एक बेतरतीब जिंदगी

अशोक भाटिया
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20 मई 2018-मेरी शादी को अभी हफ्ता बीता है। लगता है, यहाँ की मिट्टी मेरी जड़ों के लिए नहीं बनी।
25 मई 2018-सुना था, शादी सुख-दुःख साझा करने का नाम है। यहाँ दुःख अपना है, सुख तो खैर है ही नहीं। सास के पास कामों की लंबी लिस्ट है, तो इनके लिए मैं देह की प्यास बुझाने का जरिया हूँ बस।
30 मई 2018-आज इन्होंने पूछा है कि मैं क्यों उदास हूँ? क्या कहती? मुझसे कभी कोई बात नहीं,चीत नहीं। आए, रौंदा, सो गए। मैं तो अब तक अनछुई ही रही।
5 जून 2018-मुरझाती जा रही हूँ।
13 जून 2018-शादी को आज महीना हो गया। महीने-भर दो गुलामियां भुगती हैं। दिन में हाथ-पैर होती हूँ, रात में भोग की वस्तु।
17 जून 2018-जिंदगी भार हो गई है? रेगिस्तान में नंगे पाँव रेंगती हुई।
20 जून 2018-इनके हाथ ही नहीं, सोच भी तंग है। खाने-पीने पर पहरेदारी है।
22 जून 2018-जिंदगी के अँधेरे कमरे में एक खिड़की थी-सहेलियों को फोन करना। वह भी बंद होने का खतरा है। रात को आकर पहले मोबाइल चेक करते हैं। मुझे ये पति नहीं, थानेदार लगते हैं।
25 जून 2018-कल मैंने सुना, ये अपनी माँ से कह रहे थे, इसका हिसाब जल्दी कर देना है। तब से मेरे पाँवों तले जमीन नहीं। मुझे ये दहेज-लोभी लगते हैं। मार भी सकते हैं।
28 जून 2018-रोटी गोल न होने का बहाना बनाकर कल इन्होंने मुझे पीटा। सास ने जुगलबंदी की। दोनों ने कहा, ‘चली जा अपने घर।’ समझ नहीं आता क्या करूँ? रात-भर बुखार रहा। इससे तो जेल अच्छी।
10 जुलाई 2018-ये दस दिन से पीलिया में पड़े हैं। कभी ख्याल आता है, ये मर जाएँ तो मुझे क्या इनके मरने पर दुःख होगा?

अशोक भाटिया
करनाल, हरियाणा
अशोक भाटिया
करनाल, हरियाणा

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