सौ-सवा सौ लाशों का प्रतिदिन महीनों किया सामूहिक दाह संस्कार: डाॅ0 सुनील हाल्दार
-रूपेश कुमार सिंहडाॅ सुनील हाल्दार
कोरोना महामारी के दौर में अमेरिका सहित दुनिया के कई देशों में सामूहिक दाह संस्कार या शवों को एक साथ दफनाने के वीडियो इन दिनों हम देख रहे हैं। प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध में भी हजारों-हजार मृतकों को एक साथ दफनाने की दास्ताँ हम इतिहास में पढ़ चुके हैं। कारण चाहे जो भी हों, आम जनता की व्यापक मौत और सामूहिक अन्तिम संस्कार के किस्से हमने इतिहास के हर दौर में पढ़े और सुने हैं। आजाद भारत में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की दुहाई देने वाले अपने देश में भी हिन्दू बंगाली शरणार्थियों ने तमाम ट्राँजिट कैम्पों में हजारों परिजनों और परिचितों को घुट-घुट के मरते देखा है।
माणा शरणार्थी कैम्प, रायपुर (तब मध्य प्रदेश, अब छत्तीसगढ़) में लम्बा जीवन बिताने वाले डाॅ सुनील हाल्दार बताते हैं, ‘‘1964 में पूर्वी पाकिस्तान में कश्मीर के हजरतबल विवाद की प्रतिक्रिया में भयंकर हिन्दू-मुसलिम दंगे हुए। 1947 में भारत-पाक विभाजन से भी ज्यादा विकराल। हिन्दू बंगाली बड़ी तादाद में अपना देश छोड़कर पश्चिम बंगाल के रास्ते भारत के विभिन्न राज्यों में शरण ले रहे थे। पूर्वी पाकिस्तान को स्वतंत्र बांग्ला देश घोषित करने का आन्दोलन भी चरम पर था। पश्चिमी पाकिस्तान के मुसलमान और भारत से पूर्वी पाकिस्तान पहुँचे मुसलमानों ने पाकिस्तान की सेना के साथ मिलकर हिन्दू बंगालियों को वहाँ से भगाने के लिए अत्याचार तेज कर दिये थे।
भारत के कैम्पों में आने वाले बंगालियों का जीवन यहाँ भी नर्क था। लोग कीड़े-मकौड़े की जिन्दगी जीने को विवश थे। चेचक, हैज़ा, डायरिया जैसे रोग महामारी का रूप ले चुके थे। रोकथाम के लिए कोई सरकारी इंतजाम नहीं था। बड़ी संख्या में शरणार्थी मर रहे थे। माणा कैम्प की स्थिति बहुत नाजुक थी। यहाँ महामारी जबदस्त तरह से फैल चुकी थी। रोज सैकड़ों लोग बिना दवा और इलाज के दम तोड़ रहे थे। भोजन के अभाव में भी लोग बीमारी से संक्रमित हो रहे थे। मरने वालों के अन्तिम संस्कार की भी कोई व्यवस्था नहीं थी। तब मेरी उम्र 15-16 साल थी। पढ़ाई के साथ-साथ मैं भारत सेवाश्रम संघ का सदस्य बन गया था। स्वास्थ्य शिविर में सहायक के तौर पर शामिल रहता था। सुबह शवों के सामूहिक दाह संस्कार करने वालों के ग्रुप में भी था।
संस्था के कार्यकर्ता 24 घंटे में मरने वालों के शव को एक बार सुबह सरकारी ट्रक में भरकर सुकुमा नदी के किनारे बने अस्थाई श्मशान घाट लाते थे। लाशों की संख्या प्रतिदिन सौ-सवा सौ से ज्यादा भी होती थी। नदी के किनारे नालीनुमा भट्टी बनायी गयी थी। यह काफी लम्बी थी। लोहे के एंगल के सहारे एक के ऊपर एक शव रखकर नीचे से आग लगा दी जाती थी। एक साथ सौ-डेढ़ सौ से ज्यादा शवों को जलाया जाता था। कई बार तो लकड़ी कम होने या गीली होने पर अधजले शवों को सुकुमा नदी में बहा दिया जाता था। अधजले शव सुकुमा नदी से गोदावरी नदी तक पहुँच जाते थे। वहाँ परिजनों को आने की इजाजत नहीं थी। बहुत खतरनाक दिन थे वो। महामारी से मरने का यह सिलसिला पाँच साल 1964-1969 तक चला।’’
ऐसी तमाम घटनाओं के चश्मदीद रहे हैं डाॅ सुनील हाल्दार। पूर्वी पाकिस्तान के जनपद बारिशाल, थाना कलापाड़ा के गाँव नाॅवभांगा में मधुसूधन हाल्दार के मँझले पुत्र के रूप में 9 जनवरी 1951 को सुनील हाल्दार का जन्म हुआ। 1947 के विभाजन के बाद भारत में शरण लेने पहुँचे हिन्दू बंगाली शरणार्थियों का प्रारंभिक दौर तो इन्होंने नहीं देखा, लेकिन जब होश संभाला तो इन्होंने पूरे देश में बसे बंगाली शरणार्थियों का हाल-चाल जानने के लिए 26 महीने देशभर में साईकिल यात्रा की। इस दौरान इन्होंने 21 राज्यों का भ्रमण किया। शरणार्थियों की दयनीय स्थिति से परेशान होकर इन्होंने बंगालियों को न्याय, सम्मान और अधिकार दिलाने के लिए आन्दोलन में कूदने का इरादा कर लिया। सुनील हाल्दार तमाम आन्दोलनों में शामिल रहे, नेतृत्व किया। कई मुकदमे झेले और कई बार जेल गये। आइए, इनकी आपबीती से बंगाली शरणार्थियों के दर्द को जानते हैं।
पूर्वी पाकिस्तान से हिन्दू बंगालियों का पलायन तो 15 अगस्त, 1947 से ही शुरू हो गया था, जो 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद तक जारी रहा। सुनील हाल्दार बताते हैं कि दादा जी हरिचरण हाल्दार बारिशाल जिला छोड़ने को तैयार नहीं थे। सबको अपनी मातृभूमि से प्रेम होता है, उन्हें भी था। आपसी टकराव समाप्त हो जाएगा और स्थिति पूर्व की तरह सामान्य हो जाएगी, इस उम्मीद में हमारा परिवार 1957 तक वहीं टिका रहा। इसी साल जमाई (फूफा) की जवान बेटी के साथ हुई अमानवीय घटना से हम सब स्तब्ध थे। जमाई का घर गाँव के निचले हिस्से में था, नदी के किनारे। मुसलमान अत्याचारी नदी के रास्ते ही हमला बोलते थे। एक दिन नाव पर सवार कुछ मुसलमान हमलावरों ने खेत पर काम कर रही बहन को उठा लिया। दुराचार करने के बाद उसे अधमरी हालत में नदी किनारे छोड़ गये। बाद में बहन की मौत हो गयी। अब गाँव में रहना असंभव था। दादा जी ने पिता जी को सामान बाँधने को कहा। खुद माइग्रेशन प्रमाण पत्र बनाने के लिए ढाका चले गये। पिता जी ने बैल, जानवर और कृषि यंत्र औने-पौने दाम में बेच दिए। दो-तीन दिन में दादा जी के ढाका से वापसी करने पर हमने पूर्वी पाकिस्तान छोड़ दिया।
पिता जी की दो शादियां थीं। तेरह साल की उम्र में बाल विवाह हुआ, दूसरी शादी बाद में हुई। नियम के अनुसार माइग्रेशन प्रमाण पत्र में एक ही महिला को पत्नी दर्शाया जा सकता था। लिहाजा पिता जी दूसरी माँ और दो भाई-बहनों को लेकर निकले। पति को दंगे में लापता दिखाकर माँ और तीन भाई दादा जी के साथ इस पार पहुँचे। गाँव से नाव द्वारा हम लोग बैनापुल बाॅर्डर (वनगाँव) पहुँचे। बाॅर्डर पर चेचक का टीका लगा और दो दिन हम लोग वहीं रुके। ट्रक में भरकर हमें वीरभूम जनपद के पुकुरपाड़ा कैम्प ले जाया गया। हमारे साथ 15-16 परिवार और थे। यहाँ से शरणार्थियों का अन्य जगह सेटलमेंट होता था। चूँकि हमारे रिश्तेदार 1952 में ही भारत आ गये थे और उन्हें 1954 में नैनीताल की तराई में बसाया जा चुका था। कैम्प में रहते उनका पता खोज लिया गया।
जेठा (ताऊ) शशि हाल्दार सात-आठ माह बाद हमको लेने पुकुरपाड़ा कैम्प पहुँचे। पिता जी भी कई जगह कैम्पों से होते हुए इसी कैम्प में आ गये थे। अब फिर से परिवार एक साथ था। उस समय पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की सरकार थी। विधान राय मुख्यमंत्री थे। कम्युनिस्ट पार्टी अपनी जड़ें मजबूत करने में लगी थी। कम्युनिस्ट पार्टी ने बंगाली शरणार्थियों को बंगाल में ही बसाये जाने की माँग पर आन्दोलन छेड़ रखा था। हालांकि बंगाल का कुलीन वर्ग इसके लिए तैयार नहीं था। ज्योति बसु के नेतृत्व में आन्दोलन चलाया जा रहा था। ‘‘बांगाली बांग्लार बाइरे जाबे ना, आमादेर दाबी मानते होबे, नइले गोदी छाड़ते होबे।’’ का नारा बुलंद किया गया। बंगाली शरणार्थी भी बंगाल छोड़ना नहीं चाहते थे। शासन-प्रशासन दमन पर उतारू हो गया। जबर्दस्ती शरणार्थियों को अन्य राज्यों के आदिवासी व जंगल के इलाकों में भेजा जा रहा था। धुबुलिया जैसे शरणार्थी कैम्पों में लाठीचार्ज भी हुआ। गोली भी चलाई गयी। एक शरणार्थी की मौत हो गयी। इसके बाद आन्दोलन बिखर गया।
बंगाली शारणार्थियों को रिफ्यूजी नहीं, बल्कि डिस्प्लेस्ड पर्सन (विस्थापित) माना जाता था। इसलिए बहुत से लोग इस गफलत में रहे कि स्थिति सामान्य होने पर पुनः पूर्वी पाकिस्तान भेज दिया जाएगा। इसी उहापोह में बहुत लोग कैम्प में ही सड़ते रहे। हम नदिया जनपद के कृष्ण नगर के पास धुबुलिया कैम्प में थे। तब मेरी उम्र आठ साल थी। चीजों को समझने लगा था। जेठा दुर्गापुर (नैनीताल) से हमें लेने कैम्प पहुँचे। ट्रेन से किच्छा आये। यहाँ से हमें शक्तिफार्म न0-5 में पिता के नाम पर पाँच एकड़ जमीन का पट्टा दिया गया। चारों तरफ जंगल था। कहीं बंजर जमीन तो कहीं दलदली थी। जमीन पर सरकारी बुलडोजर चल रहा था। हम लोग बिल्कुल नये परिवेश में थे। मौसम बहुत सर्द था। पाला पड़ता था। जाड़े के दिनों में रात में पानी में चीनी डाल कर झोपड़ी के ऊपर रख देते थे, सुबह तक बर्फ जम चुकी होती थी। हाथ से बीज छिड़कर नाम मात्र का अनाज पैदा होता था। 1960 में पंतनगर कृषि विश्व विद्यालय की स्थापना के बाद हरित क्रान्ति हुई और खेत में रोपाई आरम्भ हुई। दिनेशपुर को छोड़कर तराई में बसे बंगालियों को भूमिधारी हक अभी तब नहीं मिला है।
जंगली जानवर शेर, हिरण, हाथी, नीलगाय, सूअर का आतंक था। सर्पदंश से आये दिन लोग मरते थे। डाॅक्टर और अस्पताल थे नहीं। बैद्य (बोझा) ही उपचार करते थे। 1958 तक शक्तिफार्म में 11 गाँव बस चुके थे। रतनफार्म 1-3, शक्तिफार्म 1-6, पाड़ागाँव और बीस क्वार्टर। चार नम्बर शक्तिफार्म में दो कमरे का स्कूल था। एक टीचर हम 15-20 बच्चों को पढ़ाते थे। 1960 में मेरी दीदी रेनू की शादी हरिदासपुर के सुखलाल मांझी से हुई। 8-10 लोग पैदल ही दिनेशपुर के हरिदासपुर से 36 मील दूर शक्तिफार्म बराती बनकर दूल्हेे को लेकर पहुँचे। तब आने-जाने का कोई साधन नहीं था। जंगल-जंगल दिन में ही चलते थे। रात में शादी हुई। दो दिन बारात शक्तिफार्म ही रुकी। उसके बाद दीदी की विदाई हुई। मुझे उनके साथ ससुराल आना पड़ा। इधर माँ प्रियवाला और पिता में अनबन हो गयी। दोनों में झगड़ा आम था। माँ हम तीनों भाइयों को लेकर फिर कृष्ण नगर (पश्चिम बंगाल) शरणार्थी कैम्प चली आयीं। यहाँ से हमे 1964 में मध्य प्रदेश के माणा कैम्प भेजा गया। यहाँ नये सिरे से जीवन शुरू हुआ। मेरी पढ़ाई भी हिन्दी की जगह बांग्ला में नये सिरे से शुरू हो गयी। यहाँ पश्चिम बंगाल बोर्ड के अन्तर्गत बांग्ला माध्यम में पढ़ाई होती थी। पढ़ाई में मैं होशियार था। ऊषा दीदी (टीचर) ने मुझे कक्षा तीन से सीधे छः में दाखिला दे दिया। 1972-73 मैंने इंटर पास किया। इसी बीच मैंने मैकेनिकल में आई टी आई कर ली। शरणार्थियों की समस्याओं और परेशानियों को अब मैं और करीब से समझने लगा था। काॅलेज में पढ़ते हुए हमने छात्रों को एकत्र कर बंगाली शरणार्थियों को न्याय, सम्मान और हक दिलाने की मुहिम को तेज किया।
1973 में आठ छात्रों का प्रतिनिधि मण्डल दिल्ली पहुँचा। हमें केन्द्रीय पुनर्वास मंत्री खादिलकर से मुलाकात करनी थी। काफी मान मनोव्वल के बाद खादिलकर हमसे मिलने को राजी हुए। देखते ही हमपर बिफर पड़े। ‘‘जानते क्या हो शरणार्थियों के बारे में? लाखों की संख्या में तुम लोग यहाँ भाग कर आ गय। यहाँ जैसे इंतजाम होंगे वैसी ही तो व्यवस्था बनेगी। तुम लोगों ने सरकार की नाक में दम कर रखा है। सरकार तुम्हारी गुलाम नहीं है। तुम्हें तो सरकार और मेरा एहसान मानना चाहिए जो तुम लोग यहाँ हो। नहीं तो तुम लोग कबके मर खप गये होते।’’ मंत्री ने हमें डाँट-डपट के अपने आफिस से भगा दिया। सुनील हाल्दार बताते हैं कि तब उनके मन में सवाल आया, ‘‘क्यों न पूरे देश में बसे विस्थापित बंगालियों के बारे में जानकारी जुटाई जाए। कहाँ-कहाँ शरणार्थी बसे हैं और वे किस हाल में हैं, जानने के लिए मैंने साईकिल से यात्रा करने का निर्णय लिया।’’
सुनील हाल्दार साइकिल लेकर निकल पड़े। 26 महीने लगातार साइकिल चलाकर 18 राज्यों में बसे बंगाली शरणार्थियों से मिले और वस्तुस्थिति का जायजा लिया। सुनील हाल्दार बताते हैं कि उद्वास्तु समस्या को लेकर देश के पैमाने पर एक संगठन बनाने की प्रक्रिया शुरू की गयी। इस दिशा में तराई के विस्थािपत बंगालियों के नेता पुलिन विश्वास पहले से ही देश के पटल पर एक होकर आवाज बुलंद करने की लड़ाई लड़ रहे थे। वे पूरे देश के बंगाली शरणार्थी कैम्पों में घूम चुके थे। पुलिन बाबू देशभर में बंगाली समाज के गाँधी के नाम से जाने जाते थे। उन्होंने विस्थापितों की समस्या हल न होने तक कपड़े न पहनने की शपथ ले रखी थी। पूरा जीवन उन्होंने एक धोती में ही गुजार दिया।
1975 में आपातकाल से एक माह पहले मैं माणा वापस लौटा। वहाँ पहुँचते ही मुझे पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। 150 अन्य छात्रों और नेतृत्वकारियों को पुलिस ने पकड़कर रायपुर सेन्ट्रल जेल में बंद कर दिया। मैं 18 महीने जेल में रहा। बाद में पुलिस ने निजी मुचलके पर जेल से रिहा किया। पढ़ाई बंद। जेल से बाहर आया तो पता चला, माँ को मलकानगिरी गाँव न0-4(उड़ीसा) में पाँच एकड़ जमीन आवंटित हो गयी है। माँ दोनों भाइयों को लेकर वहाँ चली गयीं थीं। मैं भी कुछ दिन बाद मलकानगिरी पहुँचा। बंगाली विस्थापितों को बसाने का देश में सबसे बड़ा सेटलमेंट मलकानगिरी में ही हुआ। यहाँ शरणार्थियों के 221 गाँव बसाये गये। अन्य राज्यों में बसाये गये शरणार्थी गाँवों की तुलना में यहाँ के गाँव ज्यादा बड़े, घने और व्यापक थे। यह घनघोर जंगल का आदिवासी इलाका था। कोया आदिवासी जाति के लोग इस जंगल में रहते थे। जमीन बंजर, पथरीली थी। पठार का इलाका था। नंगे पहाड़, भयंकर गर्मी, दूर-दूर तक सिर्फ महुआ के पेड़ और कुछ नहीं। माओवादी और नक्सलियों का बोलबाला था।
वे बताते हैं कि 1947 से 1964 तक आने वाले बंगाली शरणार्थियों का सरकार के पास भी कोई ठीक-ठीक आँकड़ा नहीं था। हाँ, सरकारी आँकड़े के मुताबिक 1964 के बाद 1971 तक 2 करोड़ 65 लाख शरणार्थी भारत आये थे। इन्दिरा-मुजीब समझौते के तहत इसके बाद सरकार ने बाॅर्डर सील कर दिये। अब भारत सरकार और शरणार्थियों को लेने को तैयार नहीं थी। छुट-पुट और अवैध रूप से आने का सिलसिला बांग्ला देश बनने के काफी साल बाद तक चलता रहा। मुझे 1977 में डीएनके (दण्डकारयण) प्रोजेक्ट में नौकरी मिली थी। लेकिन इस बीच देश में पुनर्वास से वंचित बंगाली विस्थािपतों, भूमिहीनों को बसाने के लिए पश्चिम बंगाल के मरीचझांपी (सुन्दर वन) का आन्दोलन शुरू हुआ। मैं नौकरी छोड़कर आन्दोलन में कूद पड़ा। राय हरण बढ़ोई, रंगलाल गोल्दार, सतीश मण्डल, रवीन्द्र चक्रवर्ती, पवित्र विश्वास, महेश मजूमदार, राधाकान्त विश्वास, मेघनाथ शील, निर्मल ढाली आदि के नेतृत्व में देशभर से लगभग दो लाख बंगाली भूमिहीन मारीचझांपी जमा हो गये। सुन्दर वन की 36 हजार हेक्टेअर भूमि पर शरणार्थी झोपड़ी डाल कर बस गये। करीब डेढ़ साल तक आन्दोलन चलता रहा। ‘‘बांग्लार सात कोटी मानुष, चैददो कोटी हाथ, डाकछे। सब तीर्थ बार-बार, गंगा तीर्थ एक बार।’’ नारे के साथ सीपीएम भी इस आन्दोलन के साथ थी, लेकिन ज्योति बसु के मुख्यमंत्री बनते ही पार्टी ने अपना चरित्र बदल दिया। बंगाल के कुलीन वर्ग नहीं चाहता था कि दलित शरणार्थी वहाँ बसें। इसलिए सरकार ने दमन पूर्वक लोगों को खदेड़ दिया। नेताओं को पकड़कर जेल में डाल दिया। मैं खुद अलीपुर, दमदम सेन्ट्रल जेल और बशीरघाट में कई महीनों बंद रहा।
सीपीआई के मेरे मित्र और अशोक नगर से विधायक डाॅ साधन सेन ने मेरी जमानत ली। आनन्द बाजार पत्रिका में सीनियर फोटोग्राफर दिलीप घोष की पत्नी सुमित्रा घोष मुझे भाई मानती थीं। उनके और डाॅ सेन के आग्रह पर मैंने पश्चिम बंगाल छोड़ने का फैसला लिया। 1977 में आन्दोलन के दौरान ही मेरी शादी हो गयी थी। तीन साल की बेटी और गर्भवती पत्नी को लेकर 1980 में मैं रामनगर गोपिया (पीलीभीत) आया। यहाँ मछुआरों के साथ नाव चलाने का काम करने लगा। कुछ माह बाद दूसरी बेटी का जन्म हुआ, लेकिन वो छः दिन के बाद अचानक मर गयी। मुझे अपने हालात पर रोना आया। मैं फुटबाल का नेशनल खिलाड़ी और अच्छा चित्रकार था, बावजूद इसके मैंने डाॅक्टर बनने का इरादा किया। मेरी बेटी इलाज के अभाव में मरी थी, इस घटना ने मुझे डाॅक्टर बनकर लोगों की सेवा करने की और अग्रसित किया। 1981 में फिर दिनेशपुर आया और डाॅ गुरूचरण सिंह के क्लीनिक पर काम करने लगा। 1982 में कम्युनिटी हैल्थ ग्राइड की ट्रेनिंग के लिए ग्राम चन्दननगर के लिए मेरा चयन हुआ। 18 महीने की ट्रेनिंग के बाद मैं मरीज देखने लगा। अब मैं सुनील हाल्दार से डाॅ सुनील हाल्दार हो गया था। साथ ही राजनीतिक गतिविधि भी शुरू कर दी। 1996 में मैंने बसपा से हल्द्वानी विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा। दूसरे नम्बर पर रहा। उत्तराखण्ड बनने के बाद 2007 में सीपीएम से गदरपुर विधानसभा क्षेत्र चुनाव लड़ा, लेकिन कामयावी नहीं मिली।
डाॅ सुनील हाल्दार कहते हैं कि विस्थापित बंगाली समाज की न्याय, सम्मान और हक की लड़ाई आज भी जारी है। ‘‘मैं मरते दम तक इंसाफ के लिए लड़ता रहूँगा। हमें पश्चिमी पाकिस्तान के शरणार्थियों की तरह आज तक अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर भारत सरकार द्वारा रिफ्यूजी नहीं माना गया है। बंगाली समाज आज भी डरा, सहमा और सरकार द्वारा उपेक्षित है। भारत में हम दोयम दर्जे के नागरिक ही बने हुए हैं। जिन्हें न नागरिकता मिली, न मुआवजा, न आरक्षण और न ही मातृभाषा का अधिकार।’’
–रूपेश कुमार सिंह