हिंदी पढ़ता ही कौन है?

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स्वयं अनुभव से•••

रूपेश कुमार सिंह

“मैं हिन्दी में ही पढ़ता-लिखता हूँ। मुझे अंग्रेजी नहीं आती। इंग्लिश में ग्रेस लेकर हाईस्कूल पास किया था मैंने। पांचवीं पास करके जब हम छठी में आये तो ठीक से ज्ञात हुआ कि ए फाॅर एप्पल होता है। वैसे भी सरस्वती शिशु मंदिर में शुरूआती सवा घंटा संस्कृति के मंत्रोच्चारण और भक्ति भाव में ही गुजरता था, इसलिए भी अंग्रेजी पर ज्यादा फोकस नहीं रहा। धीरे-धीरे इंग्लिश डराने लगी और क्लास में पिटना आम हो गया। हम भी बहुत ढीठ थे, अंग्रेजी न पढ़ने की कसम खा ली। इंग्लिश का घंटा काटना मुश्किल होता था। अंग्रेजी के नाम से मानो हमारी नानी मर जाती थी। हाईस्कूल में अपनी अंग्रेजी की टीचर से बिना पढ़े पास होने की शर्त लग गयी। पेपर वाली रात घर के बगल में बाला जी मंदिर में पंडित के सौजन्य से रात भर पिक्चर देखी। उन दिनों बी सी आर का जमाना था और एक ही रात में कम से कम पांच-सात फिल्म देखने का ट्रेंड। सुबह साइकिल से सात किलोमीटर दूर गदरपुर पेपर देने जाना था। रात में गुस्से से पापा ने साइकिल की हवा निकाल दी। सुबह देर से उठे और सीधे पैदल पैदल चौराहे के लिए निकल लिये। साथ में दो और मित्र भी थे। रात की मस्ती में भी साथ थे वो। परीक्षा कक्ष में आधे घंटे लेट पहुंचे। पापा की जान पहचान वाले एक टीचर ने हमारी मदद की और हमें परीक्षा में शामिल कराया। बिना नहाये धोये, बिना ब्रश किये, बिल्कुल बदहाल स्थिति थी हम तीनों की। परीक्षा में शामिल होने के लिए हमने बेशुमार झूठ बोला। बुद्धि मेरी चतुर थी, सामने वाले मास्टरों को यकीन दिलाने में मुझे ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी। खैर, अन्ततः मैं हाईस्कूल में पहली बार में ही पास हो गया। उस समय यू0 पी0 बोर्ड का रिजल्ट चालीस फ़ीसद से ज्यादा नहीं रहता था। इसलिए पहली दफा में पास होना, बड़ी बात होती थी। खैर, पापा ने फिर कभी अंग्रेजी पर ध्यान देने को नहीं कहा। हालांकि यह बात दीगर है कि एम0 ए0 मासकाॅम करते वक्त कम्प्यूटर और तकनीक का एक पेपर अंग्रेजी में देना पड़ा। इस बार भी मैं किनारे से बच निकला। वास्तव में अंग्रेजी में हाथ तंग है और हिन्दी भी 2002 में पत्रकारिता में आने के बाद ही सुधरी। अब इंग्लिश में गिटिर-पिटिर समझ में आती है, लेकिन बोलने की हिम्मत तो सिर्फ कभी-कभी विशेष स्थिति में ही हो पाती है। हालांकि अब मैं अंग्रेजी के सेमिनार भी झेल लेता हूं, लेकिन पढ़ना-लिखना हिन्दी में ही पसंद है। कल हल्द्वानी के जस्ट बुक शो रूम पर गया। बहुत कम संख्या में हिंदी की किताबें थी, अंग्रेजी की बुकों की भरमार थी।

“मैंने पूछा हिन्दी में कुछ और नहीं है, वो बोले हिन्दी पढ़ता ही कौन है?”

मानता हूँ अंग्रेजी का दायरा बहुत बड़ा है, लेकिन हम जैसे लोग भी तो हैं इस दुनिया में, उनका क्या? कभी विस्तार से बाद में।

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