ने केंद्र की भाजपा सरकार के साथ मिलकर हसदेव क्षेत्र में अडानी के हितों को आगे बढ़ाने का प्रयास किया था और दो दिनों तक विद्युत आरियों से हसदेव का सीना छीला गया था। स्थानीय आदिवासी समुदायों, प्रदेश और देश की पर्यावरण प्रेमी और आदिवासी हितों के प्रति संवेदनशील जनता और बाहरी दुनिया के जबर्दस्त विरोध के बाद कांग्रेस शासन को हसदेव अरण्य की कटाई पर रोक लगानी पड़ी। इसके बाद छत्तीसगढ़ विधानसभा में 26 जुलाई, 2022 को एक सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित किया, जिसमें हसदेव-अरण्य के क्षेत्र को खनन मुक्त क्षेत्र के रूप में चिन्हित किया गया था। जुलाई 2023 में छत्तीसगढ़ सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा भी दायर किया था, जिसमें कहा गया था कि इस क्षेत्र में किसी भी नए खनन रिजर्व को आवंटित करने या उपयोग करने की इजाजत नहीं है। इसके बावजूद, विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत के तुरंत बाद फिर से हसदेव को उजाड़ने की कोशिश की गई। इसका फिर जबर्दस्त ‘‘नागरिक प्रतिवाद’’ हुआ और हसदेव पर चलाई जा आरियों को बॉक्स में बंद करना पड़ा। हसदेव और आदिवासी समुदाय को बचाने की लड़ाई, धरती और प्रकृति को बचाने की लड़ाई जारी रहेगी, क्योंकि कुल मिलाकर यह मनुष्यता को बचाने की लड़ाई है।
प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिए कारपोरेटों का केंद्र और राज्य की सत्ता के साथ गठजोड़ बहुत खुलकर सामने आ चुका है और अब यह बात मायने नहीं रखती कि सरकारें किसकी हैं। इस लूट को आसान बनाने के लिए तमाम वन कानूनों को और संविधान प्रदत्त आदिवासी अधिकारों को कमजोर किया गया है, तोड़ा-मरोड़ा गया है। वन संरक्षण कानून, 1980 में ऐसे कारपोरेटपरस्त बदलाव किए गए हैं कि अब विकास परियोजनाओं के नाम पर, बगैर किसी जन सुनवाई और पर्यावरण ऑकलन प्रभाव के, वन भूमि को हड़पना और उसका निजीकरण आसान हो गया है। इन बदलावों ने आदिवासी वनाधिकार कानून की ‘‘सर्वाेच्चता’’ को भी कमजोर किया है।
वनाधिकार कानून में निहित इस प्रावधान का कहीं पालन नहीं हुआ है कि विकास परियोजनाओं को क्रियान्वित किए जाने से पूर्व वहाँ रहने वाले आदिवासी समुदायों के व्यक्तिगत और सामूहिक अधिकारों को मान्यता देते हुए उसे स्थापित किया जाएगा। इसके बजाय, उदाहरण के रूप में सरगुजा और हसदेव क्षेत्र में, यह तथ्य सामने आया है कि जहाँ आधे-अधूरे ढंग से व्यक्तिगत वनाधिकार पत्रक बाँटे भी गए हैं, अडानी की खनन परियोजनाओं के लिए या तो प्रशासन ने उसे छीन लिया है या फिर अडानी के प्रबंधकों ने खरीद लिया है, जबकि वनाधिकार कानून में वनाधिकार पत्रकों को खरीदने/बेचने का कोई प्रावधान ही नहीं है। 13 दिसंबर, 2005 से पहले वन भूमि पर काबिज जिन आदिवासियों को प्रशासन ने विस्थापित किया था, उनके अधिकारों को स्थापित करने का एक भी प्रकरण अभी तक देखने को नहीं मिला है।
पेसा कानून
आदिवासी अधिकारों की रक्षा की दिशा में पेसा कानून एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है, जिसमें यह प्रावधान है कि 5वीं अनुसूची के अंतर्गत आने वाले आदिवासी क्षेत्रों में किसी भी विकास परियोजना को क्रियान्वित किए जाने से पूर्व प्रभावित क्षेत्रों की ग्राम सभाओं की सहमति अनिवार्य होगी। हसदेव और बस्तर में कारपोरेटों ने ‘‘फर्जी ग्राम सभाओं’’ को दर्शाकर खनन की अनुमति प्राप्त कर ली। इन फर्जी सहमतियों को प्राप्त करने में राज्य सरकार का संरक्षण और प्रशासन से साठगाँठ बहुत ही स्पष्ट है। इस संबंध में हसदेव के ग्रामीणों का तर्क बहुत ही सीधा और सरल है, जब वे कहते है, ‘‘यदि ग्राम सभा की सहमति ही फर्जी है, तो इस आधार पर प्राप्त खनन की कोई भी अनुमति अवैध ही होगी, फिर उस पर प्रधानमंत्री के दस्तखत हो या राष्ट्रपति के। हमारे जंगलों को खत्म करने की अनुमति हम नहीं देंगे, अपनी आखिरी साँस तक लड़ेंगे।’’ पिछली कांग्रेस सरकार ने इस कानून के लिए जिन नियमों को सूत्रबद्ध किया, उसमें आदिवासियों की ‘‘सहमति’’ की जगह ‘‘परामर्श’’ रखा गया है और इसके बाद निर्णय लेने का अंतिम अधिकार कलेक्टर को सौंप दिया गया है। यह सरासर कारपोरेटपरस्त नियम है और अवैध है, क्योंकि किसी भी कानून के क्रियान्वयन के लिए बनाए गए नियम मूल कानून के प्रावधानों का उल्लंघन नहीं कर सकते।
मोदी राज के इन दस वर्षों में हिंदुत्व की ताकतों के साथ कारपोरेट ताकतों का गठबंधन मजबूत हुआ है। हिंदुत्व की ताकतें आदिवासियों के जीवन-मूल्य और उनकी संस्कृति को अपने में समाहित करके उनका समूचा हिंदूकरण करना चाहती है। कारपोरेट ताकतें उनके प्राकृतिक संसाधनों पर अपना कब्जा जमाना चाहती हैं। दोनों का समान लक्ष्य है आदिवासी क्षेत्र। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वे हर संभव तरीके से आदिवासियों की एकता को तोड़ना चाहते हैं। इसके लिए वे इन क्षेत्रों में ईसाई आदिवासियों पर हमले कर रहे हैं और उनके खिलाफ हिंदू आदिवासियों को लामबंद कर रहे हैं। संघी गिरोह की अगुआई में ईसाई आदिवासियों का सामाजिक बहिष्कार किया जा रहा है, उनके घरों पर हमला और महिलाओं को बेइज्जत करने के हथियार का उपयोग किया जा रहा है और मृतकों को उनकी निजी भूमि में भी दफनाने से रोका जा रहा है। प्रशासन का इतना संप्रदायीकरण हो चुका है कि वह पीड़ितों के नागरिक और मानवाधिकारों की रक्षा करने से ही इंकार कर रहा है। प्रशासन के संरक्षण में घर वापसी का अभियान चलाया जा रहा है। छत्तीसगढ़ के बस्तर में ईसाई आदिवासियों पर संघी गिरोह के नफरती हमलों के कारण सैकड़ों आदिवासियों को अपने घरों और गाँवों से विस्थापित होना पड़ा है। भाजपा राज आने के बाद विस्थापन की इस प्रक्रिया में और तेजी आई है।
इस प्रकार, विकास आतंकवाद केवल कमजोरों की बलि माँगता है, ताकि सामर्थ्यवानों को और ज्यादा बलशाली बनाया जा सके। विकास की यह प्रक्रिया हर साल मुट्ठी भर अरबपति पैदा कर रही है, जिसकी चमकती छवि मीडिया के जरिए पेश की जाती है। लेकिन वहीं करोड़ों लोगों को अमानवीय और नारकीय जीवन की ओर भी धकेलती है, जिसे उनकी किस्मत बताया जाता है। यह विकास आतंकवाद वही प्रक्रिया है, जिसके जरिए विश्व इतिहास में नीग्रो समुदाय का कत्लेआम किया गया था। आम तौर पर, नव उदारीकरण की प्रक्रिया लागू किए जाने के बाद से और खास तौर पर, मोदी राज के दस वर्षों में आदिवासियों का कत्लेआम तेज हुआ है।
लेकिन भारत में आदिवासियों का इतिहास भी अपने शोषण और विस्थापन के खिलाफ विद्रोह और संघर्ष का इतिहास है। आज जब आजाद भारत के ‘‘अमृतकाल!’’ में बड़े पैमाने पर उनके अधिकारों पर हमले किए जा रहे हैं और उनको अपने रहवास से विस्थापित करने की साजिशें की जा रही है, अपने जीवन-अस्तित्व की रक्षा के लिए आज फिर वे संघर्ष के मैदान में हैं। लेकिन इस बार वे अकेले नहीं हैं, मेहनतकशों के विशाल संयुक्त संघर्षों का हिस्सा है। इस समझ का विकसित होना अहम बात है कि आदिवासियों की मुक्ति मेहनतकशों की मुक्ति से ही संभव है। देशव्यापी संयुक्त किसान आंदोलन ने मुक्ति की इस लड़ाई को देश के राजनैतिक एजेंडे पर लाकर खड़ा कर दिया है।

संजय पराते
रायपुर, छत्तीसगढ़
संजय पराते
रायपुर, छत्तीसगढ़

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