जरूरी है एक मुकम्मल लड़ाई भाजपा-कांग्रेस के खिलाफ (भाग – दो)

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जरूरी है एक मुकम्मल लड़ाई भाजपा-कांग्रेस के खिलाफ

-रूपेश कुमार सिंह

किस्सा पुराना, लेकिन है दिलचस्प

 किस्सा पुराना, लेकिन दिलचस्प है। एक जंगल में बहुत सारे कबूतर रहते थे। बहेलिया आये दिन कबूतरों को दाना डालकर अपने जाल में फंसा लेता था। एक बुजुर्ग कबूतर ने बहेलिये की चाल समझ ली और सारे कबूतरों को बहेलिये के खिलाफ आन्दोलन करने के लिए तैयार किया। बहेलिया के षड़यंत्र से मुक्त होने का आहवान हुआ। उसने सभी कबूतरों को एकत्र किया और पाठ पढ़ाना शुरू किया।

‘‘देखो साथियों ! बहेलिया आयेगा, जाल बिछायेगा, दाना डालेगा, लेकिन लोभ में, लालच में, षड़यंत्र में, बहकावे में नहीं पड़ना है। हमें उसके जाल में नहीं फंसना है, संगठित रहना है। अकाल मृत्यु को प्राप्त नहीं होना है। आप सभी मेरी बात समझ गये न???’’ बुजुर्ग कबूतर ने पूछा। सभी कबूतरों ने हामी भर दी और बुजुर्ग कबूतर की बात का समर्थन किया।

एक दिन बहेलिया आया और हर रोज की तरह जाल बिछाया, दाना डाला, लेकिन कोई कबूतर जाल में नहीं फंसा। बहेलिया ऐसा कई दिनों तक करता रहा, लेकिन उसे कामयाबी नहीं मिली। उसे अपने पर भरोसा था और कबूतरों की एकता टूटने की पूरी उम्मीद भी। उसने कोशिश जारी रखी। इधर बुजुर्ग कबूतर लगातार भाषण दे रहा था, कबूतरों को संगठित कर रहा था। आखिरकार बहेलिये ने एक दिन खूब रंग-बिरंगा जाल बिछाया, दाना डाला और नये किस्म का प्रलोभन दिया। इधर कबूतर भी बिखर गये थे, लापरवाह हो गये थे। अब क्या था नये दानों पर मदहोश कबूतरों का बड़ा झुण्ड बुजुर्ग कबूतर की शिक्षा भूल कर दाने चुंगने को चले दिया। देखते ही देखते सारे के सारे कबूतर जाल में फंस गये। और ऐसे फंसे कि बाहर आने की कोई तरकीब ही नहीं सूझी।

‘‘बहेलिया शातिर था, कबूतरों की कमजोरी जानता था, और जुमलेबाज तो गजब का था। कबूतर बुरी तरह से फंस चुके हैं और बहेलिया पिछले 18 साल से चैन की बंशी बजाने में मशगूल है।’’

हर बार दिल्ली से ही मुख्यमंत्री तय हुआ

पृथक उत्तराखण्ड की लड़ाई हम जिनसे मुक्ति के लिए लड़ रहे थे, अफसोस 18 साल पहले हम उनके जाल में ऐसे फंसे कि बाहर निकलना मुश्किल हो रहा है। कांग्रेस-भाजपा के पास उत्तराखण्ड के लिए कोई नीति नहीं है। पहाड़ के जमीनी फैसले भी दिल्ली में बैठकर हो रहे हैं। अफसोस चार निर्वाचित विधानसभा में चुने गये सदस्यों द्वारा मुख्यमंत्री का चुनाव तक नहीं हुआ। हर बार दिल्ली से ही मुख्यमंत्री तय हुआ। उसने काम भी अपने आकाओं के हित में किये और कर रहे हैं।

बंदरों और मुख्यमंत्रियों की फौज के अलावा कुछ नहीं मिला

18 साल में इस राज्य को बंदरों और मुख्यमंत्रियों की फौज के अलावा कुछ नहीं मिला। बंदरों ने पहाड़ की खेती चौपट की और अब तक के नौ मुख्यमंत्रियों ने पूरे उत्तराखण्ड को चौपट किया। मौजूदा लूट और बदहाली को देखकर आम आदमी खुल कर कह रहा है कि इससे तो उत्तर प्रदेश में ही ठीक थे। वास्तव में आज राज्य से भाजपा-कांग्रेस को बाहर खदेड़ने की सख्त जरूरत है। बिना इन पार्टियों को खदेड़े हम राज्य की मूल अवधारणा को साकार नहीं कर पायेंगे।

युवा आन्दोलनकारियों को करनी चाहिए पहलकदमी 

इसमें कोई दो राय नहीं कि इन राष्ट्रीय पार्टियों के एजेंट गांव-गांव बैठे हैं। संसाधन और पैसे में वो बहुत आगे हैं। मुद्दे से ध्यान भटकाने में वो बहुत चतुर और माहिर हैं। इस मठाधीशों से सत्ता छीनना मुश्किल है, लेकिन असंभव नहीं है। संघर्षशील ताकतों के पास जनता की शक्ति है। जिसे पहचानने की जरूरत है। संगठित करने की आवश्यकता है। यदि आज भी राज्य के तमाम संघर्षशील और आन्दोलनकारी ताकतें व वैकल्पिक राजनीति में सक्रिय पार्टी और नेता एक हो जायें तो 2022 में भाजपा-कांग्रेस को पराजित करना कोई मुश्किल काम नहीं है। इसके लिए अपने-अपने स्वार्थ और महत्वाकांक्षा को त्यागना होगा। अभी से एक बड़े राजनीतिक मोर्चे की ओर बढ़ना होगा। इसकी पहलकदमी युवा आन्दोलनकारियों को करनी चाहिए।

जब सात सौ नौजबान एक साथ होंगे

राज्य के 13 जनपदों में संगठन को मजबूत करना होगा। प्रदेश में सत्तर विधानसभा सीटें हैं। प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में दस-दस नौजवान साथियों को मजबूती के साथ खड़ा करना होगा। जब पूरे प्रदेश से सात सौ नौजवान भाजपा-कांग्रेस के खिलाफ खड़े होंगे, तो यकीन मानिये इन पार्टियों की घुन खायी इमारत ताश के पत्तों की तरह ढह जायेगी। जब सात सौ नौजबान एक साथ होंगे, तो क्षेत्रीय दल और संगठन भी इस एकता में शामिल होंगे। उनको एक मंच पर लाना आसान होगा। अपनी-अपनी दुकानदारी से कुछ नहीं होगा। यही समय है जब उत्तराखण्ड की सत्ता पर यहां के आन्दोलनकारियों को काबिज होना ही चाहिए।

जब कारवां लुट रहा था, तो तुम खामोश क्यों थे?

बस जरूरत एक नारे को उछालने की है। ‘‘भाजपा-कांग्रेस को उत्तराखण्ड से बाहर खदेड़ो’’ यही एक नारा होना चाहिए। यहां की संघर्षशील ताकतें जिस दिन अपने-अपने तार्किक, वैचारिक मतभेद को भुला कर यह नारा बुलंद करेंगे, उस दिन राज्य की जनता जरूर तख्ता पलट कर देगी। 2022 में एक मुकम्मल लड़ाई यदि भाजपा-कांग्रेस के खिलाफ हमने नहीं लड़ी, तो हमारे पास पछताने के अलावा कुछ शेष नहीं बचेगा। लुटते हुए कारवां पर यदि हमारी चेतना नहीं जागी, तो आने वाली पीढ़ी भी हमसे सवाल करेगी, ‘‘जब कारवां लुट रहा था, तो तुम खामोश क्यों थे?’’ मेरी बातों में हीरोइज्म लग सकता है, लेकिन यह बैचेनी आज हर उत्तराखण्डी के दिल में है। बस जरूरत उस आक्रोश को संगठित करने और एक ठोस विकल्प देने की है।

अन्त में इन पंक्तियों से बात खत्म करूंगा-

‘‘मैं चाहता हूं निजाम-ए-कुहन बदल डालू मगर यह बात फकत मेरे बस की बात नहीं उठो, बढ़ो मेरे उत्तराखण्ड के आम इंसानों यह सब की बात है दो, चार, दस की बात नहीं’’ 

समाप्त…

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