पश्चिम बंगाल में पांच दिन (भाग-एक)

yatra
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कोलकाता यात्रा से……
भाग-एक

पश्चिम बंगाल में पांच दिन

-रूपेश कुमार सिंह

वातावरण देखकर भी आदमी खामोशी लाद लेता है, कतई चूं…चां…नहीं। सब कुछ शान्त….शान्त….बिल्कुल शान्त। ए0सी0 हवा की सरसराहट भी साफ-साफ कानों में पहुंच रही है। रात के लगभग एक बजे हैं। सुबह की फ्लाइट से जाने वाले यात्री कुर्सी पर झूल रहे हैं। ट्राली पर लदे बैग के ऊपर पैर रखकर यात्री सोने की असफल कोशिश में हैं। कुछ कोने में जाकर फर्स पर चद्दर डाल चुके हैं। खर्राटे की आवाज भी बीच-बीच में उठ रही है। सफाई कर्मी फर्स को रगड़ने में लगे हैं। पता नहीं संगमरमर को और कितना चमकायेंगे। चकाचक सफाई को देखकर मैं दो-तीन बार टायलेट भी घूम आया। काश! अपना देश भी ऐसे चमकता होता।

रुक-रुक कर एनाउंसमेंट हो रहा है। पास ही एक काफी हाउस है, लेकिन बहुत महंगा। पानी की बोतल भी वहां साठ रुपये की है। जो लोग खा-पी रहे हैं, उन्हें देखने का अपना अलग मजा है। कुछ बेबसी, कुछ सवाल….। सुरक्षा कर्मी अलर्ट हैं। हर यात्री की कम से कम दस मिनट तक सघन चैकिंग चल रही है। काश! ऐसी तत्परता देश के हर विभाग में देखने को मिलती। खैर, तीन अगस्त को मैं और साथी मनोज राय दिल्ली के एयरपोर्ट टर्मिनल एक डी पर कोलकाता की फ्लाइट के इंतजार में एक दूसरे से बतिया रहे हैं।

तकरीबन तीन बजे विंडो ओपन हुई। सुन्दर-सुन्दर बालाओं ने गुड मार्निंग से स्वागत करना शुरू कर दिया है। टिकट बनने के बाद फिर से पुलिस की उबाऊ चैकिंग शुरू हो गयी है। बेल्ट, पर्स, इलैक्ट्रिक सामान, मोबाइल, घड़ी, पता नहीं क्या-क्या चेक किया गया। थोड़ा अटपटा लगा, लेकिन सुरक्षा के लिहाज से आवश्यक है, यह जानकार खास बैचेनी नहीं हुई। अन्दर पहुंचे तो एक बड़े से आलीशान बाजार ने हमें अपनी ओर आकर्षित किया। लेकिन सिर्फ देखने के लिए….कुछ भी खरीद पाना अपने वस में नहीं था। हां, शराब की बोलते जरूर सस्ते दाम पर उपलब्ध थीं। दुनिया की सारी महंगी शराब वहां करीने से सजी थीं। तरह-तरह की इतनी सारी शराब एक जगह पर देखना अद्भुत था।

तमाम औपचारिकताओं के बाद सुबह लगभग पांच बजे हम गेट न 2 से एयर एशिया की फ्लाइट पर पहुंचे। वहां खैरमकदम के लिए हाथ जोड़े दो एयर होस्टेज खड़ी हैं। अब हम अपनी सीट पर बैठ चुके हैं। कप्तान के दिशा-निर्देश पालन करने को कहा जा रहा है। सबा छः बजे हमारी फ्लाइट उड़ान भर चुकी है। हम बादलों के बीच पहुंच चुके हैं। नीचे का नजारा देखने लायक है। सुन्दर सी एक एयर होस्टेज हमारे लिए पानी फिर नाश्ता ले आयी है। एयर होस्टेज हमारी हर सुविधा और परेशानी लिए मुस्तैद हैं। थोड़ी देर बाद दूसरी एयर होस्टेज हाथ में गल्पस पहने मुस्कराती हुई डस्टबिन लेकर हमारे सामने थी। जो कूड़ा हमने सीट के नीचे खिसकाया था, उसे उठा कर वो अपने साथ ले गयी। हिन्दी और इंग्लिश में वे पारंगत हैं। प्रकृति का अद्भुत नजारा देखते हुए कब पौने दो घंटे बीत गये पता ही नहीं चला। सात बजे हम कोलकाता के दमदम एयरपोर्ट पर लैंडिंग के लिए तैयार हैं। कैप्टन की हिदायतों को एयर होस्टेज ढंग से समझा रही हैं। हम लैंडिंग के मंजर को मोबाइल में कैद करने को फिट हैं। मनोज दा ने मोबाइल के कैमरे का रुख खिड़की की ओर कर दिया है। धीरे-धीरे हम नीचे उतर रहे हैं। पेट में अजीब सी गुदगुदी हो रही है। हमारी नजरें अब रनवे पर हैं। काफी दूर जाकर पहिए जाम हुए और हम सही सलामत कोलकाता पहुंच चुके थे।

क्लब वामपंथी विचारधारा के गढ़ बने फिर अराजकता के अड्डे

दिनेशपुर को उत्तराखण्ड का मिनी बंगाल कहा जाता है। इसलिए बहुत छटपटाहट थी, कोलकाता घूमने की। हमने मनोज राय के मामा के घर बैग रखा, सुबह का नाश्ता लिया और जय को साथ लेकर हम घूमने निकल लिए। कोलकाता में नाश्ते को टिफिन कहा जाता है। पहले दिन हमने वहां के क्लबों को देखा। लगभग 12-15 छोटे-बड़े क्लब में जाकर हमने लोगों से बात की।
कोलकाता में युवाओं के बैठने के अड्डे सी0 पी0 एम0 के जमाने में क्लब बनें। क्लब पठन-पाठन, शारीरिक दक्षता, मनोरंजन, थियेटर, स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक और धार्मिक गतिविधियों के केंद्र थे। हर बड़े मोहल्ले में क्लब का विस्तार हुआ। शहरों के नजदीक मोहल्ले और कस्बों में क्लब बहुत सुदृढ़ व आलीशान हुए। धीरे-धीरे वामपंथी विचारधारा के गढ़ बने और बाद में अराजकता के अड्डे। मतलब जहाँ से शुरू हुए थे, वहीं आकर जम गये।

25-30 साल में वामपंथी दिशा निर्देश के बावजूद क्लब क्यों पतित हुए, यह महत्वपूर्ण सवाल है। आज क्लब के नाम पर खण्डहर में तब्दील होती बिल्डिंग हैं, लाइब्रेरी हैं, लेकिन किताबें नहीं, कहीं किताबें हैं तो पढ़ने वाले नहीं, टूटी फूटी कुर्सियां कोने में धूल फांक रहीं हैं। सामान तितिर-बितिर है। एक कमरे में लड़के सिगरेट पी रहे रहे हैं, और कैरम खेल रहे हैं। बगल के कमरे में दो नौजवान बच्चों को चित्रकला के गुण सिखा रहे हैं। इस दौर में जब क्रियेशन कथित राष्ट्र भक्ति बन गयी हो, तो इन नौनिहालों का कुछ मन माफिक रचनात्मक करना आशा की एक किरण दिखाता है। स्थानीय लोगों ने बताया कि अब क्लब का कांसेप्ट बदल गया है, कभी कोलकाता के क्लब नयी-नयी विविधता पूर्ण गतिविधियों के केंद्र थे, आज अधिकांश बंद हैं या बदहाल हैं।

पहले राज्य सरकार कुछ पैसा सालाना क्लब को देती थी, लेकिन पिछले पांच साल से वो भी बंद है। पहले क्लब में एक डाक्टर तीन घंटे के लिए नियमित बैठता था। बच्चों को पढ़ाने की व्यवस्था थी। लेकिन अब वैसा कुछ नहीं है। क्लब अपना अस्तित्व खो रहे हैं। हां, कोलकाता की राजनीतिक खींचातानी में बचे खुचे क्लब, दलों के बर्चस्व की आग में भुन रहें हैं। पहले टीएमसी और वाम पार्टी आमने-सामने थीं, लेकिन अब नये सिरे से आर0 एस0 एस0 और भाजपा ने क्लबों पर कब्जा जमाना शुरू कर दिया है। जानकारी हुई कि कई जगह क्लब में तो आर0 एस0 एस0 की शाखाएं भी संचालित हो रही हैं।

बड़ा सवाल यह है कि जिस राज्य में तीस साल वामपंथी दलों का शासन रहा हो, वो राज्य इतना आक्रामक, हिंसक, अस्थिर, पिछड़ा, गरीब, असुरक्षित और असंवेदनशील कैसे हो सकता है???
सवाल और भी बहुत हैं, लेकिन जवाब देने को कोई तैयार नहीं है।

अगले भाग में जारी…

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