छिन्नमूल: बंगाली विस्थापितों का
दर्द समेटे प्रमाणिक दस्तावेज
भाई रूपेश कुमार सिंह जी एक संवेदनशील अनुभवी पत्रकार हैं। देश के हिंदी भाषी विभिन्न राष्ट्रीय समाचार पत्रों में आपने लम्बे समय तक पत्रकारिता की है। वर्ष 2002 से आप स्वतंत्र पत्रकारिता एवं लेखन में आ चुके हैं। पत्रकारिता का वास्तविक धर्म आप निभा रहे हैं, यह साबित किया है आपने तीन वर्ष की कड़ी मेहनत के बाद छिन्नमूल लिख कर। छिन्नमूल का अर्थ ही है अपनी जड़ों से उखड़ा हुआ। यह पुस्तक विस्थापित बंगाली समाज की आपबीती पर ही केंद्रित है। उस समाज के विस्थापितों से किये गए साक्षातकार इस पुस्तक में शामिल किए हैं। सम्भवतः भारत की यह पहली प्रमाणिक पुस्तक है जो विभाजन के बाद विस्थापित हुए बंगाली समाज की दुश्वारियों, कठिनाइयों पर लिखी गई है।
पुस्तक को पढ़ कर आपको यह महसूस होगा कि इसको लिखने में रूपेश जी ने कितनी मेहनत की है। एक संवेदशील लेखक के साथ संवेदशील इंसान भी होना जरूरी होता है ऐसी पुस्तक लिखने के लिए। क्यों कि जिस विषय को अपना लेखन विषय बनाया रूपेश जी ने वह कोई साधारण विषय नहीं है। दफ्तर में बैठ कर कल्पनाओं के मायाजाल गढ़ कर लिखने वाले देश में तमाम लेखक हैं। किंतु धरातली यथार्थवादी लेखन करने वाले रूपेश जी जैसे इक्के दुक्के लेखक ही हैं।
छिन्नमूल पर बॉलीवुड वाले बना सकते हैं फिल्म
विस्थापित बंगाली समाज उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड के अलावा देश के अन्य 22 राज्यों में बसाया गया। रूपेश जी ने इस समाज के विस्थापन के दर्द को महसूस करने के लिए इन विस्थापितों की कॉलोनियों, झोपड़ियों, बस्तियों, गली, मुहल्लों का 3 वर्ष तक गहन अध्ययन किया और उनकी तकलीफों को जाना, समझा, महसूस किया। इस पुस्तक को पढ़ कर मुझे ऐसा लगता है कि बॉलीवुड को एक नया विषय फ़िल्म निर्माण के लिये इस पुस्तक से मिल गया है। मेरा मानना है कि यदि बॉलीवुड का कोई निर्माता इस पर बड़े बजट की फ़िल्म बनाता है तो वह निश्चित ही राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय स्तर के पुरस्कार प्राप्त करेगी।
पुस्तक को पढ़ते समय यदि आप अच्छे संवेदनशील पाठक हैं तो इन विस्थापित बंगालियों की आपबीती उनके ही मुख से रूपेश कुमार सिंह जी के द्वारा लिए गए साक्षात्कारों के माध्यम से जानेंगे तो आपको भी रोना आ जायेगा। कोई व्यक्ति आसानी से अपनी खेती, बाड़ी, गांव, घर, गली, मुहल्ला, शहर नहीं छोड़ता। भारत पाकिस्तान विभाजन के बाद पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान का अलग होना और फिर पूर्वी पाकिस्तान को 1971 में बांग्लादेश के रूप में आज़ाद देश बनना, इस सब के बीच लाखों हिन्दू बंगाली अपना देश छोड़ कर भारत आ जाने को मजबूर हुए। क्यों कि उनके देश में इन बंगालियों पर त्याचार शुरू हो गया। मुस्लिमों के साथ-साथ सवर्ण हिन्दू (ब्राह्मण और कायस्थों ने) भी इन शूद्र हिंदुओं पर अत्याचार करते रहे। ऐसे में जो जैसे जिस हालत में था वहाँ से भागने को मजबूर हुए। बिना किसी साधन संसाधन के अपने बीवी बच्चों को लेकर पैदल महीनों नदी नाले, जंगल, पहाड़ पार कर मीलों चल कर भारत की सीमा में प्रवेश किया तो यहां उनको शरणार्थी शिविरों में जानवरों की तरह ठूंसा गया। इन शिविरों में बीमारी, महामारी में इलाज के अभाव में सैकड़ों बंगालियों ने अपनी आँखों के सामने अपनो को तड़प-पड़प कर मरते देखा। भारत में जिस आशा विश्वास के साथ वे दाखिल हुए थे, उसमें सिर्फ उनको सरकारी उदासीनता के कारण छलावा ही मिला। उनको बसाया भी गया तो ऐसी जगह जहां बंजर भूमि या जंगल थे, जिनमें न तो खेती हो सकती थी न अन्य कोई काम। दूसरी बड़ी समस्या भाषा और खान पान की, कि हिंदी उनको नहीं आती बांग्ला भारतीयों को नहीं आती, ऐसे में कम्युनिकेशन बना पाना ही जटिल था।
मच्छी भात खाने वाला बंगाली समाज भारत के शरणार्थी शिविरों में मिलने वाले आटे को समझ नहीं पाता था कि इसको कैसे पकाए क्या बनाये कि जिससे भूख मिटा सके अपने भूखे बिलखते बच्चों की। क्षुधा मिटाने के लिए कच्चे आटे में नमक घोल कर पी लेने से ही तमाम बंगालियों की दस्त लगने से मौत हो गई। सोचो कितना मार्मिक था वह दृश्य। इन विस्थापित बंगालियों को देश के विभिन्न राज्यों में बसाया गया, इनको 2 से 5 एकड़ जमीनें सरकार द्वारा दी गईं खेती करने के लिए। लेकिन वे जमीनें ऐसी जगह दी गईं जिनमें खेती करना सम्भव नहीं था। जंगलों में इनके परिवार के सदस्य जंगली जानवरों का निवाला बन गए। उसके बावजूद अपनी कड़ी मेहनत से जमीन को खोद जोत कर फसल उगने योग्य बना कर किसी तरह जीवन शुरू किया। लेकिन जिन जमीनों को इन्हें दिया गया उनका मालिकाना हक उनको आज तक नहीं दिया गया। अधिकतर जमीनें तो सरकार ने सड़कों या बांध निर्माण के नाम पर पुनः उनसे छीन लिया। रूपेश जी लिखते हैं कि सिर्फ उत्तराखंड के दिनेशपुर में बसे बंगालियों को छोड़ कर अन्य कहीं भी इनको जमीन का मालिकाना हक प्राप्त नहीं है।
इन विस्थापितों ने अपनी आँखों में नए सपने सजा कर हिन्दू होने के कारण हिन्दू बाहुल्य भारत का रुख किया था कि यहां उनको जीवन जीने का समुचित अधिकार मिलेगा, किन्तु यहां भी उनके साथ सिर्फ छलावा ही हुआ। रहने, खाने, पढ़ने आदि की समस्या से वे आज भी जूझ रहे हैं क्यों कि इतने वर्ष बाद भी इन विस्थापित बंगालियों को घुसपैठिया ही माना जा रहा है। उनके पास कोई स्थायी निवास सम्बन्धी दस्तावेज न होने के कारण इनको हर जगह कठिनाइयों से जूझना पड़ता है। अपने बच्चों को स्कूल दाखिले तक में इनको दिक्कतें ही झेलनी पड़ती रही हैं। ये अपना जीवनयापन ज्यादातर आज भी मजदूरी कर के ही कर रहे हैं। सरकारें वोट की ख़ातिर इनको स्थाई मान्यता देने की बात तो करती हैं किंतु चुनाव निकल जाने के बाद इनको फिर वही ढाक के तीन पात ही मिलता है। इनकी मांग है कि इन्हें भारत के एससी वर्ग में शामिल कर दिया जाए क्यों कि ये बंगाल में नमो:शूद्र थे।
शरणार्थी शिविरों की यातना भरी जिंदगी से गुजर कर जो जीवित बच गए उन्होंने हार नहीं मानी। अपनी मांगों को लेकर लगातार समय-समय पर आंदोलन करते रहे। इन्होंने मेहनत मजदूरी कर अपने बच्चों को पढ़ाया और उन्हें योग्य बनाया। शिक्षक, राजनेता, खिलाड़ी बना कर विस्थापित बंगाली समाज ने खुद को स्थापित किया। रूपेश जी की यह पुस्तक अद्वितीय है, अनुपम है। लेखन में इन्होंने कहीं-कहीं मूल बांग्ला भाषा का प्रयोग किया है, जैसा उन्होंने संवाद किया वैसा ही लिख दिया, इससे पुस्तक और भी मौलिक हो गई है। कहीं पर कुछ भी अपनी तरफ से संवादशैली नहीं घुसाई है। एक बार पढ़ना शुरू करो तो लगातार पढ़ने का ही मन करता है ऐसी सरल भाषा का प्रयोग किया है। यह पुस्तक दूर की यात्रा तय करेगी ऐसा मेरा विश्वास है। भाई रूपेश जी को हृदय की अन्तस् गहराइयों से बधाई।
डॉ. मान सिंह
सम्पादक: साहित्य वाटिका पत्रिका
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