कहानी- न्यौछावर

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कहानी- न्यौछावर

रूपेश कुमार सिंह

…दाम्पत्य जीवन की शुरुआत और यहाँ प्रेम की लिपटा-चिपटी की जगह दोनों की आँखों में भविष्य की आशंका, तमाम योजनाएं घर बना रही थीं।
झोपड़ी की छत को चीरकर आसमान तक पहुँचने के सपनों का रेखांकन खिंच रहा था। जिन्दगी को कैसे बेहतर बनाया जाए? झोपड़ी को कैसे टीन-शेड में बदला जाए? माँ-बाप एवं भाई-बहनों की परवरिश कैसे सही तरह से की जाए? आदि…आदि…।
सवाल दोनों की पहली रात में बात-चीत के मुद्दे थे।
जमाने से हटकर, बिल्कुल अलग अंदाज था दोनों के विचार मंथन का।
अब गृहस्थ तो हो ही गया था रघुआ और राधा भी उसकी चिंताओं की हमसफर थी।

“सारे सवालातों पर एक राय बनने के बाद प्रेम का खुमार भी ऐसे टूटा जैसे दिहाड़ी पूरी की हो। साँसों का उतार-चढ़ाव थमा तो संयत होकर रघुआ ने खटिया के सिरहाने से बंडल निकाला। दो-चार सुट्टे लगाने के बाद अचानक अनमने भाव से उसने बीड़ी बुझा दी।”

राधा ने सहज औरताना अंदाज में आत्मीयता से पूछा, “ऐ जी! क्या सोच रहे हो?”
“…अरे! चिंता छोड़ों|” राधा ने रघुआ से चिपकते हुए कहा।
दोनों की बाँहों ने यकायक एक-दूसरे को मजबूती के साथ जकड़ लिया।
पहली रात…तिस पर लम्बी बातें और मीठी थकान, रघुआ की आँखों में नींद पसरने लगी। यही हाल राधा का भी था।

****
सुबह हुई। रघुआ का जी चाह रहा था पड़ा रहे पूरा दिन, पर चौके के खटर-पटर ने उसे उठा दिया। राधा पहली भोर से घर का काम-काज समझने में जूट गयी थी।
“पहले दिन से राधा ने ऐसे घर संभाला, जैसे इसी घर के लिए ही बनी हो।” रघुआ ने मन ही मन सोचा, चेहरे पर मुस्कान खिल उठी।
“शादी का दूसरा दिन और फिर वही काम। काश! इतना भर तो होता कि पाँच-दस दिन बैठकर खा सकते।” खैर रघुआ काम पर चला गया।
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रघुआ मेहनत-मजदूरी करता और राधा घर को संभालती। दोनों बहुत ख़ुशी-ख़ुशी जीवन का सफर तय कर रहे थे। सावन और बसंत से गुजरते हुए उनकी शादी को दो साल हो चुके थे। रघुआ के घर किलकारी गूंज उठी। राधा ने पुत्र को जन्म दिया। दोनों का जीवन और भी आनंदमय हो गया। लड़के का नाम राजू रखा गया। प्यार से सभी उसे रजुआ कहकर पुकारते थे। लड़के को बड़ा आदमी बनाने की ख्वाहिश ने रघुआ व राधा को और भी ज्यादा परिश्रमी बना दिया। समय बीतता गया। रजुआ पहली का कायदा पढ़ने लगा था। राधा फिर पेट से थी। इस बार कन्या का जन्म हुआ। घर का माहौल खुशियों से भर गया। दोनों प्रसन्न थे।
बच्चों को बड़ा इन्सान बनाने की चाहत ने और भी ज्यादा जिम्मेदारी से भर दिया था रघुआ और राधा को। परवरिश में गरीबी को आड़े नहीं आने देना चाहते थे दोनों।
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रजुआ अब चौथे में था। राखी भी स्कूल जाने लगी थी। रोज की तरह उस सुबह भी बच्चे तैयार होकर स्कूल चले गये और रघुआ टिफिन लेकर काम पर निकल गया। किसे मालूम था, आज राधा के हँसते-खेलते परिवार के साथ अनर्थ होने वाला है? खैर! होनी को कौन टाल सका है?
रघुआ नींव की खुदाई कर रहा था। अचानक पड़ोस की दीवार ढह गयी। रघुआ दीवार के नीचे दबकर मौत की चिर निद्रा के आगोश में समा चुका था। राधा की सारी खुशियाँ छिटक गयीं। एक ही पल में सब कुछ तहस-नहस हो गया।
“तुम्हारे बिना हमारा कौन है स्वामी? हमको भी अपने साथ ले चलो।” रो-रो कर राधा का बुरा हाल था।
पर रघुआ होता तब तो उसकी सुनता, वह तो उसका शव था।
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खैर! समय कब रूका है जो अब रूकता। दिन-पर-दिन बीतने लगे, लेकिन राधा का शून्य सा खालीपन किसी भी कीमत पर भरने को तैयार न था।
“अब राधा अखरने लगी थी।” जो सास-ससुर कल तक राधा के अपने थे, धीरे-धीरे उससे कटने लगे थे।
वह दिन भी आ गया जब ससुराल वालों ने राधा को घर से निकाल दिया।
बेचारी बदहवास स्थिति में लुटी-पिटी सी बच्चों को लेकर मायके आ गयी। मायके की दशा भी ससुराल से अच्छी न थी, दो छोटी बहनें शादी के लिए बिल्कुल तैयार है। राधा का कोई भाई तो था नहीं। सारी जिम्मेदारी बूढ़े कंधों पर थी। इन कंधों से भी ज्यादा दिन राधा और उसके बच्चों का बोझ ढोया नहीं गया।
“राधा ने घर छोड़ दिया।”

****
जैसे-तैसे शहर की झोपड़-पट्टी में सर छुपाने की जगह तो मिली, लेकिन काम…।
रघुआ के खोने, परिवार से दुत्कारे जाने के गम से ज्यादा, राधा बच्चों के भविष्य को लेकर आशंकित थी। रघुआ के साथ बच्चों के लिए देखे ख्वाब टूट जाने के भय से परेशान थी।
“लड़के को अफसर और लड़की को डॉक्टर बनाने का सपना हम दोनों का था। इसे पूरा करना क्या मेरे ही जिम्मे है?” राधा मन ही मन बुदबुदा रही थी।
“उनकी अंतिम इच्छा मैं जरूर पूरी करूँगी।” राधा ने संकल्प लिया।
अगले दिन राधा ने शहर की गलियों में कदम रखा। बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं को देखकर उसके चेहरे पर प्रसन्नता का भाव पैदा हुआ।
“यहाँ मुझे जरूर काम मिल जायेगा।” राधा ने सोचा।
उसने दरवाजे पर दस्तक देनी शुरू की।
लेकिन यह क्या?
हर दरवाजे से निराशा ही हाथ लगी। शाम तक दर-दर भटकती रही| लेकिन कहीं कोई काम न मिला।
अगले दिन राधा ने मोहल्ले के स्कूल में बच्चों का दाखिला कराया। कहने को छोटा जरूर था, लेकिन विद्यालय में एडमिशन, किताबें, ड्रेस इत्यादि में राधा के सारे पैसे जाया हो गये।
राधा के सामने उसका लक्ष्य था। वह चीख-चीखकर यह कह रहा था कि बच्चों को इससे अच्छा नहीं तो इस विद्यालय में प्रवेश कराना ही चाहिए। प्राथमिक पाठशाला राधा के लक्ष्यों के लिये बिल्कुल नाकाफी है।
“आज शाम तक काम की तलाश करनी ही है।” सोचकर राधा ने एक दरवाजे पर दस्तक दी।
“कौन है?”
“हम हैं मालकिन।”
“क्या काम है?”
“हम पास की बस्ती से आये हैं। कुछ काम चाहते हैं। घर साफ करेंगे, बर्तन धोयेंगे, घर का सारा काम करेंगे मालकिन।”
“और मौका मिला तो घर का सामान भी साफ कर देंगे?” मालकिन ने कड़क आवाज में कहा और दरवाजा बंद कर दिया।
बंद होते दरवाजे ने राधा को भीतर तक झकझोर दिया। मालकिन के शब्द उसके कानों में रह-रहकर गूंज रहे थे।
देर शाम हैरान-परेशान राधा अपनी झोपड़ी में पहुँची।
बच्चों ने माँ को आशा भरी नजरों से देखा और छाती से लिपट गये।
आँसू रोकने की असफल कोशिश में राधा फूट-फूट कर रो पड़ी। बच्चों की दशा उससे देखी न गयी अपने हर दर्द में वह भगवान को कोसते नहीं थकती थी।
उस रात…बमुश्किल कुछ खाने को दे पायी राधा अपने लाडलों को बच्चों को गोद का सहारा देकर सुला दिया और खुद…।
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दो दिन बीत चुके थे राधा ने एक दाना भी पेट में नहीं डाला था बच्चे भी अनखाये जैसे थे। राखी बुखार में तप रही थी।
“कुछ भी हो, कैसे भी हो, आज तो कुछ न कुछ काम जुगाड़ करना ही है।” राधा ने मन ही मन ठान लिया। वह निकल पड़ी। बच्चों की भूख से तड़पती तस्वीरों ने उसे अंदर तक झकझोर दिया था।
कोई विकल्प न देख राधा ने कटोरा पकड़ लिया। भीतर की अस्वीकृति के बाद भी वह दुकान दर दुकान हाथ फ़ैलाने लगी।
किसी ने दिया, किसी ने नहीं दिया। किसी ने बुरी तरह दुत्कार दिया।
इसी बीच एक चमचमाती कार सामने रूकी। राधा ने कुछ मिलने की आश में कार की तरफ कदम बढ़ाये और कटोरा सामने कर दिया।
सूटेट-बूटेट, हट्टा-कट्टा एक साहब बाहर निकला। उसने राधा को ऊपर से नीचे तक देखा और देखता ही रह गया।
“जवान और खूबसूरत महिला…यह अपने काम के माफिक है।” साहब ने अपनी कुटिल चुप्पी में शायद यही विचार किया।
“दे दो न साहब! बच्चे कई दिनों से भूखे हैं
साहब…भगवान की खातिर कुछ दे दो साहब।”
“तुम्हें भीख माँगते शर्म नहीं आती…? तुम तो कुछ भी कर सकती हो। कुछ भी नहीं बहुत कुछ कर सकती हो।” साहब ने चतुराई से कहा।
“पर साहब कोई काम देता ही कब है।” राधा ने उदास होकर कहा।
“मैं दूँगा काम…तुम करोगी?” साहब ने पूछा।
“हाँ हाँ…साहब मैं कुछ भी कर लूंगी।” राधा ने उत्सुकता से कहा।
राधा प्रसन्नचित्त होकर काम की भीख माँगते हुए साहब के क़दमों में पड़ गयी।
साहब ने राधा को अपनी कार में बैठा लिया। राधा काम की तलाश तथा बच्चों की पीड़ा के आगे सुध-बुध खो चुकी थी। उसके दिमाग में कुछ नहीं चला। वह झट से कार में बैठ गयी।
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कार के पहिये शहर से दूर साहब के फार्म हॉउस पर रूके। राधा सारे रास्ते साहब को दुआएँ देती रही। वह भगवान का धन्यवाद करना भी न भूली।
साहब ने पाँच सौ का नोट और कुछ खाने का सामान राधा की तरफ बढ़ाया। उसने बिना संकोच के साहब के नजराने को झटक लिया।
“तो तुम काम करने को तैयार हो?” साहब ने राधा से प्रश्न किया।
“हाँ साहब मैं तैयार हूँ, मैं आपके इस एहसान को जिन्दगी भर नहीं भुला पाऊँगी।” राधा ने बहुत ही भावुक होकर कहा।
“ठीक है तुम आज रात से ही काम पर आ जाओ। शाम सात बजे से सुबह सात बजे तक तुम्हारी ड्यूटी होगी।” इसके बदले में हम तुम्हें रोज पाँच सौ रुपये देंगे।”
“पाँच सौ रुपये रोज…?”
राधा को यकीं न था। वह नहीं समझ सकी, यह कीमत उसके किस काम की लग रही है।
“ठीक है साहब! मैं समय से आ जाऊँगी।” राधा वापस हो ली।
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 तुम तो शोला हो शोला। रोज एक अंगारा खर्च करो और खूब कमाओ।”

 “बस बिस्तर इतना गर्म करो कि साथ वाला रोज तुम्हें ही चाहे।” इस बार साहब अपने असली रूप में थे।
राधा भौचक्की थी, स्तब्ध थी। उसकी आँखे फटी की फटी रह गईं। सुबह जो साहब साक्षात भगवान के रूप में राधा के मन-मन्दिर में समाया, वह अब्बल दर्जे का हैवान निकला।

सूर्य अस्त की ओर था। राधा को अपने काम पर जाने की जबर्दस्त उत्सुकता थी। आज उसने बच्चों को अच्छा सा भोजन खिलाया और खुद भी। शाम निखर उठी थी और राधा के चेहरे पर मुस्कान भी। राधा बच्चों को सुलाकर साहब के फार्म हाउस की ओर निकल गयी।
साहब को पूरा भरोसा था, राधा के आने का। क्योंकि यह उसका पहला अनुभव नहीं था।
घड़ी का छोटा कांटा ‘सात’ पर पहुंचा ही था कि राधा कोठी में दाखिल हुई। राधा को देखकर साहब के मुँह से लार टपकने लगी।
“बताइये साहब हमें क्या करना है?” राधा ने जिम्मेदारी भरे लहजे में कहा।
“अरे! तुम जवान हो, हसीन हो, तुम्हारा गठीला शरीर कोई काम करने के लिये थोड़े ही बना है…?”
“तुम तो शोला हो शोला। रोज एक अंगारा खर्च करो और खूब कमाओ।”
“बस बिस्तर इतना गर्म करो कि साथ वाला रोज तुम्हें ही चाहे।” इस बार साहब अपने असली रूप में थे।
राधा भौचक्की थी, स्तब्ध थी। उसकी आँखे फटी की फटी रह गईं। सुबह जो साहब साक्षात भगवान के रूप में राधा के मन-मन्दिर में समाया, वह अब्बल दर्जे का हैवान निकला।
साहब ने राधा की कलाई पकड़ ली।
“नहीं” एक झटके से राधा ने हाथ छुड़ाया और अपने को दो कदम पीछे कर लिया। उसने पूरी ताकत लगा दी ‘नहीं’ कहने में।
“सोच लो! यह ‘नहीं’ कहने की ताकत भी तुममें मेरे सुबह किये उपकार से आयी है।” इस बार साहब तल्खी में थे।
धर्म संकट की घड़ी थी। राधा के लिए तय करना मुश्किल था कि वह करे तो क्या करे? राधा की आत्मा इस घिनौने काम के लिए कतई तैयार न थी, लेकिन वह भूख से तड़पते अपने बच्चों और पति के सपने के खातिर कुछ भी कर गुजरने को तैयार थी।
राधा और साहब के बीच सन्नाटा था। साहब ने पूरा मौका दिया राधा को।
घड़ी की सुई सन्नाटे को भेदने की कोशिश में थी।
साहब जानता था कि हर लड़की शुरू में ऐसा ही करती है, लेकिन कुछ देर बाद…।
कुछ देर बाद साहब ने सन्नाटे को चीरते हुए आवाज ठोस की।
“तेरे पास कोई दूजा रास्ता नहीं है। शहर तुझे इसके शिवा कुछ भी नहीं दे सकता। रोटी भी नहीं।”
“खुश करो, खुश रहो यही काम है तुम्हारे लिये।” साहब ने दंभ भरते हुए कहा।
…और अंत में वही हुआ जिसकी साहब को दरकार थी।
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राधा का धर्म, धैर्य, जमीर जवाब दे गया। उसने मुंडी नीचे करके मौन स्वीकृति दे दी।
साहब ने फतह कर ली। चिड़िया मार ली। वह मन ही मन मुस्कुराने लगा। मुस्कुराता भी क्यों नहीं। उसका लाखों का चेक भुनने को तैयार जो था।
बड़ी असहजता के साथ दिल और दिमाग पर पत्थर रखकर राधा ने अपनी पहली रात की ड्यूटी तय की। सुबह हुई जरूर लेकिन राधा के जीवन में इस कदर अन्धकार भर चुका था, जिसमें उजाले की कोई गुंजाइश न बची थी।
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 जल्द ही राधा अपने काम में पारंगत हो गई। वह जान गयी, ग्राहक को कैसे डील करना है और कैसे संतुष्ट। उसका सांवला आकर्षक बदन गर्मगोश्त के शौकीनों को खूब भाता था। साहब की तिजोरी भी हिलोरे मार रही थी। क्या नेता, क्या अभिनेता, क्या अफसर, क्या पैसे वाले, क्या मक्कार, क्या शरीफजादे और न जाने कौन-कौन गोते मारते थे।

जल्द ही राधा अपने काम में पारंगत हो गई। वह जान गयी, ग्राहक को कैसे डील करना है और कैसे संतुष्ट। उसका सांवला आकर्षक बदन गर्मगोश्त के शौकीनों को खूब भाता था। साहब की तिजोरी भी हिलोरे मार रही थी। क्या नेता, क्या अभिनेता, क्या अफसर, क्या पैसे वाले, क्या मक्कार, क्या शरीफजादे और न जाने कौन-कौन गोते मारते थे।
…एक बार सिलसिला शुरू हुआ तो सालों-साल न सिर्फ चलता रहा, बल्कि निखरता रहा। जिन्दगी की तमाम सच्चाइयों और अनुभवों को जान चुकी थी राधा। इधर दोनों बच्चे दूर हॉस्टल में रहकर लक्ष्य की ओर तेजी से बढ़ रहे थे। राधा ने कभी उन्हें किसी अभाव का सामना न करने दिया, और न ही अपनी परछाई पड़ने दी।
एक रात राधा अपनी ड्यूटी पर थी। आज मंत्री जी राधा के साथ हमबिस्तर थे। आधी रात और उधर शराब और शबाब चरम पर था। अचानक होटल में पुलिस की रेड पड़ी। नशे में चूर मंत्री को देखकर पुलिस के होश पाख्ता हो गये। मंत्री को ससम्मान होटल से घर पहुँचाया गया और राधा थाने पहुँच गई। उसके लिये यह कोई पहली घटना न थी, इसलिए चेहरे पर कोई शिकन भी नहीं| जब भी वह इस तरह पकड़ी गयी, अकेले ही थाने पहुँचती थी।
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 कहने वाले कुछ भी कहें, परन्तु वेश्याएं भी समाज का एक अंग हैं। एक ऐसा अंग जिसका निर्माण समाज करता है और उसका उपभोग भी समाज ही करता है।

अगली सुबह राधा को पत्रकारों के सामने पेश किया जाना था। इस तरह की खबर खास तौर पर टीवी पत्रकारों के लिए बड़ी टीआरपी वाली होती हैं। समय से पत्रकारों का झुंड थाने में जमा हो गया। कैमरे तैनात थे। कलम भी खिंच चुकी थीं। पुलिस ने राधा को इस तरह पत्रकारों के सामने पेश किया जैसे मानों कोई बड़ी आतंकी घटना को विफल कर दिया हो। दो महिला सिपाही राधा को जकड़ी हुई थीं। पुलिस अफसर ने राधा की गिरफ्तारी की मनगढंत कहानी पत्रकारों के सामने रखनी शुरू की।
“कल देर रात उक्त महिला ‘राधा’ एक सार्वजनिक स्थान पर कुछ लडकों के साथ अश्लील हरकतें कर रही थी। पुलिस ने रूटीन गश्त के दौरान इसे देखा। पुलिस को देखकर लड़के फरार हो गये। इसे आपत्तिजनक स्थिति में गिरफ्तार किया गया। बातचीत में पता चला है कि यह एक बड़ा सेक्स रैकेट चलाती है। यह कई दफा पहले भी वैश्यावृत्ति के मामले में जेल जा चुकी है। अभी तफ्तीश जारी है।”
पत्रकारों के कैमरे राधा को अंदर तक झाँकने का प्रयास कर रहे थे और उनके सवाल उसके कपड़ों को सार्वजनिक तौर पर उतारने की कोशिश।
वह कुछ नहीं बोली सिवाय इसके, “कहने वाले कुछ भी कहें, परन्तु वेश्याएं भी समाज का एक अंग हैं। एक ऐसा अंग जिसका निर्माण समाज करता है और उसका उपभोग भी समाज ही करता है।”
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बीस साल कब इस धंधे में गुजर गये राधा को पता ही नहीं चला। राधा ने अब अपनी ड्यूटी से इतिश्री कर ली थी या यूँ कहें कि अब वह इस काबिल न बची थी, तो गलत न होगा। लूटने वाले अब भी वही थे, लेकिन लुटने वालों में राधा की जगह कोई और।
इधर राजू और राखी दोनों ही अपने-अपने लक्ष्य के काफी करीब थे। राजू समूह-‘ग’ की परीक्षा पास कर चूका था। उसे ज्वाइनिंग का इन्तजार था। राखी का भी नर्सिंग का अंतिम वर्ष था।
राधा अपने लक्ष्यों को पूरा होते देख काफी प्रसन्न थी। उसे संतोष था, उसने रघुआ के अरमानों को मंजिल तक पहुँचा दिया था।
अब राधा एकांत चाहती थी सदा के लिए। राधा ने बिस्तर पकड़ लिया।
बच्चों ने माँ को अस्पताल में भर्ती कराया। हालत लगातार बिगड़ रही थी। शरीर की जाँच करायी गयी। जाँच रिपोर्ट राजू के हाथ में थी।
“यह क्या? रिपोर्ट तो माँ को एड्स बता रही है।” राजू और राखी ने एक-दूसरे के चेहरों को आश्चर्य से देखा। दोनों अचरज में थे। दोनों के जेहन में एक ही सवाल उठ रहा था, आखिर कैसे? दोनों माँ से जवाब जानने के लिए वार्ड रूम पहुँचे।
बेड खून की उल्टी से लथपथ था। राधा की आँखे बंद हो गयी थी, लेकिन चेहरे से उसके अपराध बोध का अंदाजा लगाया जा सकता था।
रूपेश कुमार सिंह
समाजोत्थान संस्थान
दिनेशपुर, ऊधम सिंह नगर
9412946162
(सत्य घटना पर आधारित यह कहानी सन 2008 में लिखी गयी)

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