“तराई में बंगाली विस्थापित समाज की बसावट को लेकर बहुत भ्रम हैं। साख तौर पर 80 के बाद की पैदाइश वाली पीढ़ी में। तमाम लोग मानते हैं कि बंगाली लोग शरणार्थी बनकर 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद भारत आए और तत्कालीन सरकार ने तराई में जगह-जगह उन्हें पुनर्वास दिया। लेकिन यह बड़ा भ्रम है।
1947 में विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान से बंगाली लोग बहुतायत में तभी पश्चिम बंगाल आ गए थे और तमाम कैम्पों में टिकने के बाद 1951 में तराई में आए। दिनेशपुर देश में बंगाली विस्थापित समाज की पहली बसावट है। 1951_52में दिनेशपुर में बंगालियों की 36 कॉलोनियां बसाई गयीं। इसके बाद देश के अन्य 22 राज्यों में बंगाली शरणार्थियों का बेतरतीब पुनर्वास हुआ।
दिनेशपुर, रुद्रपुर का ट्रांजिट कैम्प, स्वर्गफार्म, शक्तिफार्म 1960 तक अस्तित्व में आ चुके थे। इसमें कोई शक नहीं कि बड़ी आबादी बंगाली समाज की 1965 में पूर्वी पाकिस्तान में हुए भीषण दंगों के बाद 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद भी भारत आयी। लेकिन वे अमूमन भूमिहीन हैं, जिनके पास आज भी रहने के अलावा कोई जगह नहीं है।
बांग्लादेश बनने के बाद बंगाली तराई में आए, यह एक बड़ा भ्रम है। जिस करण अन्य समुदाय के तथाकथित लोग बंगालियों को संदिग्ध मानते हैं, उनसे दूरी बनाए रहते हैं। यदा-कदा बंगालियों को घुसपैठिया भी कह देते हैं। जानकारी का अभाव है उनके पास। छिन्नमूल इस भ्रम के अलावा तमाम भ्रांतियों को दूर करती है।”
काशीपुर भाजपा जिलाध्यक्ष #गुंजन_सुखीजा जी से आज इस विषय पर लम्बी बातचीत हुई। उनकी तमाम आशंकाओं को मैंने क्लियर किया। वे बंगाली समाज के बारे में विस्तार से जानने को उत्सुक थे। बोले, “छिन्नमूल पढ़कर बहुत से सवालों का जवाब मिलेगा। वास्तव में तराई में बसे बंगाली समाज की जानकारी कहीं नहीं मिलती है। छिन्नमूल अच्छा दस्तावेज है, उनके लिए जिन्हें बंगाली समाज की बसावट के बारे में जानकारी नहीं है।”
गुंजन सुखीजा जी किताब पढ़कर मुझसे फिर बात करेंगे, ऐसा उन्होंने कहा है।
मैं अब छिन्नमूल के दूसरे संस्करण में जुट गया हूं। मार्च 2024 तक दूसरा संस्करण प्रकाशित हो जाएगा।
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धन्यवाद आप सभी का!