तराई में बसे बंगाली विस्थापितों की आपबीती
भाग-10
बिजनौर में बंगाली विस्थापितों के पाँच गाँव
-रूपेश कुमार सिंह
पूर्वी पाकिस्तान से विस्थापित होकर भारत आये बंगाली शरणार्थियों का 1951 से देश में पुनर्वास शुरू हुआ। सबसे पहला पुनर्वास उत्तराखण्ड की तराई ऊधम सिंह नगर के दिनेशपुर क्षेत्र में हुआ। यहाँ शुरूआत में 36 बंगाली काॅलोनियां बसीं। आज हजारों की संख्या में बंगाली परिवार यहाँ हैं। दिनेशपुर के बाद देश के 22 राज्यों में ऐसे जंगल, पहाड़ी और सुदूर अंडमान द्वीप समूह में बंगालियों को पनाह मिली, जहाँ जीवन को गति देना लोहे के चने चबाने जैसा था। जंगल, दलदल, सरकारी बंजर भूमि, दण्डकारण्य के पठारी इलाकों में और नदी किनारे ही बंगाली विस्थापितों का अलाॅटमेंट हुआ।
तत्कालीन सरकारों ने स्वस्थ और न्यायसंगत पुनर्वास नहीं किया। पुनर्वास के नाम पर महज खानापूर्ति की गयी। जिसकी पीड़ा आज भी लोग भोग रहे हैं। 1957-59 तक उत्तर प्रदेश के बिजनौर जनपद में बंगाली विस्थापितों की चार काॅलोनियां बसायी गयीं। गंगा के किनारे जहाँ साल में आठ माह जल भराव रहता था, ऐसी जगह बंगालियों को 6-6 एकड़ जमीन दी गयी। न खेती संभव थी, न रोजगार का कोई अन्य साधन था। 1974-75 में भूमिहीन बंगालियों का एक और गाँव बसा। बिजनौर क्षेत्र के पाँच बंगाली गाँव आज भी जिला मुख्यालय से सटे होने और बिजनौर-नई दिल्ली नेशनल हाईवे से जुड़े होने के बावजूद अपनी मूलभूत समस्याओं के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इन गाँवों के बसने की कहानी भी चुनौतीपूर्ण है।
कैसे बसे बिजनौर के पाँच बंगाली गाँव? आइए जानते हैं!
शरणर्थियों को नदी किनारे की जमीन दी गई, जो गंगा पर बैराज बनने से पहले 1984 तक डूब में शामिल थी। जंगल, दलदल, रेत, जंगली जानवरों और बाढ़ से बचते-बचाते खेती करना मुश्किल होता था। पाँचों गाँवों के लोग गरीबी और बेरोजगारी के शिकंजे में थे। हालत इतनी खराब थी कि तत्कालीन उत्तर प्रदेश के नैनीताल, पीलीभीत, रामपुर, बरेली जनपदों के तुलनात्मक बेहतर हालत में जीवन जीने वाले बंगाली इलाकों में ये लोग मजदूरी करने के लिए आते थे। लेकिन इन बंगालियों से रिश्ते नहीं जुड़ पाते थे। बिजनौर क्षेत्र पिछड़ा होने की वजह से इधर के बंगाली उधर शादी-व्याह भी नहीं करते थे।
आर्थिक-सामाजिक रूप से कटे होने के बावजूद इन पाँचों गाँवों के लोगों ने आस-पास के जिलों व शहरों में मेहनत-मजदूरी करके उस कठिन दौर का मुकाबला किया। जैसे-तेसे कई दशकों तक कड़ी मेहनत करके जीवन पटरी पर आ ही रहा था कि 1978 को गंगा मध्य बैराज के लिए सरकार ने बंगाली विस्थापितों को आवंटित जमीन अधिग्रहण कर ली गयी। गरीबी और बेरोजगारी की हालत में भी पूर्वी पाकिस्तान के किसान आन्दोलन की गौरवशाली विरासत के इन वारिसों ने जमीन के हक के लिए अपनी लड़ाई जारी रखी। लेकिन आज तक बंगालियों को जमीन पर मालिकाना हक नहीं मिला है। 1984 में बैराज बनने के बाद बंगालियों को रेत, दलदल और बाढ़ से निजात तो मिली, लेकिन ज्यादातर जमीन बैराज में चली गयी। बची-खुची जमीन को खेती लाकर बनाकर उसी को जीने का आधार बनाया। अन्य रोजगार के विकल्प भी तलाशे। सामाजिक, आर्थिक अलगाव टूटा और बाकी बंगाली आबादियों के साथ इनके रिश्ते-नाते भी बनने लगे।
अपनी मेहनत और ऊर्जा से प्रतिकूल परिस्थितियों में भी इन्होंने तरक्की की और पाँचों गाँव में अब सम्पन्नता भी नजर आने लगी है। लेकिन बेदखली की तलबार इनकी गर्दन पर अब भी लटकी हुई है, क्योंकि इन्हें छः दशक बाद भी जमीन का मालिकाना हक नहीं मिल सका है। अब ताजा संकट 1886 में हस्तिनापुर अभयारण्य की स्थापना से उठ खड़ा हुआ है। 2073 वर्ग किमी क्षेत्र में फैले इस अभयारण्य से बिजनौर के बंगाली शरणार्थी ही नहीं, गाजियाबाद, मेरठ, ज्योतिबा फूले नगर, मुजफ्फरनगर के लाखों किसानों वन विभाग की मनमानी और बेदखली के खतरे को झेलना पड़ रहा है।
सरकार इस अभयारण्य में मृग, सांभर, चीतल, नीलगाय, तेंदुआ, हैना, जंगली बिल्ली के अलावा अनेक प्रजातियां होने का दावा करती है और गंगा किनारे का यह बेहद उपजाऊ इलाके को पक्षी विहार में बदलकर किसानों से जमीन खाली करवाने की कवायद शुरू हो चुकी है। पाँचों गाँवों के लोग अब गंगा से मछली पकड़ना तो दूर वहाँ जा भी नहीं सकते हैं। चुनौतियां आज भी हजार हैं।
धर्मनगरी काॅलोनी-
बिजनौर जनपद के अमीरपुर मौजे में विस्थापित बंगालियों की पहली काॅलोनी 1957 में धर्मनगरी के नाम से बसी। राजा ज्वाला प्रसाद के बड़े पुत्र धर्मवीर की जमीन सरकार ने सीलिंग के तहत अपने कब्जे में ले ली थी। धर्मवीर बड़े प्रशासनिक अधिकारी थे। उनके भाई सत्यवीर राज्य सरकार में मंत्री थे तब। आज भी बिजनौर की राजनीति में इनके परिवार की खास साख है। बिजनौर के तमाम शिक्षण संस्थान, मेडिकल काॅलेज से लेकर नई दिल्ली में सर गंगाराम अस्पताल भी इन्हीं के परिवार के हैं। यहाँ बंगालियों को बसाया गया। चूँकि धर्मवीर के परिवार ने बंगालियों को बसाने में मदद की, इसलिए उनके नाम पर ही बंगालियों की पहली काॅलोनी का नाम धर्मनगरी काॅलोनी रखा गया। तब 70 परिवारों को जमीन का पट्टा जारी हुआ। सरकार की ओर से एक जोड़े बैल, कुछ कृषि यंत्र, खाने का सामान, कुछ नाम मात्र की नगद धनराशि दी गयी। पूरा गाँव, इलाका रेतीला था। हवा चलने पर रेत उड़ती थी। सरकार की मदद से बंगालियों ने अपने लिए छोटे-छोटे घर बनाये। रहने वाले हिस्से में बाहर से मिट्टी लाकर रेत को दबाया गया, तब जाकर गाँव का नजारा बदल पाया।
अब धर्मनगरी काॅलोनी की सारी सड़कें पक्की हैं। अमूमन मकान पक्के हैं। गाँव साफ-सुथरा है। प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल हैं। गाँव के बीच में बड़ा-सा मैदान है, जहाँ दुर्गा माता का मन्दिर है। सारे धार्मिक और सामाजिक अनुष्ठान इसी मैदान में होते हैं। गाँव की आबादी बसासत से अब तक दस गुणा हो चुकी है। 1957 में सतीश विश्वास, विपिन सियाली, ग्याली हाल्दार, अमियरंजन पाल, कृष्णपद बनर्जी, गौरंग राय, नकुल सिकदार आदि ने काॅलोनी बसाने में बड़ी भूमिका अदा की। राजनीतिक तौर पर बिजनौर के पाँचों गाँवों में एकता है। इसी वजह से मुश्किल चुनौतियों पर इन्होंने हमेशा जीत हासिल की है। उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड के बाकी बंगाली इलाकों में बांग्ला भाषा और संस्कृति के प्रति बंगालियों का अब खास लगाव नहीं दीखता, लेकिन इन गाँवों में, खासकर धर्मनगरी में दीखता है।
घासीवाला काॅलोनी-
चार-छः माह में जब धर्मनगरी काॅलोनी में बंगाली विस्थापितों की संख्या बढ़ने लगी तो नाले के पार घासीवाला काॅलोनी बसाया गयी। घासीवाला फिरोजपुर नरोत्तम मौजे में आता है। जानकार बताते हैं कि नाले के इस पार घास के बड़े मैदान थे। जंगल और घास को खत्म कर वहाँ बंगाली काॅलोनी बसायी गयी। काॅलोनी बसाने वालों में प्रफुल्ल चन्द्र राय, निर्मल मजूदार, सतीश दास मुख्य थे। घासीवाला में 62 परिवारों को पट्टा दिया गया। घासीवाला अब एक सम्पन्न गाँव है। दो गाँवों को जोड़ता हुआ एक छोटा-सा बाजार भी है। अब गाँव की आबादी सघन है।
हेमराज काॅलोनी-
1958 में खेड़की मौजे में जंगल की जमीन पर विस्थापित बंगालियों का तीसरा गाँव बसा। 60 परिवारों को पट्टा दिया गया। 1962 में दस परिवार नये आये, इन्हें भी पट्टा दिया गया। हेमराज काॅलोनी में कुल 72 परिवारों का अलाटमेंट हुआ। पहले बसे लोगों को प्रत्येक परिवार को 6-6 एकड़ जमीन दी गयी, लेकिन बाद में आये दस परिवारों को महज तीन-तीन एकड़ जमीन खेती करने के लिए दी गयी। यह भेदभाव देशभर में विस्थापित बंगालियों के साथ सरकार ने किया है। वर्तमान में 350 परिवार हैं। यह बड़ा गाँव है। सड़कें पक्की हैं, लेकिन नाली टूटी हुई हैं। जूनियर हाईस्कूल है। गाँव की मुख्य सड़क आज भी क्षतिग्रस्त है। खेती किसानी के अलावा लोग दूसरों के खेतों में मजदूरी भी करते हैं। हेमराज काॅलोनी बसाने वालों में सखी चरण मण्डल, मास्टर कालीपद राय, पाश्र्वनाथ, शचीन्द्रनाथ विश्वास, देवेन्द्र नाथ सरकार, अतुल शील, संतोष पाल आदि शामिल थे। नई दिल्ली हाईवे पर होने के बावजूद हेमराज काॅलोनी आज भी विकास की राह देख रहा है।
चाँदपुरा काॅलोनी-
चाँदपुरा नौआवाद मौजे में 1959 में बंगाली विस्थापितों का चैथा गाँव बसा। 62 परिवारों को पट्टे आलाट हुए। बिजनौर जनपद में बंगालियों के पाँचों गाँवों में चाँदपुरा सबसे बड़ा गाँव है। गाँव के बीचो-बीच बड़ा-सा मैदान है। एक छोर पर प्राथमिक स्कूल है तो दूसरे छोर पर माध्यमिक। दुर्गा माता के मन्दिर के साथ भव्य हरिचाँद-गुरूचाँद मन्दिर भी है। गाँव के अधिकांश लोग मतुआ सम्प्रदाय से जुड़े हुए हैं। अन्य बंगाली गाँवों की अपेक्षा चाँदपुरा थोड़ा कम विकसित है। यहाँ बड़ी संख्या में भूमिहीन बंगाली हैं। इस गाँव का हरिचाँद-गुरूचाँद मन्दिर उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड में सबसे पुराना है। हर साल मेला लगता है। लेकिन गाँव की मुख्य आवाजाही वाली सड़क कच्ची है। मन्दिर की स्थापना बाबा पागलचाँद ने की थी। चाँदपुरा में हरिचाँद-गुरूचाँद मन्दिर बनने के बाद ही दिनेशपुर, शक्तिफार्म और अन्य स्थान पर हरिचाँद-गुरूचाँद मन्दिर बने। माघ पूर्णिमा के दिन हर साल बड़ा महोत्सव लगता है। आज भी पाँचों गाँवों से लोग चावल, दाल, सब्जी आदि लाकर सामुहिक भोज तैयार करते हैं। सुकुमार विश्वास, खगेन्द्र नाथ माझी, रमनी माझी, ज्योतिर्मय विश्वास, राज बिहारी विश्वास बसासत के समय के प्रमुख लोगों में थे।
नवलपुर काॅलोनी (माथा भांगा)-
भूमिहीन बंगाली विस्थापितों का गाँव है नवलपुर। यह नवलपुर मौजा में आता है, इसलिए इसे नवलपुर काॅलोनी कहा जाता है। आम लोगों में इसकी पहचान माथा भांगा काॅलोनी के नाम से है। बिजनौर क्षेत्र में 1957-59 में पुनर्वास के बाद आये बंगाली विस्थापित हेमराज काॅलोनी में कई साल अस्थाई रूप से रहे। 1974-75 में हेमराज काॅलोनी से तीन किमी दूर दिल्ली हाईवे पर गंगा नदी के किनारे एक नयी काॅलोनी बसाई गयी। 13 परिवारों को रहने के लिए डेढ़ बीघा जमीन का पट्टा जारी किया गया। बसासत के बाद कई साल तक लोग इसे नयी बंगाली काॅलोनी के नाम से जानते रहे। 1980 में दो पक्षों में पट्टे की जमीन को लेकर खूनी संघर्ष हुआ। एक व्यक्ति का सिर फट गया। तब से लोगों की जुबान पर माथा भांगा काॅलोनी नाम चढ़ गया, जो आज तक बना हुआ है।
यहाँ के लोग मछली पकड़ने का काम मुख्य रूप से करते हैं। निकट के अन्य बंगाली गाँव में बसने वाले बंगालियों से इनकी सामाजिक, आर्थिक स्थिति काफी निम्न थी। पूरी काॅलोनी नमोःशूद्रों की है। 1992 तक माथा भांगा काॅलोनी का सारा काम हेमराज काॅलोनी से ही चलता था। धीरे-धीरे बाहर से कुछ और बंगाली परिवार यहाँ आकर बस गये। अब गाँव को सरकारी कागजों में एक नाम की जरूरत थी। नवलपुर मौजे के नाम पर गाँव का नाम नवलपुर काॅलोनी रख दिया गया। 1996-97 में पंचायत के प्रस्ताव के बाद टेलीफोन टाॅवर लगा। 1999 में प्राथमिक विद्यालय खोला गया। 2010 में विद्यालय का उच्चीकरण कर माध्यमिक कक्षाएं शुरू हुईं। वर्तमान में 130 परिवार काॅलोनी में हैं। गंगा नदी से मछली पकड़ना एक दशक पहले ही प्रतिबंधित हो गया है। यहाँ के लोग बाहर जाकर मजदूरी ही करते हैं। गाँव के भीतर की सड़कें आर0सी0सी0 की हैं। लेकिन हाईवे से गाँव तक का रास्ता अभी भी कच्चा है। माथाभांगा काॅलोनी को वन विभाग हस्तिनापुर अभयारण्य और पक्षी विहार का हिस्सा मानता है, इस कारण वन विभाग के लोग आज भी गाँव के लोगों को कई तरह से परेशान करते रहते हैं। बसासत के समय केशव बढ़ई, दिनेश हाल्दार, मनीन्द्र मण्डल, विजय हाल्दार, मुकुन्द हाल्दार आदि प्रमुख थे।
20 साल कानूनी संघर्ष के बावजूद न जमीन मिली न उचित मुआवजाः रथीन्द्र विश्वास
‘‘1978 में मध्य गंगा बैराज के लिए बंगाली विस्थापितों को आवंटित जमीन का सरकार ने अधिग्रहण करना शुरू किया। जमीन के बदले अन्यत्र जमीन देने का झाँसा देकर 1984 तक सरकार ने बंगालियों की अधिकांश जमीन पर कब्जा करके बाँध बना लिया। बंगाली विस्थापितों के चारों गाँव सरकारी अधिग्रहण की जद में थे। 1957-59 तक बसासत के समय प्रत्येक बंगाली परिवार को 6-6 एकड़ जमीन गंगा नदी के किनारे आवंटित की गयी थी। गाँव कुछ दूरी पर बसाये गये। बैराज के लिए अमूमन परिवारों की आधी से ज्यादा जमीन वापस ले ली गयी।
तब बंगालियों को यहाँ बसे बीस साल भी नहीं हुए थे। समुदाय क्षेत्रीय विषमताओं से लड़ते हुए हालात के मुताबिक ढलना शुरू हुआ ही था कि सरकार ने पूर्वी पाकिस्तान से भारत विभाजन के कारण हुए विस्थापन के बाद एक बार फिर बंगाली विस्थापितों को उनकी आवंटित जमीन से बेदखल कर दिया। बंगाली समुदाय डरा-सहमा हुआ था। सरकार ने बंगाली रिफ्यूजियों को वाजिब हक और सम्मान देने के बजाय सरकारी परोपकार के अधीन जीवन जीने को विवश किया। सरकारी मनमानी का विरोध करने की क्षमता यहाँ के सीमित बंगालियों में नहीं थी। न ही नेतृत्व था। लोग पढ़े-लिखे भी नहीं थे। सरकारी चाबुक की दिशा में चलना बंगाली समाज की नियति बन चुकी थी। शासन-प्रशासन के दाँव-पेंच समझना सीधे-साधे, अपढ़ बंगालियों के लिए असंभव था।
बावजूद इसके 1980 में जमीन अधिग्रहण का विरोध शुरू हुआ। लेकिन शासन-प्रशासन ने जमीन के बदले जमीन देने की झूठी बात कहकर आन्दोलन खत्म करा दिया। बाद में न तो जमीन ही मिली और न ही उचित मुआवजा। तमाम बंगाली परिवार भूमिहीन हो गये। जमीन से बेदखल बंगालियों के पास दूर-दराज मजदूरी करना ही एक मात्र गुजर-बसर का जरिया था। कई परिवार तबाह हो गये। दाने-दाने को लोग तरसने लगे। भूखे मरने की स्थिति पैदा हो गयी। लेकिन शासन-प्रशासन ने कोई सुध नहीं ली। गंगा किनारे बसे बंगाली बचे या मर जाये, इससे सरकार को कोई लेना-देना नहीं था।
20 साल कानूनी संघर्ष के बाद 2003-04 में नाममात्र का मुआवजा मिला, जो बिल्कुल भी मुनासिब नहीं था। संघर्षरत तमाम बुजुर्ग 20 साल की ऊबाऊ और खर्चीली न्यायव्यवस्था की बलि चढ़ गये। मुआवजे की राशि का भी बंदरबाट हुआ।’’ यह जानकारी दे रहे हैं धर्मनगरी के पूर्व प्रधान रथीन्द्र विश्वास। उनकी उम्र पचास साल है। वे पढ़े-लिखे प्रगतिशील किसान हैं। उनके पिता स्व0 सत्यगोपाल विश्वास टिहरी बाँध परियोजना में सरकारी मुलाजिम थे। एम0ए0 अर्थशास्त्र से करने के बावजूद रथीन्द्र ने सरकारी नौकरी का मोह त्यागकर अपने बुजुर्गों की खेती-बाड़ी सँभालना बेहतर समझा। उनके पास धर्मनगरी, घासीवाला, चन्द्रपुरा, हेमराज, नवलपुर पाँचों बंगाली गाँवों की जानकारी है। वे बंगाली समाज का सामाजिक कार्यों में प्रतिनिधित्व भी करते हैं। उनका बंगाली समाज के अलावा अन्य समुदायों में भी बड़ा सम्मान है।
रथीन्द्र विश्वास बताते हैं कि पश्चिम बंगाल के शरणार्थी शिविरों से हमारे बुजुर्गों ने बिजनौर में गंगा किनारे बसने की सरकारी पेशकश स्वीकार की। कोई दूसरा विकल्प भी नहीं था, इसलिए बिजनौर ही आना था। 1957 से पहले आये बंगाली शरणार्थियों को उत्तराखण्ड के दिनेशपुर, शक्तिफार्म, ट्रांजिट कैम्प (रुद्रपुर) और उत्तर प्रदेश की सीमा से लगे स्वर्गफार्म में पुनर्वास दिया गया। बंगालियों का नदी के किनारे जीवन पूर्वी पाकिस्तान में भी था। इसलिए हमारे बुजुर्गों ने गंगा नदी के किनारे बसना पसंद भी किया। यहाँ मछली और कछुआ बहुतायत में था। 1957-59 तक बंगालियों के चार गाँव बसे। सबसे पहले धर्मनगरी काॅलोनी बसी। उसके बाद घासीवाला, चन्द्रपुरा और हेमराज काॅलोनी बसी। 1974-75 में नवलपुर भूमिहीन बंगालियों की काॅलोनी बसी।
बंगालियों को आवंटित जमीन गवर्नमेंट एक्ट के तहत एक (ख) में आती है। बंगालियों को इस जमीन पर मालिकाना हक आज तक नहीं मिल सका है। यह जमीन 99 साल की लीज पर है। बंगाली समाज इस जमीन पर सिर्फ खेती कर करता है। बेचने का अधिकार नहीं है। यह पुनर्वास के नाम पर बंगालियों के साथ सरकारी धोखा है। वे बताते हैं कि जमीन जलमग्न रहती थी। जून के दूसरे सप्ताह से खेत में पानी चढ़ना शुरू होता था और जनवरी अन्त तक उतर पाता था। बहुत अथक परिश्रम से हमारे बुजुर्गों ने बंजर जमीन को खेती योग्य बनाया था। फिर 20 साल बाद ही मध्य गंगा बैराज के लिए बंगाली विस्थापितों की जमीन अधिग्रहण करने का सरकारी फरमान आ गया। बंगाली विस्थापित एक बार फिर अपनी जमीन से बेदखल हुए। देशभर में बंगाली शरणार्थी कई बार बसाये गये और कई बार उजड़े। यह एक बड़ी त्रासदी है। बंगाली विस्थापितों का उचित और सम्मानजनक पुनर्वास आज तक नहीं हो पाया है। यह सरकारी विफलता ही है।
वे बताते हैं कि जब 1978 में जमीन अधिग्रहण हो रहा था, तब उनकी उम्र महज 8 साल थी। उन्होंने अपने बुजुर्गों को बहुत ही असहाय देखा। वे कहते हैं कि खेती के नाम पर सिर्फ गन्ने की पैदावार होती थी। जैसे-तैसे बंगालियों का जीवन यापन हो रहा था। जब जमीन ही नहीं रहेगी तो जीवन कैसे चलेगा, यह सोच कर उस समय हमारे बुजुर्गों ने बिजनौर से पुनः पश्चिम बंगाल रिफ्यूजी कैम्प भेजने की माँग की थी। लेकिन प्रशासन ने जमीन देने की बात कहकर लोगों को शान्त कर दिया। अन्ततः 1984 में बाँध बनकर तैयार हो गया। लेकिन बंगालियों को न तो जमीन मिली, न ही मुआवजा। अब लोगों के पास 6 एकड़ में से किसी के पास दो एकड़, किसी के पास तीन एकड़ जमीन ही बची थी। बाकी जमीन बैराज में चली गयी।
रथीन्द्र बताते हैं कि जब लम्बे इंतजार के बाद प्रशासन से निराशा हाथ लगी तो अदालत का दरवाजा खटखटाया गया। सभी बंगाली गाँवों के लोग एक जगह जमा हुए। पाँच-सात अगुवा लोगों को कानूनी लड़ाई लड़ने का जिम्मा सौंपा गया। धीरेन्द्र विश्वास, हरिपद चैकीदार, कार्तिक राय, नकुल सिकदार, देवेन्द्र कविराज, सुदर्शन मण्डल आदि ने 1980-81 में एडवोकेट बलवंत सिंह के मार्फत वाद दाखिल कराया। एस0एल0ए0ओ0 विभाग को पार्टी बनाया गया। प्रत्येक परिवार ने सौ-पचास रुपये मुकदमा लड़ने के लिए दिये। उस समय लोग खाना-पानी के लिए भी मोहताज थे। बच्चों का पेट काट-काट कर गरीब बंगालियों ने 20 साल तक मुकदमा लड़ा। अदालत और वकील की फीस दे पाना आसान न था। इस कारण बीच में कई वकील बदले गये। 1995-96 में पैरवी कर रहे बंगाली समाज के लोगों ने वकीलों से पैसा न दे पाने की बाबत एक समझौता किया, ‘‘मुकदमा वकील अपने खर्च से लड़ेंगे, यदि मुकदमा जीता गया और मुआवजा मिला, तो मिलने वाली राशि में से प्रत्येक परिवार 20 प्रतिशत वकीलों को दिया जाएगा।’’
2003 में बंगाली समाज को अदालत से राहत मिली। फैसला उनके पक्ष में आया। 45 हजार रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से मुआवजा मिलना तय हुआ। यह धनराशि बिल्कुल भी पर्याप्त नहीं थी। लेकिन लोग करते भी तो क्या? मुआवजे की राशि से 20 फीसदी वकीलों को देना पड़ा और कुछ रकम विभाग के लोगों ने रिश्वत के तौर पर डकार ली। 20 साल की लड़ाई में जितना बंगाली समाज के लोगों ने पैरवी में खर्च किया, उतना भर भी मुआवजा नहीं मिला। एक बार फिर बंगाली समाज छला गया। न्याय के नाम पर भी खानापूर्ति हुई। एडवोकेट अक्षय अग्रवाल ने मुकदमे को अंजाम तक पहुँचाया था।
-रूपेश कुमार सिंह
9412946162