आजादी के बाद भारत का विकास कम नहीं हुआ है। आज भारत तेजी से विकसित हो रही सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। जो निकट भविष्य में विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने जा रही है। ब्रिटिश हुकुमत में सामंती समाज और उत्पादन प्रणाली से आधुनिक, लोक गणराज्य के रूप में भारत जनसंख्या के मामले में चीन को पीछे छोड़कर अब अव्वल नंबर पर है। संयुक्त राष्ट्र विश्व जनसंख्या डैशबोर्ड 2023 के अनुसार भारत की जनसंख्या 142.86 करोड़ हो गई है, जो चीन की अनुमानित जनसंख्या 142.57 करोड़ से कुछ अधिक है। इसी जनसंख्या के आधार पर भारत अब विश्व का सबसे बड़ा उपभोक्ता बाजार है। वैश्विक मंच पर भी भारत के राजनीतिक प्रभाव को अब नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। कृषि और औद्योगिक उत्पादन में भी वृ(ि हुई है। विज्ञान, तकनीक और अंतरिक्ष अनुसंधान में हम विकसित राष्ट्रों के मुकाबले में हैं। 1948, 1965 और 1971 में पाकिस्तान और 1962 में चीन के साथ यु(ों के बाद करीब पाँच दशक से हमारी सीमाओं पर यु( नहीं हुआ। परमाणु हथियारों के साथ भारतीय सशस्त्र सेनाएं किसी भी चुनौती का मुकाबला करने में समर्थ हैं। सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि भारतीय संविधान लागू होने के बाद देश में संसदीय लोकतंत्र में अभी तक कोई व्यवधान नहीं पड़ा और न राजनीतिक अस्थिरता रही। हर चुनाव के बाद सत्ता हस्तांतरण शांतिपूर्ण रहा है। देश के आर्थिक विकास में इन सभी बातों का असर हुआ है।
अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष ;आईएमएफद्ध की ताजा रपट के अनुसार व्यापक आर्थिक और वित्तीय स्थिरता के कारण भारत की आर्थिक विकास दर मजबूत बने रहने की उम्मीद है। आगे बढ़ते हुए देश का मूलभूत डिजिटल सार्वजनिक बुनियादी ढाँचा और एक मजबूत सार्वजनिक बुनियादी ढँाचा कार्यक्रम विकास की अग्रगति बनाए रखेगा। यदि व्यापक सुधार लागू किए जाते हैं, तो श्रम और मानव पूँजी के अधिक योगदान के साथ, भारत में और भी अधिक विकास की संभावना है। आईएमएफ ने सुधार कार्यक्रम पर जोर देते हुए कहा है कि वित्तीय वर्ष 2023-24 और 2024-25 में भारत की वास्तविक विकास दर 6.3 प्रतिशत बनी रहेगी। इस रपट में उल्लेखित दो शब्द ‘डिजिटल’ और ‘सुधार’ के बहुत खास मायने हैं। डिजिटल इंडिया पर बहुत जोर है हाल के वर्षों में। सारा सरकारी, गैर-सरकारी कामकाज अब डिजिटल है और आर्थिक लेन-देन भी। सुधार का मतलब है, आर्थिक सुधार। 1991 से भारत में आर्थिक सुधारों के तहत निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण की प्रक्रिया जारी है, जिसके तहत भारत अब कृषि अर्थव्यवस्था नहीं रही। यह मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था है। जिसके तहत हमारी राजनीति और अर्थव्यवस्था दोनों विश्व व्यवस्था से जुड़ी हुई हैं। जो बहुत तेज विकास हुआ है, वह मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था का हुआ है। शेयर सूचकांक इस विकास का मानक बन गया है, जो रिकार्डतोड़ 71 हजार के पार है।
मुक्तबाजार की अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र और संपत्ति, राष्ट्रीय संसाधनों का निजीकरण हो रहा है। कुछ भी सरकारी नहीं बचेगा। कुछ भी जनता का नहीं है। इस अर्थव्यवस्था में उत्पादन को प्रथमिकता नहीं है। सेवाक्षेत्र और अत्याधुनिक तकनीक को सर्वोच्च प्राथमिकता है। कृषि और उद्योग दोनों हाशिए पर हैं। व्यापार पर एकाधिकार वर्चस्व है। कृत्रिम बु(िमत्ता का जोर है। राजकाज का लक्ष्य नागरिक का नहीं, बाजार और पूँजी के विकास पर है। इस विकास में हम, यानि भारत के आम नागरिक कहाँ हैं? इस विकास में नागरिकों की हिस्सेदारी कितनी है? यूएन डीपी के मानव विकास सूचकांक में भारत 191 देशों में 132 वें स्थान पर है। संयुक्त राष्ट्र ने किसी देश के विकास का ऑकलन करने के लिए लोगों और उनकी क्षमताओं को मापदंड बनाते हुए मानव विकास के प्रमुख आयामों में औसत उपलब्धियों के लिए यह सारांश माप बनाया है, जिसके तहत लंबा और स्वस्थ जीवन, शिक्षा और जीवन स्तर को आधार बनाया गया है। इन तीनों प्रतिमान के आधार पर हमारी स्थिति बेहद चिंताजनक है।
इसी संदर्भ में हमने कहा था कि आप अपने गाँव, शहर, इलाके और जिले में कितना विकास हुआ है, इस पर जरूर लिखें। भारतीय संविधान में समता और सामाजिक न्याय पर बहुत जोर दिया गया है। जो विकास हुआ है या हो रहा है, क्या वे समता और सामाजिक न्याय के सि(ांतों के अनुरूप हैं? देश का खूब विकास हुआ है, इस पर कोई विवाद नहीं है। सवाल है, आपके गाँव, शहर, इलाका और जिले का कितना विकास हुआ? कैसा विकास हुआ? हरित क्रांति के बाद कृषि में भारत आत्मनिर्भर हो गया। अब खेती, किसानी के क्या हाल हैं? रोजगार, व्यवसाय, कारोबार और आजीविका का क्या हाल है? देश जब आजाद हुआ था, तो भारत की ज्यादातर आबादी निरक्षर थी। आज शिक्षा का प्रसार हुआ है। बड़ी संख्या में युवा हर साल विश्वविद्यालयों और तकनीकी प्रतिष्ठानों, मेडिकल कॉलेजों से डिग्री लेकर निकलते हैं। बड़ी संख्या में बेटियाँ पढ़-लिख रही हैं। जीवन के हर क्षेत्र में नेतृत्व करने लगी हैं। इन सबके लिए सालाना कितना रोजगार सृजन होता है? युवाओं, स्त्रियों और बच्चों की दशा दिशा क्या है? कोरोना काल में हमने क्या-क्या नहीं देखा? अपने प्रियजनों को बिना इलाज मरते देखा। कार्फ्यू और लॉकडाउन देखा। महानगरों से मजदूरों का गाँवों की ओर पलायन देखा। ऑक्सीजन न मिलने से लोगों को दम तोड़ते देखा। श्मशानघाटों और कब्रिस्तान में अंतिम संस्कार के लिए कतारब( लाशें देखीं। गंगा समेत तमाम नदियों में लावारिश लाशें तैरती दिखीं। पूरी चिकित्सा व्यवस्था ढह गई थी। अब क्या हाल है चिकित्सा का? आयुष्मान की आभा में हम कैसे आयुष्मान बने? इलाज कितना सुलभ है? नई शिक्षा नीति लागू हो गई। क्या सबके लिए सुलभ, समान गुणवत्ता वाली शिक्षा की व्यवस्था हो पाई? अस्पतालों और शिक्षा संस्थानों का कितना विकास हुआ? हाईवे या रेलवे स्टेशन या हवाई अड्डा कितना दूर है गाँव से? यातायात के क्या साधन हैं? गाँवों में बिजली, पानी, राशन, रोजगार हैं? आपके इलाके में कितने उद्योग लगे? भूमिपुत्रों को कितनी नौकरियां मिलीं? उन उद्योगों में श्रम कानून लागू है? आपके इलाके में मजदूर, किसान और आम गरीब लोग किस हाल में हैं? भुखमरी, नशा और आत्महत्या जैसी घटनाएं तो नहीं हैं? महिलाओं के खिलाफ हिंसा तो नहीं होती? भ्रूण हत्या और ऑनर किलिंग का रिवाज तो नहीं है? बच्चे नशे के शिकंजे में तो नहीं हैं? अपराधों पर नियंत्रण है? दुर्घटनाओं और आपदाओं पर? दलितों से भेदभाव तो नहीं होते? समाज में लैंगिक समानता कितनी है? जल, जंगल और जमीन पर आपका कितना हक है? विस्थापन और पलायन की समस्या तो नहीं हैं? हिमालय और आदिवासी भूगोल में विकास का किस्सा क्या है?
हमारे नजरिए से विकास के प्रतिमानों के साथ ये सारे सवाल और ऐसे ही तमाम सलाव भी पूछे जाने चाहिए। मातृभाषा, बोली, अस्मिता, समाज और संस्कृति के हश्र पर भी बात होनी चाहिए। या फिर विकास का मतलब सिर्फ आँकड़ों का खेल है? या उपभोक्ता सामग्री की फेहरिस्त, बाजार में रोशनियों की जगमगाहट और अखबार-टीवी के विज्ञापन हैं? या महज फैशन परेड और गणतंत्र दिवस परेड की भव्य झांकियां, सैन्य शक्ति का प्रदर्शन है? या आस्था का महोत्सव है यह?
आखिर विकास किस चिड़िया का नाम है? उसका संगीत कैसा है? क्या सिर्फ राष्ट्रवाद और सैन्य शक्ति का विस्तार ही विकास है? क्या विकास का मनुष्य, सभ्यता, संस्कृति, पर्यावरण और जलवायु से कोई संबंध नहीं है? क्या विकास की राजनीति ही विकास है या खैरात की अर्थव्यवस्था विकास है, जिसमें नागरिक, नागरिक नहीं, भिखारी हो और सरकार की अनुकंपा से जीता हो? या विकास सिर्फ विज्ञापन है या चुनाव प्रचार, अखबारों की सुर्खियां हैं? क्या सिर्फ आधुनिकीकरण विकास है या तकनीक का उपयोग विकास है? क्या विकास सिर्फ गति है? समय सापेक्ष है विकास या यह कोई मूल्यात्मक अवधारणा है? क्या विकास का लक्ष्य समाज निरपेक्ष है? समाज का विकास से कोई लेना-देना नहीं है?
विकास की अवधारणा और सि(ांतों में बहुत घालमेल है। मसलन डार्विन के क्रमिक विकास का सि(ांत। जिसमें जो सबसे फिट है, उसी को जीने का अधिकार है। बाकी को खत्म हो जाना चाहिए। दरअसल विकास का व्यवहारिक प्रयोग कमोबेश ऐसा ही है, जिसके प्रयोग औपनिवेशिक देशों ने नरसंहारों के जरिए किए। अमेकिा, लातिन अमेरिका, एशिया, अफ्रीका, यूरोप और ऑस्ट्रेलिया में सामा्रज्यवादी विकास ने मूलनिवासियों और आदिवासियों का सफाया कर दिया। आज के विकसित राष्ट्रों की विकास कथा यही है। हमारी ?
क्या स्वतंत्र लोक गणराज्य भी विकास के ऐसी नरसंहारी अवधारणा को लेकर चल रहे हैं? क्या साम्राज्यवादी विस्तार और विकास से मुक्त हैं आधुनिक लोक गणमान्य? भारत? अगर मुक्त है तो यह वैश्विक अर्थव्यवस्था क्या है, जिसकी नाभिनाल से जुड़े हुए हैं हम?
मनुष्यता का विकास अठारवीं सदी से वैज्ञानिक खोजों की बदौलत चामत्कारिक रहा। मशीनों के आविस्कार से सबसे पहले यूरोप में औद्योगिकीरण का अग्रदूत था इंग्लैंड। ब्रिटिश हुकुमत के उपनिवेश भारत में भी औद्योगिकरण की प्रक्रिया शुरू हुई। पूँजीवादी विकास शुरू हुआ तो सामंती व्यवस्था टूटने लगी। तरह-तरह के सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन हुए। लेकिन भारत के स्वतंत्र बनने के तुरंत बाद बुनियादी उद्योगों के विकास और हरित क्रांति को प्राथमिकता दिए जाने के बावजूद नब्वे के दशक आते-आते पचास साल की कम अवधि में उद्योग, कृषि और उत्पादन प्रणाली तीनों हाशिए पर चले गए। सिर्फ बाजार का विस्तार हुआ। बाजार के साथ तेज शहरीकरण हुआ। सारे के सारे कस्बे शहर बन गए। सारे के सारे नगर महानगर बन गए और गाँव भी अब शहर बनने लगे हैं। ऐसे शहर, जहाँ भव्य बाजार हैं, लेकिन न उद्योग हैं और न रोजगार। मशीनों के लिए भी मजूदर चाहिए थे। पूँजी के लिए श्रम चाहिए था। बाजार के लिए श्रम का कोई महत्व नहीं है। शहरीकरण की आँधी में खेत दफन होने लगे। गाँव छोड़कर शहरों की मलिन बस्तियों में आकर बसने लगे किसान। आजीविका बतौर कृषि का अंत हो गया। क्या यह विकास है?
तीन सौ सालों के पूँजीवादी विकास में वैज्ञानिक खोजों के अभूतपूर्व योगदान ने खेती खत्म की तो रोजगार के अवसर भी दिए। शिक्षा का विस्तार हुआ तो रोजगार सृजन भी हुआ। बुनियादी सेवाएं शुरू की। रेलवे, वायुयान, जहाज परिवहन, सड़कें, बाँध, बिजली, संचार के विकास के साथ ही मनुष्यता और सभ्यता का विकास हुआ। स्वतंत्रता की चेतना उत्पन्न हुई। क्रांति की मशालें जलीं और दुनिया के तमाम गुलाम देश आजाद होते चले गए। भारत में इसी पूँजीवादी विकास के तहत सती प्रथा का अंत हुआ। अस्पृश्यता निषेध की शुरूआत हुई। श्रमिकों के लिए श्रम कानून लागू हुए। बाल विवाह और बहुविवाद निषि( हुए। स्त्री शिक्षा का प्रसार हुआ। विधवा विवाह की शुरूआत हुई। दलितों को तमाम अधिकार मिले। अब क्या हो रहा है?
पूँजीवादी विकास से जो कुछ हासिल हुआ। पिछले तीन दशकों के तकनीकी विकास ने डिजिटल इंडिया के मुक्त बाजार में वह सबकुछ छीन लिया। कल-कारखाने बंद होते गए। गाँवों के सीने पर मशरूम की तरह शहर उगने लगे। श्रमिकों के सारे हक-हकूक छीन लिए गए। बुनियादी जरूरतें और सेवाएं क्रय शक्ति से नत्थी कर दी गईं। प्रकृति और पर्यावरण का विध्वंस ही विकास का पर्याय हो गया, जिस विकास का कोई सरोकार प्रकृति, पर्यावरण और मनुष्यों से नहीं है। जिसके शिकार सारे के सारे पर्वतीय राज्य और आदिवासी भूगोल हैं। विकास के नाम उपभोक्ता बाजार के लिए आम जनता के खिलाफ यु( ही आज विकास का व्यवहारिक स्वरूप बन गया है।
इस अंधाधुंध विकास से क्या हासिल हुआ? अमीरों की अमीरी बेतहाशा बढ़ रही है, मध्य वर्ग और निम्न मध्यवर्ग तेजी से गरीबी रेखा के नीचे खिसकने लगे। हालत यह है कि अत्याधुनिक भारत के 140 करोड़ की आबादी में से आधे से ज्यादा अस्सी करोड़ लोग मुफ्त राशन के भरोसे जी रहे हैं। दुनिया के सबसे ज्यादा धनवानों की सूची में भारतीय अमीरों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है और आधी से ज्यादा आबादी बुनियादी जरूरतों और सेवाओं के मोहताज हैं।
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में 2023 में ऑक्सफैस ने एक रपट पेश की है, जिसके मुताबिक भारत की 40 प्रतिशत दौलत देश के एक प्रतिशत अमीरों के पास है। वहीं देश के 50 प्रतिशत लोगों के पास सिर्फ तीन प्रतिशत दौलत है। ‘सरवाइवल ऑफ दि रिचेस्ट’ शीर्षक से पेश इस रपट में कहा गया है कि भारत के अमीरों की संपत्ति लगातार बढ़ती जा रही है जबकि गरीबों के लिए जीवन यापन करना भी मुश्किल हो गया है। रिपोर्ट में लैंगिक असमानता के मुद्दे पर कहा गया है कि महिला श्रमिकों को एक पुरुष श्रमिक के कमाए गए प्रत्येक रुपए के मुकाबले सिर्फ 63 पैसे मिलते हैं। इसी तरह अनुसूचित जाति और ग्रामीण श्रमिकों को मिलने वाले पारिश्रमिक में भी अंतर है। अगड़े सामाजिक वर्ग को मिलने वाले पारिश्रमिक के मुकाबले अनुसूचित जाति के श्रमिक को 55 फीसदी और ग्रामीण श्रमिक को 50 फीसदी वेतन मिलता है। क्या यही है विकास के मायने?