आखिरकार ढीला हुआ पितृसत्ता का शिकंजा

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भारत की संसद में महिला आरक्षण विधेयक पास करने में 27 साल लग गए। नए संसद भवन में पहले ही दिन इतिहास बना, जब लोकसभा, राज्यों की विधानसभाओं और केंद्रशासित दिल्ली की विधानसभा में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करने का नारी शक्ति वंदन विधेयक पेश हुआ और अगले ही दिन 20 सितंबर 2023 को 128 वें संविधान संशोधन के तहत सर्वानुमति से पास हो गया। महिला आरक्षण से जुड़े तीनों विधेयकों के विरोध में सिर्फ दो वोट पड़े, जबकि समर्थन में 454… भारत की संसद में किसी विधेयक पर बरसों बाद ऐसी सर्वानुमति बनी। अगले ही दिन राज्यसभा में मौजूद सभी 214 सांसदों ने इसके पक्ष में मतदान किया। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होते ही यह बिल कानून बन जाएगा। राज्यसभा में आमराय भी ऐतिहासिक है। लेकिन महिलाओं को अब भी 2029 तक इसके लिए इंतजार करना पड़ेगा। क्योंकि इससे पहले जनगणना होगी और उसके आधार पर सीटों का परिसीमन होगा। तब जाकर कहीं महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें तय होंगी।
राजीव गाँधी ने सबसे पहले पंचायतों में महिलाओं के आरक्षण की बात कही थी, लेकिन इसके लिए वे कानून नहीं बना सके। 1992 में नरसिम्हा राव की कांग्रेस सरकार ने पंचायत स्तर पर महिलाओं को 33 प्रतिशत का आरक्षण का कानून बनाया, लेकिन यही आरक्षण संसद और विधानसभाओं में लागू करने के लिए आम राय बनाने में तीन दशक से ज्यादा वक्त लग गया। कानून बनने के बाद भी 2024 के लोकसभा चुनाव में लागू नहीं होगा, क्योंकि इससे पहले जनगणना होगी, फिर सीटों का परिसीमन होना है। 2029 के लोकसभा चुनाव तक यह प्रक्रिया पूरी होगी, इसमें भी संदेह है। 2025-26 में जनगणना होनी है। पिछले परिसीमन में पाँच साल लगे थे। इस हिसाब से 2031 की जनगणना के बाद परिसीमन हो
जाने पर ही इसे लागू किए जाने की
संभावना है।
शुरू से इस मुद्दे पर महिला सांसदों ने एकजुटता दिखाई है, लेकिन पुरुष सांसदों की ओर से अड़चनें आती रहीं। अब जाकर कहीं पितृसत्ता का शिकंजा ढीला हुआ। हर क्षेत्र में महिलाओं के नेतृत्व के समय में राजनीति में कब तक उन्हें आगे बढ़ने से रोका जा सकता था?
1996 में लोकसभा और विधानसभाओं में महिला आरक्षण के लिए जब एच.डी. देवगौड़ा की सरकार ने लोकसभा में विधेयक पेश किया तो हर पार्टी के पुरुष सदस्य इसके खिलाफ थे, जिन्हें अपनी सीटें गॅवाने का डर था। फिर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार भी कोशिश करके हार गई। 2008 में
डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार ने इस विधेयक को राज्यसभा में पेश किया। विरोध के चलते इसे स्टैंडिंग कमेटी के पास भेज दिया गया। अंततः 2010 में राज्यसभा में यह विधेयक पारित हो गया। लेकिन गठबंधन सहयोगी लालू यादव और मुलायम सिंह यादव के ओबीसी कोटे पर अड़ जाने से कांग्रेस की सरकार इसे लोकसभा में पेश नहीं कर सकी। इस बार सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी तक ने ओबीसी कोटे की माँग कर दी। समाजवादी पार्टी, राजद और जदयू जैसे दल तो पहले से एससी, एसटी और ओबीसी कोटे की माँग कर रहे थे। कांग्रेस ने पार्टी लाइन से हटकर न सिर्फ ओबीसी कोटे की माँग की, बल्कि जातिगत जनगणना की माँग भी उठाई।
सत्ता पक्ष के प्रचंड बहुमत और मजबूत होते जा रहे महिला वोट बैंक के मद्देनजर विपक्षी दल इस बार नहीं अड़े और न कोटे के बहाने महिला आरक्षण कानून के रास्ते में बाधक बने। मानना ही होगा कि यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ऐतिहासिक जीत है। समर्थन के अलावा विपक्ष के सामने कोई दूसरा विकल्प नहीं था। राज्यसभा में बिल पास होने के बाद सभी महिला सांसदों ने संसद के गेट पर खड़े होकर प्रधानमंत्री का आभार जताया। उनकी इस एकजुटता के खास मायने निकल सकते हैं।
राजनीतिक आंदोलनों में आजादी की लड़ाई के समय से महिलाएं बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती रही हैं, लेकिन
पितृसत्तात्मक समाज उन्हें राजनीतिक नेतृत्व के योग्य नहीं समझता। राजनीतिक दलों के नेतृत्व, संसद, विधानसभा, सरकार में महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व देने से सामंतवादी सोच के शीर्ष नेता हमेशा बचते रहे हैं। जबकि 1966 में ही प्रधानमंत्री बनकर श्रीमती इंदिरा गाँधी ने साबित कर दिया था कि महिलाएं देश दुनिया का नेतृत्व बखूबी कर सकती हैं। मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री और राष्ट्रपति के पद पर भी महिलाएं मजबूत नेतृत्व देती रहीं। लेकिन दूसरी महिलाओं को राजनीति में आगे बढ़ाने में इन कामयाब महिलाओं की कितनी भूमिका रही है, यह विचारणीय है। पितृसत्तात्मक सोच के लिए स्त्रियां भी कम जिम्मेदार नहीं हैं।
2022 के विधानसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने 40 प्रतिशत टिकट महिलाओं को दिए, लेकिन सीटें मिलीं, सिर्फ दो। वहीं, इससे पहले बंगाल में 2021 के विधानसभा चुनावों में ममता बनर्जी ने 40 प्रतिशत टिकट महिलाओं को देकर प्रचंड बहुमत हासिल करते हुए भाजपा को कड़ी शिकस्त दी। पितृसत्ता और सामंतवाद का वैचारिक विरोध करनेवाले वामपंथी दलों ने चुनावों में कितनी महिलाओं को टिकट दिए हैं? वामदलों के पोलित ब्यूरो और केंद्रीय कमेटियों, राज्य कमेटियों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व क्या है? यह सही है कि दक्षिण भारत, पूर्वी भारत और पूर्वोत्तर में महिलाओं को जितनी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आजादी है, हिंदी पट्टी के उत्तर भारत में उतनी आजादी महिलाओं को नहीं मिलती। हिंदी पट्टी में जिला परिषद, पंचायत, नगरपालिका और टाउन एरिया में चुनाव जीतने वाली महिलाओं के नाम राज चलाते हैं उनके परिवार के सदस्य, पति, पिता, पुत्र, ससुर जैसे परिजन। फिर भी बाकी देश में और उत्तर भारत में भी जहाँ भी स्त्रियों को कमान मिली है, वे ज्यादा निष्ठा, दक्षता और मेहनत के साथ काम करती देखी गई हैं। इसके उलट प्रधानपति, प्रधानपुत्र, चेयरमैन पति के कामकाज देख लीजिए। पंचायती राज के जरिए बड़े पैमाने पर इन थोक अपवादों के बावजूद राजनीतिक, प्रशासनिक काम के लिए महिलाएं पिछले तीन दशकों में तैयार हो गई हैं। उन्हें अब रोका नहीं जा सकता है। रोक सकते हो तो रोक लो!
भारतीय समाज में हजारों सालों से स्त्रियों को कोई अधिकार नहीं दिए गए। आजादी के बाद भी स्त्री सशक्तीकरण की गति धीमी रही। लेकिन जैसे ही स्त्रियों को घर से निकलने की आजादी मिली, उन्हें पढ़ने-लिखने का मौका मिला, आर्थिक तौर पर वे आत्मनिर्भर होने लगीं, जीवन के किसी भी क्षेत्र में उनकी उड़ान देख लीजिए। भारतीय राजनीति में जिन स्त्रियों को मौका मिला, उन्होंने अपने को साबित भी किया है। उम्मीद है कि लोकसभा और विधानसभा में महिला आरक्षण के बाद प्रधानपति, सरपंच पति, चेयरमैन पति की परंपरा भी टूटेगी। लेकिन सांसद पति और विधायक पति की परंपरा चल पड़ी तो क्या होगा?
राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मु ने इसे परिवर्तनकारी क्रांति कहा है। उन्होंने कहा है, ‘‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम लैंगिक न्याय के लिए सर्वाधिक परिवर्तनकारी क्रांति है। स्थानीय निकायों के चुनावों में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण सुनिश्चित है। यह अधिक सुखद
संयोग है कि राज्य विधानसभाओं व लोकसभा में भी महिलाओं को समान आरक्षण प्रदान करने का प्रस्ताव आकार ले रही है।’’
थोड़ा इंतजार और करें। 2029 के बाद देश में लोकसभा और विधानसभाओं की तस्वीरें बदल जाएंगी। अभी तक राज्यसभा और विधान परिषद महिला आरक्षण के दायरे से बाहर हैं। लेकिन जब लोकसभा और विधानसभाओं में एक-तिहाई सदस्य महिलाएं होंगी तो यह दायरा भी टूटेगा। फिलहाल महिलाओं को राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मामले में हम वैश्विक स्तर पर तो पिछड़े हैं ही, अपने पड़ोसियों से भी आगे नहीं निकल सके हैं। संसद के निचले सदन में महिलाओं के प्रतिधितित्व के मामले में भारत विश्व के 193 देशों में 153 वें स्थान पर हैं। आश्चर्यजनक रूप में लंबे समय तक गृहयु( की आँच में झुलसने वाले अफ्रीकी देश रवांडा की संसद में महिलाओं की संख्या सबसे ज्यादा है। इंटर पार्लियामेंटरी रिपोर्ट के मुताबिक रवांडा की संसद के निचले सदन में 61 प्रतिशत महिलाएं हैं। डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन, फिनलैंड, आइसलैंड और फैरो में संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व ज्यादा है। संयुक्त राज्य अमेरिका की संसद में 23 प्रतिशत तो इंग्लैंड में 32 प्रतिशत महिलाएं हैं।
अंतर संसदीय संघ के अनुसार दुनिया में आधा दर्जन देश ऐसे हैं, जहाँं 2022 तक संसद में महिलाओं का 50 प्रतिशत प्रतिनिधित्व है। इनमें एक देश न्यूजीलैंड है। क्यूबा, निकारागुआ, मेक्सिको, रवांडा और संयुक्त अरब
अमीरात अन्य देश हैं। विश्वस्तर पर संसदों में औसतन 26 प्रतिशत महिलाएं हैं। भारतीय निर्वाचन आयोग के नवीनतम आँकड़ों के अनुसर अक्टूबर 2021 तक महिलाएं भारतीय संसद के कुल सदस्यों के 10.5 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व कर रही थीं। 17वीं लोकसभा के लिए 78 महिलाएं चुनी गईं। लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व इसवक्त 15.5 प्रतिशत है और राज्यसभा में मात्र 13 प्रतिशत। भारत की सभी विधानसभाओं को एक साथ देखंे तो महिला विधायकों का राष्ट्रीय औसत मात्र 9 प्रतिशत है। आजादी के 75 वर्षों में भी लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 15 प्रतिशत से आगे नहीं बढ़ा है। महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में हम पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल से भी पीछे हैं। इन आँकड़ों के साथ महिलाओं को आरक्षण के इस कदम को देखा जाए तो यह हर मामले में ऐतिहासिक कदम है।
महिला आरक्षण लागू होने के बाद लोकसभा की 453 सीटों में 181 सीटों पर महिलाएं बैठेंगी। लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटें आरक्षित हैं। इन आरक्षित सीटों में से एक- तिहाई सीटें अब महिलाओं के लिए आरिक्षत होंगी। इस समय लोकसभा की 131 सीटें एससी-एसटी के लिए आरक्षित हैं। महिला आरक्षण कानून लागू हो जाने की स्थिति में इनमें से 43 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी। इसका मतलब यह भी हुआ कि महिलाओं के लिए आरक्षित 181 सीटों में से 138 ऐसी होगीं, जिन पर किसी भी जाति की महिलाओं को उम्मीदवार बनया जा सकेगा।
संसद और विधानसभाओं की लैंगिक तस्वीरें बदल जाएंगी तो हमारे सामाजिक ढाँचा और पिृसत्तात्मक सामंती व्यवस्था में इसका कितना असर होगा, अब असल चुनौती यही है।

पलाश विश्वास
कार्यकारी सम्पादक

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