गर्व है मुझे कि मैं एक स्त्री हूँ
गर्व है मुझे कि मेरे भीतर ही
अंकुरित होती है एक और जिंदगी
मेरा जिस्म एक मंदिर है
जहाँ मन देवता वास करते हैं
गर्व है मुझे अपने स्त्री होने पर
मैं नहीं होना चाहूँगी वह पुरुष कभी भी
जो मंदिर की सुचिता को खंडित
करता है महमूद गजनवी की तरह
और उन जैसे तमाम आक्रांताओं की भाँति
जो तहस-नहस कर देते हैं
इसकी प्राचीरें, इसकी दीवारें, इसका गर्भगृह तक
मैं उस पुरुष योनि में कभी जन्म लेना नहीं चाहूँगी
नाज है मुझे अपने स्त्री होने पर
लेकिन मैं शर्मिंदा भी हूँ
कि मैंने ऐसे पुरुषों को जन्म दिया
जो अब भी घात लगाए बैठे हैं
फिर एक आक्रमण की तैयारी में
अँधेरे में चमकते हैं दहकते हुए दो अंगार बस
और एक लपलपाती हुई जिह्वा
उर्वर समय
चारों ओर आग लगी है
चीख-पुकार, अफरा-तफरी
कहीं युद्ध तो कहीं आतंकी हमले
कहीं स्त्रियों और बच्चों के साथ पैशाचिक कृत्य
कहीं भूख कहीं व्याधि
कहीं आपसी वैमनस्य
लूट-खसोट, मारा-मारी
प्रकृति का प्रकोप अलग-अलग रूप धरके
प्रकोप धर्म का बिना धर्म को समझे हुए
लगता है कविता के लिए यह उर्वर समय है
और फोटोग्राफी, वीडियोग्राफी
और राजनीति के लिए भी…!