कोलकाता यात्रा से……
भाग-3
पश्चिम बंगाल में पांच दिन
-रूपेश कुमार सिंह
मस्ती की बात, प्यार की बातदुनिया-जहान, जज्बात की बातसमाज की बात, राजनीति की बातज्ञान-विज्ञान की, खेत-खलिहान की बातइसकी बात-उसकी बात, हम सबकी बातऔर तो और अपने-अपने मन की बात
कॉलेज स्ट्रीट! कोलकाता की मशहूर सड़कऽऽऽ दो बातें खासऽऽऽपहला एशिया की सबसे बड़ी किताब मार्केट, और दूसरा इंडियन काफी हाउस।
दूसरी खूबसूरती पर पहले बातऽऽऽ दिन के लगभग तीन बजे हैं। खचाखच भरे पुस्तक बाजार के बीचो-बीच हम इंडियन काफी हाउस के गेट के सामने खड़े हैं। पुरानी स्टाइल में तीन ताला तक जाने के लिए सीढ़ी हैं। सीढ़ी के दांयीं तरफ एक बड़ा सा खोखा है। दुनिया में मिलने वाली अमूमन सारी सिगरेट, पान, तंबाकू, टाफी, गुटका आदि मौजूद है। लड़कियों का एक झुंड सिगरेट फूंक रहा है। ज्यादातर पढ़ने वाली लड़कियां दीख रही हैं। इतनी सारी लड़कियों को एक साथ सिगरेट पीते देखना, पहला अनुभव था, इसलिए चाहते हुए भी उन से नजरें न हट सकीं। हम सीढ़ियों पर चढ़ निकले। दोनों तरफ लड़के-लड़कियां दीवार से सटे, बातें करने में मशगूल थे। जरुरी नहीं कि वो प्रेमी- प्रेमिका हों, दोस्त या कुछ और संबंध भी हो सकता है। पहली मंजिल, हाउस फुल था। हम काफी हाउस की दूसरी मंजिल पर पहुंचे। बीच का ग्राउंड ओपन था, चारों तरफ से टेबल कुर्सियां सजी थीं। ऊपर से नीचे बैठे लोगों को देखा जा सकता है। बड़े-बड़े फर्राटा पंखे, तेज आवाज के साथ चल रहे हैं। लेकिन लोगों की बातचीत की आवाज कहीं ज्यादा है। लमसम दस मिनट खड़े रहने के बाद हमें बैठने को जगह मिली। टेबल खाली न होने पर वहां खड़ा होना बिलकुल भी नहीं अखरा। वैसे बहुत से लोग सीट के अभाव में खड़े थे, लेकिन उनके पास खड़े रहने के कुछ बहाने थे और आनन्द के पल भी। सफेद कोट पेंट और सिर पर टोपी लगाये दर्जनों बेटर सेवा दे रहे हैं। लोगों की चहलकदमी देखते ही बनती है। शायद कोई किसी को नहीं ताक रहा था, हर कोई अपने साथियों के साथ वार्तालाप में लगा था। हम नये थे, इसलिए हमारी नजरें दूसरों की टेबल पर थीं। मसलन कोई क्या खा रहा है, कैसे खा रहा है, क्या कर रहा है, उसके हाव-भाव क्या हैं। हर टेबल अपनी अलग कहानी कह रहा है। हर उम्र के लोग अपने-अपने अंदाज में काफी हाउस का आनंद ले रहे हैं।
मैं और मुन्ना दा सब कुछ देख लेना चाहते थे, अपने मोबाइल में जहाँ तक संभव हो कैद कर लेना चाहते थे, इसलिए बेटर को दो बार टरकाने के बाद कोल्ड काफी, चिकन चाऊमीन और फिस कटलेट का आर्डर दिया। जानकारी हुई कि यह बिल्डिंग लगभग तीन सौ साल पुरानी है। ब्रिटिश काल में 1876 को इंडियन काफी हाउस की स्थापना हुई थी। एक बार में यहाँ तकरीबन पांच सौ से ज्यादा लोग बैठ सकते हैं। सुबह से रात तक यह काफी हाउस लोगों से गुलजार रहता है। दाम सामान्य हैं। छात्र, टीचर, बुद्धिजीवी, आम लोग, पर्यटकों के अलावा सबके लिए यह खुला है। यहाँ आप पूरी तरह से आजाद हैं, अपने जज्बात रखने के लिए। कोई रोकने टोकने वाला नहीं है। जानकारों ने बताया कि हर दौर में इंडियन काफी हाउस बहस का अड्डा रहा है और आज भी है। हमने खूब सारी फोटो लीं, हालांकि यह हरकत हम जैसे कुछ नये लोग ही कर रहे थे। भुगतान के बाद सिगरेट के धुएं को चीरते हुए लोगों को ताकते-ताकते हम सीढ़ियों से नीचे उतर आये।
पहला! कॉलेज स्ट्रीट पर मौजूद किताबों का बाजार लगभग डेढ़ किलोमीटर तक की परिधि में फैला है। एशिया का सबसे बड़ा पुस्तक बाजार है यह। एक बुक सेलर शंबो अधिकारी ने व्यस्तता के बावजूद बताया कि इस इलाके में 7500 किताबों की दुकान पंजीकृत हैं। लगभग 4000 फड़ पर छोटी दुकान हैं। यहाँ दुनिया जहान की हर किताब उपलब्ध है। बांग्ला, अंग्रेजी, उर्दू की किताबें बहुतायत में हैं। इसके अलावा हिन्दी और अन्य भाषाओं में भी किताबें मिलती हैं। एक दुकानदार ने अनुमान से बताया कि प्रति दिन इस इलाके में लगभग पांच से सात करोड़ रुपये का ट्रांजैक्शन होता है। यहाँ पुरानी-नयी हर तरह की किताब आपको मिलेगी। किताब लेने के लिए भी लोगों को लाइन लगानी पड़ती है। दो घंटे की कड़ी मशक्कत के बाद तकरीबन बीस-पच्चीस दुकानें सर्च करने के बाद मुन्ना दा को मिठुन चक्रवर्ती की बायोग्राफी मिल ही गयी। कॉलेज स्ट्रीट के इर्द-गिर्द 14 महाविद्यालय और यूनिवर्सिटी हैं। इस कारण हजारों लोग यहाँ प्रतिदिन आते हैं। रात सात बजे हमने बहुत सारी यादें समेटे हुए कॉलेज स्ट्रीट की सड़क को अलविदा कहा। वास्तव में कोलकाता पठन-पाठन में अव्वल शहर लगा।
चौथे दिन हम खूब पैदल चल चुके थे। रात बारह बजे हम अपने गन्तव्य स्थल तक पहुंचे। रास्ते में ही हमने आधा किलो बिरयानी मार ली और बीस रुपये में भर प्लेट पपीता खाने के बाद नींद आंखों में दौड़ रही थी। अगले दिन सुबह घोड़े बेचकर सोने की कहावत चरितार्थ होते तब दिखी, जब सूरज चढ़ चुका था और मनोज दा की मामी ने आवाजें दे दे कर घर सिर पर उठा लिया था। इससे पहले तीसरे दिन हमने कोलकाता के आसपास का ग्रामीण परिवेश समझने की कोशिश की। गरीबी चीख-चीख कर देश की व्यवस्था का माखौल उड़ा रही थी। आजादी के 73 साल बाद भी हम लाखों लोगों को दो वक्त की रोटी देने में असफल हैं। दोपहर बाद हम एक शादी में शामिल होने पहुंचे। वहां का नजारा बिल्कुल अलग था।
खाने-खिलाने की भी अपनी विशेष संस्कृति है। हम विविधता भरे देश के बाशिंदे हैं तो अलग-अलग रिवाज और परम्पराओं को आत्मसात करना ही चाहिए। पश्चिम बंगाल खाने का शौकीन इलाका है। नाना प्रकार की डिश लोगों को आकर्षित करती हैं। खास तौर पर नानवेज यहाँ आम चलन में है। सुबह, दोपहर, शाम और रात, हर वक्त मीट या मछली खाने में होनी लाजिमी है। हमने यहाँ एक शादी अटैंड की। खड़े होकर खाने का चलन नहीं है। लोगों के लिए खाने की टेबल सजी है। उसके ऊपर सफेद लिफाफे में प्लेट, चम्मच, नैपकिन पेपर आदि है। साथ ही एक मैन्यु कार्ड रखा है। जिसमें खाने की डिश का उल्लेख है। मिष्ठी टिकादार ने बताया कि हर शादी में पेश किए जाने वाले पकवान यहाँ पहले ही लिख कर बता दिये जाते हैं। व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुसार पकवान मंगवा सकता है।
इस शादी में जल, शामी कबाब, पनीर, ग्रीन चटनी, फ्रूड चटनी, बटर नान, पनीर बटर मसाला, पीज राइस, दाल, आलू भाजा, कातला मांछ, इलीश मांछ, गोभी रोस्ट, छाना, चिकन, पापड़, मधु चाप, राजभोग, सोनदेश, आइसक्रीम और पान मौजूद है। जो आपको चाहिए आर्डर कर सकते हैं। बिलकुल होटल नुमा स्टाइल में खाना सर्व किया जाता है। कोई शोर नहीं, डी जे नहीं, हल्की आवाज में बांग्ला गाने बज रहे हैं। लोग एक दूसरे से गले मिल रहे हैं। फूलों की महक चहुँ दिशा है। इत्र का इस्तेमाल हो रहा है। बीड़ी सिगरेट का बहुत चलन है, शराब आम तौर पर लोग नहीं पीते हैं। पीने वालों के अपने अड्डे हैं, लेकिन कोई सड़क पर लौटता नहीं मिला। शादी में शराब बिलकुल भी नहीं परोसी जाती है। इसके अलावा झाल मूंड़ी, फिस कटलेट, ऐग रोल, चिकन रोल हर मोड़ पर बहुत कम दाम में मिलता है। बिरयानी बहुत खास है यहाँ की, उसमें आलू और अंडा भी डाला जाता है। कुल मिलाकर कोलकाता में खाने का अपना अलग ही आनन्द है।
वास्तविक जीवन में दर्शक कोई नहीं होता, सबको जिन्दगी के रंगमंच पर उतरना ही होता है।
कला-साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में कोलकाता शुरू से ही बहुत सम्पन्न है। यहाँ का थियेटर भी बहुत मशहूर है। तमाम ग्रुप बांग्ला जात्रागान के अलावा हिन्दी नाटक नियमित रूप से करते हैं। टीवी और इंटरनेट के अत्यधिक चलन से थियेटर प्रभावित तो जरूर हुआ है, लेकिन आमने-सामने के संवाद को कोलकाता के लोगों ने जीवित रखा है। मात्र सौ रूपये में हमने कालीघाट के तपन थियेटर में देर शाम दो बांग्ला नाटक देखे। वातानुकूलित थियेटर, साउंड, लाइट और मंच सज्जा लाजवाब। व्यवस्था उत्तम। दर्शक भी खचाखच भरे हुए। समय की पाबंदी, मध्यान्तर पर चाय के साथ नाटक पर चर्चा। कलाकार और निर्देशक जनता से रिव्यू खुद लेते हैं। वास्तव में ऽऽऽ
जिन्दगी एक रंगमंच है,और हम तुम रंग बदलते पात्र।
सबको रंग और रंगमंच के करीब होना ही चाहिए। समाज में बदलाव का माध्यम भी रहे हैं नाटक। आज के बाजारवादी युग में थियेटर को आम जन मानस के भीतर और व्यापक बनाने की जरूरत है। अगले दिन हमने रविन्द्र सदन में हबीब तनवीर का प्रसिद्ध नाटक चरएा दास चोर का बांग्ला बर्जन देखा। मेट्रो, ट्रांम, लोंच का आनन्द लिया। और हाथ वाले रिक्शे को खींचते बेवस मजदूरों से बात भी की। दिलीप और आरति मण्डल की बिटिया मिनी ने हमको नौहाटी से लौंच (बड़ी नाव) में बैठाकर गंगा नदी पार कराकर हुगली जनपद के कई गांव और शहर घुमाया। इस तरह तीसरे और चौथे दिन की यात्रा भी बहुत रोचक और अनोखी रही।
अगले भाग में जारी…………………………