घर में बैठे घर से बेदखल

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विकास प्रगति की दिशा में होता परिवर्तन है जो समाज में महत्वपूर्ण सामाजिक, वैचारिक, बदलाव लाता है। यही वह केंद्रीय बिंदु है, जिस पर समाज की रूपरेखा टिकी होती है। समाज में आर्थिक रूप से प्रगति समाज का विकास है। विकसित समाज में आधुनिकता का प्रवेश अपने आप नजर आने लगता है। समृ(ि सर्वसामान्य को जमीन से उठाती, उसका हक अदा करती है।
शिक्षित समाज के ढंग, तरीके अलग होते जाते हैं और निर्भरता, नवीनता के उपयोग, फायदे और नुकसान को समझता समाज भिन्न होता जाता है। आज गाँव और शहर में विशेष अंतर दिखाई देता है। देश में शहर के अलावा भी हर क्षेत्र के सर्वांगीण विकास की अहम जरूरत नजर आती है। गाँव की आवश्यकता को देखते हुए विकासात्मक बदलाव होने चाहिए, लेकिन उसकी भी एक सीमा सुनिश्चित की जानी चाहिए।
विकास के नाम पर आधुनिकता का बोलबाला कहाँ तक सही है! कटते जंगल, टूटती झोपड़पट्टियां, बनते फ्लाईओवर, सड़कों के जाल, मोबाइल, गगनचुंबी इमारतें, फैक्टरियां, कारखाने, कंपनियां- लगभग सभी शहरों में स्तरीय बदलाव दिखाई देने लगा है। वहीं गाँव में ध्यान देने की जरूरत मुँह बाएँ खड़ी दिखाई पड़ती है। गाँव व शहरों के आपसी संबंध पर भी एक दृष्टि डाली जानी चाहिए। इनमें परस्पर संबंध स्थापित होना जरूरी है ना कि गाँव उपेक्षित पड़ा अपनी अक्षमता को कोसता रह जाए और शहर बस, अपनी धुन में विकास पाता रहे।
आज देश-विदेश में विकास के बढ़ते- फैलते कारोबार दिखाई पड़ रहे हैं। विदेश में पैसा है। साक्षरता है। उन्नति है। नौकरी, रोजगार का सुंदर भविष्य है। यही कारण है जो व्यक्ति विदेशों में खींचा चला जाता है। जिस तरह गाँव छोड़ कर लोग शहर आते हैं, शहर उन्हें विदेश का रास्ता दिखाता है। देश, समाज की प्रगति नागरिकों को अपने स्थान से जोड़ती है। जमीन से जोड़ती है। परिवार और बच्चों का विकास कौन नहीं चाहता और इसे कोई क्यों छोड़ेगा भला! एक ओर शहरी सभ्यता विकसित होती विदेश की राह ले रही है। वहीं गाँव शहर की ओर भागा जा रहा है। आर्थिक विपन्नता ने गाँव की सीमाओं में सेंधमारी की है, जहाँ से निकलकर लोग शहरों में बसने लगे हैं।
फिर भी एक वैचारिक सोच पनपती है कि यह कैसा विकास है, जो गाँव के किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर करता है? कम पैसा मिलना समझ में आता है, पर इतना कम कि इंसान आत्महत्या की ओर उन्मुख हो, चिंता का विषय है। अनाज जो शहरों में बिकता है, उसका सही मूल्यांकन, सही हिस्सा, उस किसान तक उसकी सही कीमत यदि नहीं पहुँच पा रही है तो निश्चित ही बाजार की अपनी व्यवस्था में सुधार होना चाहिए। जो घोटाले को दरकिनार कर बैलेंस को स्थान दे। तालमेल को स्थान दे। किसान के उपजाए, पैदा किए अनाज को बेच कोई करोड़ों में खेले तो किसान को आत्महत्या को मजबूर क्यों होना पड़ रहा है? आखिर यह कैसी स्थिति है, जो समाज में असमानता बो रही है!
एक कृषि प्रधान देश में विकास के नाम पर ये कैसा बदलाव है कि किसान आर्थिक रूप से विपन्न होते जा रहे हैं? जबकि बाजार फलता-फूलता दिखाई पड़ता है। व्यापारी करोड़ों के मालिकाना हक की हैसियत रखने लगते हैं। बाजार की राजनीति का यह कैसा छद्म है, जिसका कहर किसानों के कँधे छीलता है? मानसिक रूप से लहूलुहान करता है। आर्थिक सहारा खत्म करता है। व्यवस्था में गड़ी कीलें आखिर हैं कहाँ? किसको ज्यादा चुभती हैं? चुभती भी हैं तो कैसे? कितना, किसको चुभना सही है या गलत! सोचने का वक्त क्या अब तक नहीं आया? या आना बाकी है? या सोचना अब शुरू होना चाहिए कि इस मुद्दे पर गौर होना जरूरी है? व्यवस्था के नाम पर होती राजनीति ने जो स्तरीय भेदभाव ईजाद किया है, उसमें कहीं तो कोई रोक जरूरी है। बाजारीकरण के अपने नियम और दायरे समाज के लिए ही हैं। फिर भी किसान और मजदूर हमारे समाज का ही हिस्सा है। सोच का बड़ा दायरा उनके हित को नजरअंदाज ना करें, यह संतोषजनक बात होगी।
विकास के नाम पर आज आदिवासी समाज की चूलें हिल रही हैं। जंगलों, पहाड़ों, पेड़ों, गुफाओं में रहता समुदाय जंगल पर अपने अधिकार का कौन-सा बही खाता दिखाए, जो उनसे उनकी नदियों का पानी, धूप से मिलती ऊर्जा, हवा से पनपता जीवन, आकाश और जमीन छीना ना जाए! यह व्यवस्था आदिवासियों से उनकी मानसिकता, उनकी आजादी, उनका अधिकार, जमीन, घर, ग्राम सब छीन रही है। उन पर पड़ता दबाव उन्हें विकृत दिशा में ले जाने को प्रवृत्त कर सकता है। वे अपने ही घर में बैठे अपने घर का हक खो रहे हैं। जंगलों को हथियाया जा रहा है। अपनी सीमा में वे अतिक्रमण होता देख रहे हैं। विकास के नाम पर उनकी आजादी छीनी जा रही है। सभ्य समाज की संस्कृति उनके लिए उतनी ही पराई है, जितना हमारे लिए विदेश। सीमारेखा का मतलब सभी अच्छी तरह जानते हैं। आदिवासियों की अपनी सीमाएं सभ्य समाज द्वारा खत्म की जाती दिखाई दे रही हैं।
जब शिक्षा परिपक्व बनाती, मुक्त करती है तो ऐसा भी क्या हो रहा है के हम राजनीति के कुचक्र में धँसते जा रहे हैं? सर्वसामान्य के आजाद जीवन को हम मजदूरी का रास्ता दिखाते हैं। मजदूर बनाते, उन्हें खरीदते-बेचते देख रहे हैं। हम एक ऐसे समाज को जन्म दे चुके हैं, जहाँ फायदा और नुकसान की तर्ज पर इंसानियत का सौदा हो रहा है। मानवता ताक पर दिखाई पड़ती है। हम संजीदगी को डर से तौलने लगे हैं। जबकि शिक्षित हो, अंतर्निहित क्षमता को विकसित कर जिम्मेदार नागरिकों से समाज भरा पड़ा होना चाहिए। जहाँ एक व्यक्ति दूसरे की परेशानी और असुविधा से भी जुड़े। परंतु यहाँ तो फायदा उठाने का कारोबार चल रहा है। हर एक कमजोर का फायदा उठा रहा है।
स्वास्थ्य के नाम पर हमने बेहतरीन प्रगति की है। नई अति आधुनिक तकनीकों, संस्थानों, अस्पतालों से दुनिया भरी पड़ी है। फिर भी एक गरीब बिना दवाई के मरता है और एक अमीर अपना इलाज करने विदेशों में जाना सही समझता है। इसकी तह में छिपे ऊपर से नीचे तक के कनेक्शन के तारतम्य पर रोशनी पड़नी जरूरी है। उस सिस्टम का संज्ञान लेना जरूरी है, जिसमें हमारे देश और समाज की साँसें बसती हैं। स्वास्थ्य पर जब सबका हक है तो बीमारी से लाचार जिस्म समाज में किसकी नियत को आईना दिखाता है? स्वस्थ भोजन, स्वच्छ पानी, साक्षरता और नियमित चिकित्सीय जाँच हर नागरिक का अधिकार आखिर क्यों नहीं? इक्कीसवीं सदी में भी इसे क्या कल्पना का विषय समझना सही है!
विकास के नाम पर सड़कें चौड़ी होती जा रही हैं। चिकनी सपाट सड़कें बनाता यही मजदूर कोविड में गाँव की ओर जाने के लिए एक वाहन को तरस जाता है। भीड़ खुली सड़क पर गाँव की ओर पैदल निकल पड़ती है। सड़क किनारे औरतें बेदम, बच्चे बेहाल, वृ( दम तोड़ते नजर आते रहे, पर कहीं कोई संवेदना नहीं पनपी। रेल पटरी पर सोए लोग कट जाते हैं। ये कैसी व्यवस्था है, जो गरीबों की नहीं हो सकती? पैसे की भाषा सर्वप्रिय है, हर कोई समझता है, मानता है। चाहे पैसा कैसे भी कमाया गया क्यों ना हो, कोई फर्क नहीं पड़ता। बस, पैसा मिलना भर चाहिए। सारे तरीके की व्यवस्था हो जाती है। ये कैसे समाज की नींव पड़ चुकी है? जहाँ मानवता का मतलब एक दायरे में सिमटता जा रहा है और लालच, बेईमानी, जालसाजी, धोखाधड़ी, लूट, भ्रष्टाचार जीने के नियम बनते जा रहे हैं, जिस पर धूर्तता राज करती है। प्रश्न उठता है कि विकास का मतलब आखिर है क्या? निम्नस्तरीय निम्न होते जाए और उच्चस्तरीय उच्च। ये कैसी अराजकता है?
विकास जब अपनी रेखा खींच रहा हो तो क्या बात है कि चीजें हाशिए में पहुँच जाती हैं? एक वर्ग हाशिए में सिमट आता है। एक इलाका स्तर के नीचे चला जाता है। एक गाँव नक्शे में दिखाई नहीं पड़ता। देश की स्थिति का सही अंदाजा छुप जाता है। जितने आँकड़ें दिखते हैं, वो सच नहीं होते। सच होने का ढोंग कर रहे होते हैं। चीजें साफ नजर नहीं आतीं। छुपने और छुपाने में फर्क दिखाई पड़ता है। बनना और बना दिया जाना दिखता है। यही होना जरूरी लगता है कि जानवरों और इंसान में फर्क हो। यह बात अलग है कि कई घरों में पशु भी सुरक्षित हैं और कहीं समाज के भीतर इंसान भी असुरक्षा में जी रहा है। अव्यवस्था इंसान को नोच खाने पर उतारूं है। ये विकास की राजनीति है या अव्यवस्था की नीति? जिसने निचले वर्ग को जिल्लत की जिंदगी मुहैया कराई है।
क्या जनसंख्या विस्फोट इसका कारण है? और हम नजरें दूसरी ओर मोड़ कर देख रहे हैं। क्या विकास अपनी सही दिशा में हो रहा है? या दिशा का संज्ञान लेना अभी बाकी है? बाकी है अभी याद दिलाना कि ये देश हमारा है और इस समाज में रहने वाले इसी देश के अपने लोग है। ये उनकी अपनी भूमि है। जिसकी खातिर वे बॉर्डर पर खड़े हैं। दुश्मनों से लड़ रहे हैं। जबकि समझ नहीं आता, अपने ही देश की व्यवस्था में प्रताड़ित होते लोग विकास का गलत मतलब क्यों जी रहे हैं? लोग प्यास को प्यास कह रहे हैं, बिना देखते हुए कि प्यास का मतलब आखिर हो क्या गया है! भूख के मायने बदल गए हैं। लोग नजरों में बसती भूख का खुलेआम शिकार हैं। ये विकास की कौन-सी राजनीतिक आँधी है, जो साक्षर को हिंसक बनाने का कुचक्र रचती दिखाई दे रही है? अपनी ही जमीन में लोगों को बाँट रही है। पैसे के बल पर, आधुनिकता के बल पर, चकाचौंध के बल पर, ताकत के बल पर, साजिश के बल पर, रंजिश के बल पर और देश बँट रहा है, बँटते हुए लोग देख रहे हैं।
विकास की सही राह ही देश को सही मायने में विकसित, प्रगतिशील, उन्नत बना सकती है, जिसका चौतरफा असर हो। नई चीजों का ईजाद होता है। पुरानी चीजें आउट डेटेड हो जाती हैं। यह नियम है, जिसका फायदा सभी को मिलता है। अनुसंधान, खोज का अपना स्थान है, अपना फायदा है तो व्यवस्था के लिए नई तकनीक क्यों नहीं आ पा रही? क्यों नहीं हम नए तरीके से इसके रूपरेखा का विस्तार करते, जिसमें सभी का विकास हो, सभी लाभान्वित हो? लाभ सीमित क्षेत्र या अंग की मिल्कियत ना हो।
विकास के बढ़ते दायरे ने विस्थापन को जगह दी। गाँव-ग्राम बदले, शहर बदले, देश बदला। विस्थापन का असर सब पर पड़ा। विस्थापन ने समाज में परिवर्तन लाए हैं। संस्कृति के बदलते मायने सभी देख रहे हैं। वैचारिकता में आता बदलाव समाज की नई रूपरेखा गढ़ रहा है। युवा पीढ़ी विकास को अपनाती, विस्थापन को नियति मान आगे बढ़ने को मजबूर है। नवनिर्माण में लगी दुनिया विस्थापन का सालता दर्द नए समाज में देख रही है। यह कितना सही है, किस हद तक सही है, देखा जाना चाहिए। विस्थापित होते लोग, क्षेत्र, समुदाय की सीमा निश्चित होनी जरूरी है। आखिर विस्थापित क्यों हो रहे हैं किसलिए हो रहे हैं इसका भी संज्ञान लिया जाना चाहिए। वरना उजड़ते, गाँव, खेत, समूह, लोग पुराने कागजों का दस्तावेज बन कर रह जाएंगे और नई पीढ़ी इतिहास के माध्यम से उनका परिचय पाना चाहेगी। बावजूद इसके कि इतिहास भी अपने बदलने की कगार पर खड़ा है। ऐसा ना हों, विस्थापन सभी की रीढ़ चटखा जाए और हम समाज के भीतर अपने समाज की तलाश में बेदखली का सामना करते खुद को विस्थापित होता देखते रहे और कुछ ना कर पाए। आँधी सब उड़ा कर ले जाती है। बचे रह जाते हैं सूखे पत्ते। यह आप पर निर्भर है कि आप इसका इस्तेमाल किस तरह करते हैं।

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