-रूपेश कुमार सिंह

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किस्से में बदल जाओगे तुम ‘कोरोना’

ने वाली पीढ़ी के लिए किस्सा बनकर दुनिया में जिन्दा रहोगे तुम ‘कोरोना।’ हमने नहीं देखा स्पैनिश फ्लू, प्लेग, चेचक, हैजा, मलेरिया जैसी विकराल महामारियों को, जिसने लाखों-लाख लोगों को काल के गाल में समां दिया। किस्से पढ़े और सुने जरूर हैं अपने बड़ों से। गाँव के गाँव चंद दिनों में खत्म होने की दास्तां सुनने भर से रुह कांप उठती है। आज कोरोना के चलते वो सब त्रासदी साक्षात होती हुई दिख रही है। यह महाप्रलय कहाँ जा कर थमेगी, अभी कहना असंभव है। लेकिन जिन्दगी जीतेगी, इसका भरोसा है। किसी चमत्कार से नहीं, बल्कि विज्ञान के बल पर दुनिया फिर से रंगीन और गुलजार होगी। सब कुछ सामान्य होने पर सुनाये जायेंगे नयी पीढ़ी को कोरोना के किस्से।
टूटटी जिन्दगी की आह, भूख से उठती पेट की कराह, मासूम को कोख में खोने की पीड़ा, पीठ पर पड़ी एक-एक लाठी का दर्द, निरंकुश होती पुलिस, आपा खोती सरकार, उजड़ती दुनिया, जुगाली करते हुकमरान, बिना उपकरणों और ठोस तैयारी के कोरोना से जंग, सैकड़ों किमी का पैदल सफर, रैंगता समय, नफरत की घिनौनी राजनीति, गाँव को लौटते मजूदर, खाली होते शहर, सुनसान सड़कें, वाहनों के थमे पहिए, स्वच्छ हवा, बेमौसम बरसात, प्रदूषण से दूर खुला आसमान, मदद पहुँचाते लोग, घरों में सिमटे लोग, शराब की दुकान पर चालिस दिन बाद लोगों की सुनामी, एक ही दिन में सबसे सबसे ज्यादा शराब बिकने का रिकार्ड, अच्छे और बुरे न जाने कितने अनुभव बनकर तुम बतलाये जाते रहोगे हमेशा-हमेशा, पीढ़ी दर पीढ़ी। स्वाईन फ्लू, वर्ड फ्लू, सार्स, एन्थ्रेक्स, डेंगू को तो हमने देखा है और देख भी रहे हैं। लेकिन तुम बहुत खतरनाक हो। तुम सिर्फ लोगों की ही नहीं मार रहे हो, तुम देश की अर्थव्यवस्था से लेकर सामाजिक ताने-बाने को भी छिन्न-भिन्न कर रहे हो।

हर व्यक्ति अलग अनुभव कर रहा है कोरोना काल में। सबको अपने अनुभव और गतिविधि साझा करनी चाहिए। कोरोना काल में भाग दो के तहत फेसबुक पर दर्ज अपनी गतिविधियों को आपके सामने रख रहा हूँ।

कायर बने रहकर जिन्दा रहने के क्या मायने???

सुबह 7 बजे से एक बजे तक आज कुछ ढिलाई बरती गयी है। करीब नौ बजे मैं भी बाजार का हाल लेना पहुंचा। भारतीय जरनल स्टोर के पास एक दूधिया अपने वाहन के साथ सड़क पर गिर गया था। सुबह से बिना कुछ खायें.पियें बंदा दूध बांट रहा था। यह क्रम कई दिनों से बदस्तूर जारी है। छोटे.छोटे बच्चे बिना दूध के न रह जायेंए इसके लिए 22 मार्च से बंदा सुबह पाँच बजे उठकर काम में जुट जाता है। कमजोरी के कारण आज अचानक चक्कर खाकर वो सड़क पर गिर पड़ा। मोटरसाइकिल का स्टैंड उसके पैर में धंस गया था। भीड़ जमा हो गयी। सब तमाशा देख रहे थे। इतने में मैं भी वहां पहुंच गया। कोरोना के डर से कोई हाथ लगाने को तैयार नहीं था। मैंने उन्हें उठाने का प्रयास कियाए लेकिन उनके पैर से खून निकल रहा था। वो बेहोश थे। इतने में मेरे मित्र विकासऋआरोरा और एक युवक ने हिम्मत दिखाई। हम तीन उन्हें निकट के निजी अस्पताल ले गये। भीड़ कोरोना की चर्चा करते हुए छंट गयी। इस कोरोना ने इंसान को बहुत आत्मकेन्द्रित बना दिया है। मानवीय मूल्य दफन हो रहे हैं।

अरे! यदि समाज में मानवता नहीं बचेगी तो जी कर क्या करोगे??
जिन्दा लाश में तब्दील होकर क्या समाज बचेगा??
कायर बने रहकर जिन्दा रहने के क्या मायने???
मजबूर और असहाय लोगों की मदद को आगे आओ दोस्तों!

(28 मार्च 2020)

चिता जलाने को भी न जुट रहे लोग मोमबत्ती जलाकर क्या होगा???

पिछले दिनों मेरे कस्बे के एक लाला जी गुजर गये। बुजुर्ग थेए पर इस दुनिया को अलविदा कहने की नौबत तो नहीं थी अभीए लेकिन अचानक ही निकल लिए। चार दिन की बीमारीए उल्टी.दस्त में। कोरोना के भय से न तो रिश्तेदार आये और न ही नगर के लोग। गिने.चुने लोग घाट पर मौजूद थे। चिता सजाने को कोई तैयार न था। लकड़ी उठाने से भी लोग कतरा रहे थेए जैसे मानो लकड़ी छूने भर से उन्हें कोरोना हो जायेगा। शव को हाथ लगाने की बात सोचना तो दूर की कौड़ी थी। मैंने और दो.तीन लोगों ने चिता की लकड़ियां सजाईं। घाट पर रहने वाले एक साधू ने हमारी मदद की। जो रिश्तेदार नहीं पहुंच पाये थेए उन्हें दिवंगत आत्मा के दर्शन मोबाइल पर वीडियो काॅल के जरिए कराने में दो.चार लोग व्यस्त थे। खैर, जैसे-तैसे•••

लोग दिया जलाने को तो छटपटा रहे हैंए लेकिन लाश जलाने को तैयार नहीं हैं। कोरोना के डर से न तो कंधा देने वाले मिल रहे हैं और न ही चिता सजाने वाले। यह कैसी भेड़ चाल है लोगों को सांत्वना देने के लिए आसपास के लोग तैयार नहीं हैं और कथित हौसलाफजाई के लिए पागल हुए फिर रहे हैं? सामाजिक ताना-बाना और सामंजस्य तो पहले से ही तार.तार हो रखा है। लोगों के बीच साम्प्रदायिकता की नफरत तेजी से बढ़ रही हैए ऐसे में फिज़िकल डिस्टैंस को सोशल डिस्टैंस में तब्दील करके दूरियाँ और पनप रही हैं। पिछले दस दिन में तीन मौत में जा चुका हूँ। शमशान घाट तक अन्तिम संस्कार में 20 लोगों से ज्यादा न पहुंचें बात समझ में आती हैए लेकिन आप-पास के लोग इस दुःख की घड़ी में अपने दरवाजे से बाहर तक न निकलेंए कितनी कायराना हरकत है यह??? यह जानते हुए कि संतप्त परिवार का बाहर के लोगों से मिलना.जुलना नहीं हैए फिर भी सामान्य मौत को लोग कोरोना से जोड़ कर दूरी बना रहे हैं। वही लोग कथित साहस बढ़ाने के लिए ताली.थाली बजाने और मोमबत्ती जलाने की पैरवी कर रहे हैं। जब तुम्हारे भीतर मदद करने का साहस नहीं है, तो तुम उन लाखों पुलिस वालोंए सफाई कर्मचारियों, प्रशासनिक अधिकारियों और सबसे ज्यादा अपनी जान जोखिम में डाल कर मरीजों का इलाज कर रहे लाखों डाक्टरों और स्टाफ की क्या खाक हौसलाफजाई करोगे? तुम सिर्फ नौटंकी कर सकते हो। और इस किस्म की नौटंकी से कोरोना हारने वाला नहीं है। न ही मंदिर-मस्जिद से कोरोना की रोकथाम हो सकती है। उसके लिए हमें अपने स्वास्थ्य विभाग को मजबूत करना होगा। लोगों में जागरूकता लानी होगी। तमाशबीन बने रहे वालों में मैं नहीं हूँ, और भीड़ के साथ बहने की आदत भी नहीं है। मैं कल भी एक लाश को, चिता सजाकर अग्नि के हवाले करके आया हूँ, वो भी रानीबाग, हल्द्वानी जाकर। मुझे झूठे दिये जलाने की जरूरत नहीं है। हाँ, कोरोना को हराने के लिए और लोगों की मदद के लिए मेरे दिलए दिमाग में हमेशा अग्नि प्रज्ज्वलित है। आप लोग अपने बारे में विचार करो।

(05.04.20)

किताबें हैं सच्ची साथी

रमूडा पहनकर मैं गर्मी में भी बाजार तक नहीं जाता। पिछली गर्मी का एक मात्र पैजामा गंदा हो गया थाए भतीजे के पेशाब करने से। सो आज काली टी शर्ट और बरमूडा पहनकर निकल लिया। टीका.टिप्पणी करने वाले कम नहीं होते हैं। अरे सर आप और पैदलघ् मस्ती भरी बात कर लोगों से दूर से मिलने.जुलने और उनकी कुशलक्षेम पूछने में आनन्द आ रहा है। नोटिस करने वाले यह न भूले मेरे पास लाकडाउन में रिपोर्टिंग करने के लिए अपना और गाड़ी का पास है। लेकिन यह महत्वपूर्ण समय है। इतना खाली समय फिर कहाँ मिलेगाघ् सो मैं घर पर बैठकर एक किताब पर काम कर रहा हूँ।

आप.पास के मित्र, संबंधी, जानने वाले बड़े परेशान हो रहे हैं घर मैं बैठे-बैठे। मैं उन्हें मिलकर किताबें दे रहा हूँ और पढ़ने की आदत डालने को बातचीत कर रहा हूँ। मास्साब की किताब गाँव और किसान इन दिनों बहुत प्रासंगिक हो गयी है। गाँव और किसान राष्ट्रीय विमर्श का विषय कभी नहीं बने, लेकिन अब लोग गाँव को लौट रहे हैं तो उम्मीद है हालात सामान्य होने पर गाँव और किसान पर चर्चा व्यापक होगी। दुर्गापुर न02 पहुंचा पैदल-पैदल। विक्रम सिंह जी से बात हुई। उनकी गौशाला में मैंने हमेशा चार-छः जानवर देखे थे। लेकिन आज सिर्फ एक गाय जुगाली कर रही थी। मेरे सवाल पर रुबापू जी बोले, “बेटा चारा कहाँ से लायें? दाना कहाँ से लायें? एक गाय पालने में एक साल का खर्च 35.40 हजार आता है। दूध चार माह भी चढ़कर नहीं मिलता। दूधिया 30 का भाव दे रहा है। गाय खाली हो तो और मुसीबत। पहले तो वो ले जाते थे जिनके नाम पर आज राजनीति हो रही है।”

कुल मिलाकर जानवर पालना टेड़ी खीर है। बापू जी के समय घर पर डेयरी होती थी। मतलब 15-20 जानवर। विक्रम भाई के समय में यह संख्या घटकर 5-7 हो गयी। अब उनका बेटा बालिग़ हो चला हैए लेकिन गाय बची एक। तीन पीढ़ी का चक्र देखिए। खैर, काफ़ी पी और गाँव और किसान किताब देखकर मैं सतिन्दर सर के घर की ओर बढ़ लिया। फोन पर उन्होंने बताया कि वो सुभाष सर के ग्राउंड में हरी घास पर नंगे पैर टहल रहे हैं। मैं भी जा धमका। मेघना मैम ने दरवाजे पर स्वागत किया। वो फोन लेकर टहलने में बिजी हो गयीं और हम लोग देश-दुनिया की बातों में। बीमारी के राजनीतिकरण और समाज में छद्म प्रोपेगेन्डा पर विस्तार से बात हुई।

जीवन कितना चुनौतीपूर्ण हो चला है आम जन मानस का और कैसे साम्प्रदायिक तनाव जहर बनकर लोगों की नशों में बहने को आतुर है, आदि-आदि बहुत मुद्दों पर बात हुई। सतिन्दर सर अपनी आलीशान कोठी पर ले गये। भाभी जी ने कोल्ड काफी, काजू और इमरती बिस्कुट पेश किए। चलने के बाद कुछ भूख तो जोर मार रही थीए इसलिए काफ़ी के साथ आधा मुट्ठी बादाम तो निगल ही लिये होंगे मैंने। वैसे इस महंगाई में बादाम मिल कहाँ रहे हैं? शुक्रिया इस बात का, सतिन्दर सर ने पत्रिका के लिए कुछ आर्थिक सहयोग भी दिया। इस लाकडाउन में यह बड़ी मेहरबानी है। कोठी में सबकुछ शानदार है, बस एक छोटी सी बुक काॅर्नर की कमी लगी। जल्द ही सतिन्दर सर इसे पूरा करेंगे। वास्तव में हर घर में एक मिनी लाइब्रेरी होनी चाहिए। गार्गी प्रकाशन की मेरी दोस्त रेनू को मैंने कुछ किताबें सेलेक्ट करने को कह दिया है। घर आने पर दस बजे दो रोटी लौकी की सब्जी से खाकर सोने जा रहा हूँ। आसपास के जिन साथियों को गाँव और किसान किताब चाहिएए मुझे फोन करें उनके घर पर मैं किताब, प्रेरणा-अंशु और अन्य बुक भी उपलब्ध करा दूँगा। आप घर पर रहे और स्वस्थ रहें, पढ़ने की आदत डालें। किसी जरूरतमंद को राशन आदि की आवश्यकता हो तो भी बताना। पिछले चार दिन से मैं शाम को दिनेशपुर पैदल ही नाप रहा हूँ, यह सुखद है मेरे बढ़े पेट की लिए भी और क्षेत्र के प्रति अपनी समझदारी बढ़ाने के लिए भी।

स्थानीय साथी कृपया फोन करें 9412946162

01.05.2020

रूपेश कुमार सिंह

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