तराई में बसे बंगाली विस्थापित समाज की आपबीती
भाग-12
दंगा पूर्वी पाकिस्तान से नहीं, कोलकाता से शुरू हुआ: विधुभूषण अधिकारी
-रूपेश कुमार सिंह
रुद्रपुर विधानसभा क्षेत्र के ग्राम बसन्तीपुर निवासी 81 वर्षीय बुजुर्ग विधुभूषण अधिकारी का जन्म 1940 में पूर्वी पाकिस्तान के सातखीरा-कालीगंज थाना के अन्तर्गत बैलेडांगा हुसैनपुर गाँव में हुआ था। उनकी स्मृति के अनुसार गाँव बहुत बड़ा था। पूरव में 50-55 मुसलमानों के घर थे, शेष पूरा गाँव कपाली और कायस्थ बंगालियों का था। बंगाली परिवारों की संख्या एक हजार के पार रही होगी। गाँव में नमोःशूद्र बंगाली नहीं थे। ब्राहमणों के महज दो परिवार थे। कर्मकाण्ड व पूजापाठ के लिए ब्राहमण परिवार को आनगाँव से लाकर बसाया गया था। वे बताते हैं कि कायस्थों में सेन, सिंह, गुहा, मित्रा, नंदी, घोष, बोस, दत्ता, बख्सी, चौधरी आदि थे। बंगाली कायस्थो में 72 उपजातियां हैं। 11 वीं सदी तक बंगाल में जाति और वर्ण व्यवस्था नहीं थी। पाल वंश तक बंगाली बौद्ध थे। लोग शिव और काली की पूजा करते थे। बंगाल में काफी बाद में कर्म के आधार पर जाति का विभाजन हुआ। फिर भी बंगाल में बाकी भारत की तरह वर्ण व्यवस्था आज भी लागू नहीं है। क्योंकि बंगालियों में क्षत्रिय वर्ण के राजपूत (ठाकुर) कभी नहीं हुए। कायस्थ ठाकुरों के स्थान पर थे। वे बताते हैं कि पाँच सौ साल पहले 16 वीं सदी में चैतन्य महाप्रभु के आन्दोलन के बाद विष्णु पूजा बंगाली समाज में शुरू हुई। इसी के साथ जाति और वर्ण व्यवस्था जटिल होती गयी।
विधुभूषण अधिकारी बताते हैं कि चाचा सुधीर कुमार अधिकारी नेवी से रिटायर होने के बाद खुलना आकर बस गये थे। 1946 में विभाजन की आशंका के मद्देनजर पिता दुर्गापद अधिकारी भी परिवार सहित खुलना आ गये। कोलकाता में दंगे के बाद पूरे बंगाल में मार-काट होने लगी। 1948 में दंगे के बीच पिता खुलना से ट्रेन पकड़कर हम सभी को लेकर सीधे कोलकाता सियालदह स्टेशन पहुँच गये। तब बार्डर खुला था माइग्रेशन सर्टिफिकेट का प्रचलन भी नहीं था। बार्डर स्लिप से उनके परिवार का बतौर शरणार्थी रजिस्ट्रेशन हुआ। वे बताते हैं कि माँ का निधन पूर्वी पाकिस्तान में गाँव में ही हो गया था, उनकी शिशु अवस्था में ही। बच्चे कैसे पलेंगे, इसकर माँ के मरने के बाद ही पिता ने दूसरी शादी कर ली। तब गाँव में ग्राम पंचायत की तर्ज पर यूनियन होती थी। यूनियन के मार्फत ही राशन, कपड़े इत्यादि बँटते थे। गाँव में यूनियन की जड़ें बहुत मजबूत थीं। यूनियन की मंजूरी के बगैर कुछ भी करना संभव नहीं होता था। स्थानीय स्तर पर लोक जीवन के संचालन में यूनियन के निमय-कानून ही अहम थे। वे बताते हैं कि पिता की दूसरी शादी के वक्त फटिक विश्वास यूनियन के अध्यक्ष थे। जो मुसलमान थे। दूसरी माँ के लिए उन्होंने ताँत की साड़ी की जगह थान का कपड़ा जो विधवाओं को दिया जाता था, दे दिया। इस पर फटिक विश्वास से पिता का बहुत झगड़ा हुआ और अन्ततः पिता को गाँव छोड़ना पड़ा। खुलना आने की यह भी एक अहम वजह थी।
खुलना तब भी बड़ा शहर था। अब भी खुलना ढाका और चटगाँव के बाद तीसरा बड़ा शहर है। खुलना में जमींदारों का वर्चस्व था। पूरे शहर में बाबू संस्कृति थी। वे बताते हैं कि खुलना में अंग्रेजों ने जमींदारों की जमीन किसानों को देना शुरू कर दिया था, इससे डरकर जमींदार देश छोड़कर भारत आ रहे थे। 1948 तक वहाँ अंग्रेज मौजूद थे। उन्होंने जमींदारों के किसानों पर अत्याचार व उत्पीड़न की घटनाएं देखी तो नहीं, लेकिन अपने बड़ों से सुनी बहुत हैं। खुलना संस्कृति नगरी थी। उस जमाने में खुलना में उल्लासिनी, वाणी व लीला नाम के तीन सिनेमा हाल थे। उल्लासिनी के मैनेजर विजय कृष्ण दास के किराये के मकान में उनका परिवार रहता था। महेन्द्र बाबू जमींदार थे और वे रिक्शा किराये पर देने का कारोबार भी करते थे। पिता उन्हीं के वहाँ काम करते थे। वहाँ की देख-रेख व हिसाब-किताब रखना पिता के जिम्मे था। पिताजी गाँव में मिठाई बनाने के कुशल कारीगर थे, लेकिन वे चाहकर भी खुलना में मिठाई की दुकान न खोल सके, कारण आर्थिक अभाव था। दूसरी जगह हलवाई का काम उन्होंने किया नहीं। भारत आने के बाद बशीरहाट में पिता ने मिठाई का काम शुरू किया।
वे बताते हैं कि खुलना सुन्दरवन का दरवाजा माना जाता है। खुलना और बरिशाल जिले सुन्दरवन के डेल्टा प्रदेश में थे। जिस तरह पश्चिम बंगाल का 24 परगना गंगा के मुहाने पर बसा हुआ है, उसी तरह पद्मा नदी का ढाका और फरीदपुर के बीच ब्रहमपुत्र के संगम और उसमें फिर मधुमती और मेघना नदियों के विलय के बाद बनी विशाल नदी पद्मा और बंगाल की खाड़ी के मुहाने पर बसे सुन्दरवन इलाके की असंख्य नदियों, झीलों वाले डेल्टा में खुलना और बरिशाल जिले हैं। अब खुलना के सातखीरा और बागेरहाट सबडिवीजन भी अलग जिले बन गये हैं। बरिशाल के भोला और फिरोजपुर सबडिवीजन भी जिले बने। असम और त्रिपुरा में ज्यादातर लोग कुमिल्ला, चटगाँव और नोआखाली के हैं। जैशोर का सबडिवीजन वनगाँव भारत में शामिल हुआ। भारत के सीमांत पर बसे होने के कारण कुष्ठिया और जैशोर के लोग ज्यादातर सम्पत्ति विनिमय के आधार पर बंगाल में ही बस गये। राजशाही, ढाका और फरीदपुर के भी ज्यादातर लोग बंगाल में आ गये। बाकी भारत में बसे खासकर उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश में बसे अधिकांश शरणार्थी सुन्दरवन के इन्हीं दो जिलों से हैं।
विधुभूषण की स्मृति में वह घटनाक्रम दर्ज है, जब भद्रलोक, जमींदार और नौकरीपेशा लोग विभाजन से पहले कोलकाता और पश्चिम बंगाल बस गये थे। लेकिन अपढ़ किसानों व मजदूरों को देश विभाजन से पहले और बाद भी हालात का सही अंदाजा नहीं था। 1947 क्या 1971 के बाद भी वे अपनी जमीन छोड़कर आने को तैयार नहीं थे। जिसकी उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी। वे बताते हैं कि आजादी से पहले पूर्वी बंगाल में कोई साम्प्रदायिक तनाव नहीं था। दुर्गापूजा और ईद अमन चैन और भाईचारे से एक साथ मनायी जाती थी। लोगों में सद्भाव था। 15 अगस्त, 1947 की घोषणा के बाद अफरातफरी मच गई। मुर्शिदाबाद और मालदह में पाकिस्तान के झण्डे फहरा दिये गये, तो खुलना और चटगाँव में भारत के झण्डे। तब तक भी इन दोनों जनपदों में कोई हिंसा व तनाव नहीं था। स्कूल खुले थे। आवागमन सामान्य था। लोग रोजमर्रा की तरह अपने काम-धंधे में लगे थे। वे बताते हैं कि उस दिन वे स्कूल में थे और खुलना के भारत में शामिल रहने का जश्न मनाया जा रहा था। सड़क पर नौजवान जुलूस निकाल रहे थे। बंगाली हिन्दुओं में उत्साह था। हिन्दुस्तान जिन्दाबाद के नारे लग रहे थे।
अगले दिन सुबह पता चला कि मुर्शिदाबाद और मालदा भारत में शामिल किये गये हैं, इसके एवज में हिन्दू बहुल खुलना पाकिस्तान को दे दिया गया है। एकाएक माहौल बदल गया। फौरन भारत के झण्डे उतार कर पाकिस्तान का झण्डा चढ़ा दिया गया। फ़िजा में नफरत घुलने लगी थी, बावजूद इसके खुलना में हिंसा नहीं फैली। लोगों को उम्मीद थी कि खुलना पर पुनर्विचार होगा और खुलना जनपद फिर से हिन्दुस्तान में शामिल हो जाएगा और तूफान थम जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। खुलना से हिन्दुस्तान का झण्डा एक दिन में ही उतर गया, लेकिन मालदा और मुर्शिदाबाद में पाकिस्तान का झण्डा हटाने में सात दिन लग गये। वहाँ हिंसा पनप गयी। कोलकाता के आलम बाजार में पहला दंगा हुआ, जिसकी आग पूरे पश्चिम बंगाल और पूर्वी पाकिस्तन तक फैली। वे बताते हैं कि वास्तव में दंगा पूर्वी पाकिस्तान से नहीं, बल्कि कोलकाता से शुरू हुआ। बिहारी मुसलमानों ने पहले मालदह और मुर्शिदाबाद में हंगामा किया, जब यह क्षेत्र भारत में ही रहेगा तय हो गया, तब बिहारी मुसलमान पूर्वी पाकिस्तान भाग आये और उन्होंने ही हिन्दू बंगालियों को अपने देश से बाहर भारत आने पर मजबूर किया। वे बताते हैं कि दरअसल 1946 में कोलकाता में मुस्लिम लीग के पाकिस्तान की माँग पर डायरेक्ट एक्शन से ही पश्चिम बंगाल में बड़े पैमाने पर दंगे शुरू हो गये थे। कोलकाता और हावड़ा के अलावा अविभाजित 24 परगना, नदिया, हावड़ा जिले में भारी मारकाट शुरू हो गयी। जिससे बिहारी मुसलमान पूर्वी बंगाल पहुँचने लगे थे।
दो दशक तक पूर्वी पाकिस्तान में हिन्दू बंगालियों के लिए अनिश्चितता का माहौल रहा। लाखों की तादात में बंगाली समाज रिफ्यूजी बन कर पश्चिम बंगाल आया। पश्चिम बंगाल की सरकार व खुद बंगाली समाज ने शरणार्थियों को स्वीकार नहीं किया। जिस कारण लाखों विस्थापितों को एक जगह समुचित पुनर्वास की जगह, देश के अलग-अलग राज्यों के जंगलों में मरने के लिए छोड़ दिया गया। वे कहते हैं कि उनका परिवार 1948-50 तब कई बार इस उम्मीद से भारत से पूर्वी पाकिस्तान वापस गया कि वहाँ हालात सामान्य हो जायेंगे और अपनी जमीन, घर, काम-धंधा नहीं छोड़ना होगा। इधर भारत के शरणार्थी शिविर भी कब्रगाह से कम नहीं थे। कैम्पों में तिल-तिल के मरने से बेहतर लगा वापस खुलना लौट जाना। अन्ततः 1950 में महीना तो याद नहीं, लेकिन ठंड का मौसम था। पिता परिवार सहित हावड़ा के नजदीक घुसुड़ी कैम्प में भर्ती हो गये। 21 दिन यहाँ रहने के बाद मायानदी और महानदी के बीच कटक के पास ओड़ीसा के चौरबेटिया कैम्प में भेज दिया गया। दूसरे विश्व युद्ध में यह क्षेत्र आर्मी का कैम्प रहा था। ब्रिटिश और जापान के बीच युद्ध के तमाम अवशेष वहाँ थे। गोली-बारूद, दुर्घटनाग्रस्त हैलीकाप्टर और क्षतिग्रस्त बंकर मैजूद थे। वहाँ बीहड़ जंगल में जीवन को गति देना आसान नहीं था।
बंगाली शरणार्थी 1950-56 तक इस कैम्प से उस कैम्प चक्कर काटते रहे। बेहतर आशियाने की तलाश में। कुछ लोग थक हार के जहाँ-तहाँ बसने भी लगे। बड़ी आबादी और बेहतर की तलाश में यायावर बनी रही। वे बताते हैं कि 1951 में पिता के पता चला कि नैनीताल का क्षेत्र जहाँ बंगालियों को बसाया जा रहा है, वह अन्य क्षेत्रों से अच्छा है। तुरन्त पिता जी नैनीताल के विजयनगर कैम्प में आ गये। उनके साथ 360 परिवार और इधर आये। वे बताते हैं कि 1951 में तराई जनपद ऊधम सिंह नगर में बंगालियों की 36 कॉलोनियां बसायी गयीं। आज यह सब बड़े गाँव का रूप ले चुकी हैं। 1951 में मोतीपुर एक, मोहनपुर एक, पिपलिया एक और दो, खानपुर एक, हरिदासपुर, शिवपुर, आनन्दखेड़ा एक, दिनेशपुर, चन्दननगर, राधाकान्तपुर, दुर्गापुर, अमृतनगर, चितरंजनपुर बंगाली गाँव अस्तित्व में आये। 1952 में उदयनगर, पंचाननपुर, कालीनगर, नेतानगर, प्रफुल्लनगर, बसन्तीपुर, चण्डीपुर बसे। 1954 में सरकार ने जमीन आवंटन रोक दिया और रजिस्टेशन बंद कर दिये। जिसके खिलाफ तराई के विस्थापित बंगाली समाज ने रुद्रपुर में पहला आन्दोलन किया। उदयनगर के शरतगिरी, बसन्तीपुर की सरला विश्वास, कालीनगर के हरिपद दास ने आमरण अनशन किया। कमान पुलिन विश्वास ने संभाली हुई थी। तब पुनर्वास अधिकारी शंकर सिंह थे। उन्होंने बंगाली समाज के आन्दोलन का दमन किया और लोगों खूब धमकाया। संघर्ष तेज हुआ तो पुनः रजिस्ट्रेशन और जमीन आवंटन शुरू हुआ।
वे बताते हैं कि इसी साल पिता जी को बसन्तीपुर में आठ एकड़ जमीन अलार्टमेंट हुई। पुलिन बाबू समाज के अगुवा थे। उनकी पत्नी बसन्ती विश्वास के नाम से ही गाँव का नाम बसन्तीपुर रखा गया। उस समय बसन्तीपुर से ही देश में बंगालियों को पुनर्वास देने और बंगाली विस्थापितों के हक हकूक के लिए रणनीति तय होती थी। तब गाँव में मान्दार मण्डल, अतुल चन्द्र शील, शिशुवर मण्डल, रामेश्वर ढाली, हरिपद ढाली, पुलिन कुमार विश्वास, लीडर थे। वे बताते हैं कि जाफरपुर से दिनेशपुर तक सड़क 1956 तक कच्ची थी। आस-पास के गाँव में भी सड़कें नहीं थीं। 1956 के बाद आन्दोलन के बाद कुछ-कुछ जगह खड़ंजे पड़ने लगे थे। बाकी की जन सुविधाएं दिनेशपुर क्षेत्र में 1960 के बाद ही शुरू हुईं। वे बताते हैं कि बंगाली समाज मिठाई खासतौर पर रसगुल्ले को बहुत पसंद करता है। बंगाली मिठाई बनाने वाले इस क्षेत्र में गिने चुने कारीगर थे। पिता जी मिठाई बनाने में माहिर थे। तराई में बसने के बाद उन्होंने मिठाई की दुकान खोली जो 1995 तक दिनेशपुर में रही। विधुभूषण बताते हैं कि 1962 में उनकी शादी हुई। जमीने गाँव से दूर थीं। चारों तरफ जंगल था। दलदली जमीन थी। जंगली जानवरों का आतंक था। जोत तैयार करना मुश्किल था। बड़े-बड़े पेड़ों की जड़ों को खोदकर जमीन खेतीयोग्य बनायी गयी। जिसमें दो दशक की कड़ी मेहनत लगी। सिंचाई के साधन नहीं थे। नहर और गूल से पानी लेने को लेकर आपस में संघर्ष हो जाता था।
वे बताते हैं कि उनका सिनेमा और जात्रागान (नाटक) करने व देखने का बड़ा मन होता था। तब रुद्रपुर सिब्बल सिनेमा तम्बू में चलता था। 6-9 और 9-12 रात में दो शो चलते थे। हम लोग ग्रुप बनाकर पैदल ही सिनेमा देखने रुद्रपुर जाते थे। कई बार रास्ते में दुर्घटना भी घटी। सिनेमा देखकर लौट रहे शिवपुर निवासी सुभल को बाघ ने हमला करके मौत के घाट उतार दिया था। बाजार गदरपुर में था। जानवरों का बाजार केलाखेड़ा में शुक्रवार के दिन लगता था। बाजार आना जाना आम नहीं था। कुछ-कुछ लोग झुंड बनाकर बाजार जाते थे, यही लोग गाँव के अन्य लोगों के लिए जरूरत का सामान भी ले आते थे। कारण जंगली जानवरों का आतंक और बंगालियों को बांग्ला के अलावा कोई भाषा न आना व स्थानीय वातावरण व भौगोलिक स्थितियों से बंगाली समाज परिचित नहीं था। वे बताते हैं कि बसन्तीपुर की बसासत 36 परिवारों के अलार्टमेंट से शुरू हुई थी। बंगाली लोग संस्कृति प्रेमी होते हैं। इसलिए बांग्ला संस्कृति को तराई में भी सींचने के लिए सभी बंगाली गाँव के लोक कलाकार एक साथ आये। हरिपद मण्डल, महेन्द्र सरदार, कार्तिक साना, अक्षय सरदार, हरिपद गाइन, हाजूसाना, अवनी मिस्त्री बसन्तीपुर गाँव में जात्रागान के उम्दा रंगकर्मी थे। गाँव की जात्रागान टीम क्षेत्र में हमेशा अव्वल रहती थी। इसके अलावा अन्य गाँवों से चन्द्रकान्त मण्डल, निखिल राय, अजय गोस्वामी, सुभाष मण्डल, डॉ अरविन्द मजूमदार, अधीर मण्डल के अलावा महिला किरदार निभाने वाले चित्तो राय, पुलिन ढाली व नारायण मण्डल आदि बंगाली समाज के बेहतरीन कलाकार थे। वे बताते हैं कि वे स्वयं प्रमोटर की भूमिका निभाते थे। ब्रजेन मास्टर म्यूजिक के मास्टर थे। खगेन्द्र मण्डल डायरेक्टर थे। तराई में बसन्तीपुर का जात्रागान ‘‘बांगालीर दावी’’ के नाम से दशकों तक खेला गया।
वे बताते हैं कि 60 के दशक तक सभी बंगाली गाँवों में जात्रागान की टीमें बन चुकी थीं। सारा दिन लोग खेत में खटते थे। रात में नाटक की रिहर्सल होती थी। दुर्गापूजा में जात्रागान की प्रतियोगिताएं होती थीं। दस दिन जश्न का माहौल रहता था। बसन्तीपुर की सांस्कृृतिक टीम तो बांग्ला लोक संस्कृति को लेकर सरकारी आयोजन में भी शिरकत करती रही। वे बताते हैं कि तब बंगाली समाज खेमेबाजी में नहीं बँटा था। आपस में सौहार्द्र था। सामाजिकता मजबूत थी। बड़े-छोटे का सम्मान था। पूरा गाँव तब कांग्रेस को वोट करता था, लेकिन अनिल विश्वास जनसंघ के समर्थक थे। बावजूद इसके गाँव में उनका बड़ा सम्मान था। आज की तरह नफरत का माहौल बिल्कुल भी नहीं था। एन डी तिवारी से गाँव को बहुत लगाव था। वे बताते हैं कि 1960 बंगाली क्षेत्र में कोई चिकित्सकीय सुविधा नहीं थी। बीमार होने पर गदरपुर के डॉक्टर रामकमल गुप्ता व रुद्रपुर के डॉक्टर सतीश रस्तोगी एक मात्र सहारा थे। दोनों डॉक्टर कभी-कभी गाँव में आकर भी उपचार करते थे। बंगाली समाज में तब वामपंथी विचार प्रचण्ड था। लक्खीकान्त बर्मन, गोवर्धन राय, बासुदेव मण्डल, सुधीर विश्वास वामपंथी नेता थे। जिन्होंने बंगालियों की जमीन बचाने और महाजनों के खिलाफ आन्दोलन किया।
विधुभूषण अधिकारी कहते हैं कि आज बंगाली समाज के रहन-सहन, आचार-व्यवहार में एक सम्पन्नता है, लेकिन लोग अपनी सांस्कृतिक जमीन से कट चुके हैं। कभी बांग्ला जात्रागान नयी पीढ़ी से बांग्ला में संवाद करने, संस्कृति के आदान-प्रदान, भाषा, बोली व शिक्षण तकनीक से जुड़ने का सबसे सशक्त माध्यम था, आज यह उपक्रम थम-सा गया है, यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
रूपेश कुमार सिंह
पत्रकार
प्रेरणा-अंशु/अनसुनी आवाज
9412946162