तराई में बसे बंगाली विस्थापितों की आपबीती

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तराई में बसे बंगाली विस्थापितों की आपबीती

भाग- नौ

बंगाली नमोःशूद्रों की लड़ाई अंग्रेजों से नहीं,

 जमींदारों के खिलाफ थीः अमृत राय

-रूपेश कुमार सिंह

ग्राम जोटेश्वरी, थाना मोल्लारहाट, जिला खुलना, पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में पैदा हुए अमृत राय 1954 में विस्थापित होकर पश्चिम बंगाल के शरणार्थी शिविर में दाखिल हुए। छः साल रिफ्यूजी कैम्प की खाक छानने के बाद 1960 में वे परिवार सहित उत्तर प्रदेश के बिजनौर जनपद में आये। यहाँ विस्थापित बंगालियों के पाँच गाँव हैं। घासीवाला में अमृत राय को रहने के लिए एक सरकारी क्वार्टर और बाद में  खेती के लिए छः एकड़ जमीन मिली। तब से उनका परिवार वहीं है।

भारत-पाक विभाजन के समय अमृत राय की उम्र तकरीबन 20 साल थी। वर्तमान में वे विस्थापित बंगालियों की उस पीढ़ी के सबसे बुजुर्ग हैं। उन्होंने विभाजन से पहले का भारत भी देखा और रिफ्यूजी बंगाली समाज की तकलीफों का सामना भी किया। अभी भले चंगे हैं और काफी हद तक उनकी स्मृति दुरूस्त है। बंगाल में जमींदारों के खिलाफ संघर्ष से लेकर चंडाल मुक्ति आन्दोलन, मतुआ आन्दोलन, स्वदेशी आन्दोलन, नेताजी सुभाष का संघर्ष, आजाद भारत में विभाजन की त्रासदी और उसके बाद विस्थापित नमोःशूद्र बंगालियों के पुनर्वास आन्दोलन तक की जमीनी जानकारी उनसे ली जा सकती है। उम्र के इस दौर में भी वे अपनी माटी से जुड़ी यादों को बहुत शिद्दत से पेश करते हैं। मन ही मन में वे आज भी अपने पैतृक गाँव, वहाँ के खेत-खलिहान, पेड़-पौधे, नदी-नालों, तालाबों और वहाँ के इतिहास-भूगोल को याद करते रहते हैं। यह जानते हुए कि अपने देश अब लौटना असंभव है, फिर भी एक बार उस मिट्टी को सिर झुकाकर प्रणाम करने की अन्तिम चाह है उनकी।

घासीवाला में अमृत राय का भरा-पूरा परिवार है। पुनर्वास के समय साथ आये लोगों में से उनकी उम्र का कोई बचा नहीं है। अकेलापन काटता है। युवा पीढ़ी का अपने बुजुर्गों के साथ कोई खास संवाद है नहीं। इसलिए वे अपने में ही रमे रहते हैं। छुट-पुट कुछ काम किया नहीं तो पूरे दिन हरि भजन। आँखों पर चश्मा नहीं चढ़ा है। वे धारा प्रवाह बोल भी लेते हैं। अपनी माटी को याद करते हुए वे कई-कई बार धरती को प्रणाम करते हैं। विस्थापितों के दमन, उत्पीड़न एवं सरकारी उदासीनता के लिए उनके मन में आज भी गुस्सा है।

बंगाली नमोःशूद्रों को पहले चंडाल कहा जाता था

वे बताते हैं, ‘‘ जोटेश्वरी चंडालों का गाँव था। पुराने समय में बंगाली नमोःशूद्रों को चंडाल कहा जाता था। चांडाल से नमोःशूद्र कहलाने के पीछे भी बड़ा संघर्ष है। एक लम्बा वक्त लगा इस संघर्ष में। जिसे हम मतुआ आन्दोलन के नाम से जान सकते हैं। हम एक कुनबे के लोग एक साथ रहते थे। हमारे रहने के स्थान को बहान्द कहा जाता था। वहाँ ब्राहमणों एवं कायस्थों का आना-जाना नहीं था। हाँ, मुसलमान आते-जाते थे। उनसे ज्यादा दूरियां नहीं थीं। गाँव में किसी घर में कर्मकाण्ड या पूजा-अर्चना होने पर ही ब्राहमण आते थे। कायस्थ जमीनों में काम कराने के लिए मजदूर लेने गाँव आते थे। चंडालों से दान-दक्षिणा तो ब्राहमण लेते थे, लेकिन बाकी कोई संबंध नहीं था। कायस्थों का व्यवहार भी चंडालों के साथ सामंती था। हम लोग इनके बराबर में खड़े भी नहीं हो सकते थे।’’

अमृत राय बताते हैं कि गाँव से करीब आठ मील दूर मोल्लारहाट थाना था। हमारी जरूरत का सामान यहीं बाजार में मिलता था। लोग पैदल या आनगाँव के रास्ते नाव से आते थे। बहुत कम लोग ही बाजार आया करते थे। महिलाएं तो न के बराबर ही बाजार आती थीं। कमारगाँव और आमबाड़ी में भी साप्ताहिक हाट बाजार लगता था। वहाँ भी गाँव के लोग जाते थे। खुलना जनपद का यह हिस्सा अब बागेरहाट जनपद के नाम से जाना जाता है। गाँव के पूरब-दक्षिण में मुसलमानों का कुदालिया गाँव था। गाँव के एक छोर पर मधुमती नदी बहती थी। ढाका, फरीदपुर, बरीशाल जाने के लिए नदी पर एक बंदरगाह था। खेत ज्यादातर जलमग्न रहते थे। मुख्य रूप से धान की पैदावार होती थी। आयुष, कुरमूली, लाल, रांघा, गूटीपाक व भोगीपाक किस्मों के धान की फसल होती थी। मछली मुख्य व्यवसाय था। पानी पीने के तालाब अलग थे और बर्तन-कपड़ा धोने के अलग। जमींदारों का राज था। नमोःशूद्रों के पास जमीनें आम तौर पर नहीं थीं। जिनके पास थीं, उन्हें जमींदार परेशान करते थे। नमोंःशूद्र आर्थिक, सामाजिक तौर पर बहुत पिछड़े हुए थे। दलित थे और आदिवासी की जिन्दगी जीते थे। मुसलमानों के साथ उनका समान व्यवहार था। कारण वे भी इसी दायरे में आते थे। वे बताते हैं कि जमींदारों के खिलाफ संघर्ष में चंडालों के साथ मुसलमान भी खड़े थे।

गाँधी को नहीं, नेताजी सुभाष को पसंद करते थे बंगाली नामोःशूद्र

वे बताते हैं कि हरिचाँद गुरूचाँद मतुआ आन्दोलन की वजह से ही चंडाल आन्दोलन के बाद बंगाली दलित चंडालों को नमोःशूद्र नाम मिला। हरिचाँद ठाकुर के पुत्र गुरूचाँद ठाकुर बंगाली चंडालों के अलावा मुसलमान गाँवों में भी जाया करते थे। उन्होंने जाति उन्मूलन, भेद-भाव, दलित उत्पीड़न, ब्राहमणवाद के खिलाफ बंगाली नमोःशूद्रों को संगठित किया। वे बताते हैं कि जब उनके गाँव में गुरूचाँद ठाकुर आये थे तो उन्होंने नजदीक से उनके दर्शन किये थे। वे धोती, बनियान और गले में माला पहनते थे। गुरूचाँद ठाकुर और मतुआ मिशन की लड़ाई भी जमींदारों व उच्च जातियों के शोषण के खिलाफ थी। ब्रिटिश हुकूमत में बंगाली नमोःशूद्र अंग्रेजों के नहीं बल्कि जमींदारों के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे। जब अंग्रेजों ने बंगाल के जमींदारों पर शिकंजा कसना शुरू किया तभी जमींदार और ऊँची जाति के लोग स्वदेशी आन्दोलन लेकर अंग्रेजों के खिलाफ उतरे। धीरे-धीरे इसे स्वाधीनता आन्दोलन में बदल दिया गया और बंगाली नमोःशूद्र भी तब आजादी की लड़ाई में शामिल हुए। बंगाल में नमोःशूद्र गाँधी से नहीं, बल्कि नेताजी सुभाष से प्रभावित थे। गाँव में पढ़े-लिखे लोग न के बराबर थे, इसलिए देश-दुनिया में क्या चल रहा है, इसका पता ठीक समय पर नहीं चलता था। जब कभी-कभार शहर से गाँव में अखबार आता था तो कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति जोर-जोर से अखबार पढ़ता और इस तरह पूरा गाँव सामुहिक रूप से समाचार सुनता था। 

अमृत राय बताते हैं कि लाठी खेला, भाला-ढाल खेला, तलवारबाजी, भीलकी खेला, कबड्डी, फुटबाल आदि बड़े-छोटों के खेल थे और मनोरंजन के साधन भी। आजादी से कुछ साल पहले तक गाँव में सब कुछ सामान्य था। बंगालियों और मुसलमानों में किसी किस्म का तनाव नहीं था। छोटे-मोटे झगड़े होते थे, लेकिन वो आपस में बैठकर निपटा लिए जाते थे। आज की तरह हिन्दू-मुसलमान वाली नफरत तब बिल्कुल भी नहीं थी। वे बताते हैं कि 1947 से कुछ पहले मधुमती नदी पर दियारा (खादर की जमीन) को लेकर बंगाली नमोःशूद्रों और मुसलमानों में जबर्दस्त खूनी संघर्ष हुआ था। इस घटना ने दोनों समुदायों के बीच पर्याप्त दूरी बना दी थी। इधर देश आजाद होने और अंग्रेजों के चले जाने की चर्चा भी थी। यह तय था कि खुलना जनपद हिन्दुस्तान में ही रहेगा। इसलिए मुसलमानों में एक किस्म का भय था। बंगालियों का दबदबा था। जमीन को लेकर झगड़ा भी दो जमींदारों के बीच का विवाद था, जिसे साम्प्रदायिक रंग दे दिया गया था। धीमाडांगा, बासुड़ी में दोनों सम्प्रदाय के सैकड़ों लोग भिड़ गये। दोनों तरफ से लोग मारे गये। अफवाहें आग की तरह फैल गयीं।

विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान में मुसलमानों ने किया बंगालियों का क्रूर शोषण

अमृत राय बताते हैं कि इस हिंसा में उनका दोस्त सहदेव माझी भी मारा गया। वे खुद इस लड़ाई में एक योद्धा के तौर पर शामिल थे। वे बताते हैं कि नमोःशूद्र बंगाली चंडाल थे। निडर और युद्ध में कुशल थे। जमींदार अपनी सेना में चंडालों को ही रखते थे। देखते ही देखते जनपद के कई गाँवों में हिंसा फैल गयी। मुलसमानों ने हिन्दुओं का गाँव गंगाचन्ना में आग लगा दी। जवाब में हिन्दुओं ने भी मुसलमानों के दो गाँव आग के हवाले कर दिए। लम्बे समय तक दोनों सम्प्रदायों में गोरिल्ला युद्ध चलता रहा। गाँव में दिन-रात पुलिस का पहरा रहता था। दोनों तरफ से 20-25 अगुवाओं को पुलिस ने पकड़ लिया था। बंगालियों की तरफ से भवानी सरकार और मुसलमानों की तरफ से बदमाश डेगा ने दंगे की कमान संभल रखी थी। इस बीच अचानक से देश आजाद होने की खबर हुई। खुलना जनपद पाकिस्तान में रहेगा, यह जानकारी होते ही बंगाली समुदाय सदमे में आ गया। मुसलमानों ने पाकिस्तान बनने की खुशी में खूब जश्न मनाया। गाँव-गाँव जुलूस निकले। मुसलमान आक्रामक हो गये। लूट-पाट, हत्या, बलात्कार, आगजनी की वारदातें शुरू हो गयीं।

बंगालियों के पास वहाँ से भागना ही एक मात्र विकल्प था। ढाका, नोआखाली, खुलना, बरीशाल में बड़े पैमाने पर दंगे हुए। चारों तरफ अफरा-तफरी थी। बंगाल प्रान्त पाकिस्तान के साथ नहीं रहना चाहता था। इसलिए बड़े पैमाने पर भाषा आन्दोलन के साथ बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई भी शुरू हो गयी  थी।  जोगेन्द्रनाथ मण्डल बंगाल में नमोःशूद्रों के सबसे बड़े नेता थे। उन्होंने अपनी माटी न छोड़ने की अपील की, लेकिन यह व्यवहारिक नहीं था। भारत सरकार ने बंगालियों के लिए बाॅर्डर खोल दिये। कोई भी इधर-उधर जा सकता था। हजारों की संख्या में बंगाली पूर्वी पाकिस्तान से हिन्दुस्तान के लिए रातों-रात रवाना हुए। पूर्वी पाकिस्तान में गाँव के गाँव खाली होने लगे। केरोसीन का लैम्प जलाकर लोगों ने रात के अँधेरे में नदी-नाले पार कर बाॅर्डर तक का सफर तय किया।

वे बताते हैं कि पड़ोस के गाँव कालछीरा के दर्जनों लोगों को मुसलमानों ने बाहर निकलते ही काट डाला था। पुलिस भी मुसलमानों के साथ थी। बाॅर्डर पर पैसे लेकर ही आने दिया जाता था। तब मेरी उम्र 20-22 साल थी। बड़ी बहन सरला और छोटी बहन चारूल की शादी विभाजन के साल दो साल पहले हो चुकी थी। माता-पिता मर चुके थे। तीन भाई थे घर पर। बड़ी संख्या में लोग अभी भी पूर्वी पाकिस्तान में ही थे। वे दंगा थमने और हालात सामान्य होने की आस लगाये बैठे थे। साल-छः माह में दंगे बहुत कम भी हो गये थे, लेकिन वहाँ अब पहले जैसी बात नहीं बची थी। भय और अफवाहें लोगों का पीछा छोड़ने को तैयार नहीं थीं। पूर्वी पाकिस्तान में अब मुसलमानों का राज होगा। बंगालियों को गुलाम बनकर ही रहना होगा। इस आशंका ने भी बंगालियों को पूर्वी पाकिस्तान छोड़ने के लिए विवश किया। कइयों के सगे-संबंधी इधर आ गये थे, वे दोबारा मिल जायेंगे, इस उम्मीद में भी पूर्वी पाकिस्तान से 1947 से लेकर 1971 तक पलायन जारी रहा। दोनों देशों की सरकारें भी लापरवाह रहीं।

सगे-संबंधियों का तर्पण तक नहीं कर सके बंगाली रिफ्यूजी

अमृत राय बताते हैं कि काफी सोच विचार करने के बाद उन्होंने भी भारत आने का फैसला लिया। 1954 में ढाका जाकर माइग्रेसन प्रमाण पत्र बनवाया। शादी हो चुकी थी। एक भाई वहीं बीमारी से मर गया था। वे बताते हैं कि पत्नी और एक भाई के साथ वे भारत आये। गाँव के कुछ और परिवार भी साथ थे। आने से पहले दोनों बहनों और रिश्तेदारों से मुलाकात की। उन्हें बताया कि भारत के हालात बेहतर रहे तो जल्द ही उन्हें भी वहीं बुला लेंगे या यहीं वापस आ जायेंगे। यह झूठा दिलासा था। देश छोड़ने के बाद दोबारा बहनों से बात तक नहीं हो सकी। भारत आने पर कुछ साल पत्राचार चलता रहा, लेकिन वो भी जल्द ही बंद हो गया। बहुत साल बाद अपने देश से आये किसी परिचित ने बहनों के मरने की सूचना दी थी। हम अपने सगे-संबंधियों का ठीक से तर्पण तक नहीं कर पाये, हमसे ज्यादा अभागा और कौन होगा? कहते-कहते उनकी आँखों से आँसू ढुलक पड़े।

वे बताते हैं कि पश्चिम बंगाल के तमाम शरणार्थी शिविरों में लाखों रिफ्यूजी बंगाली परिवारों की तरह ही उनके भी 6 वर्ष बीते। 1954 में गर्मियों के दिन थे। हम लोग सियालदह रेलवे स्टेशन पर खुले में पड़े थे। तमाम दिन चीड़े-मूड़ी और गुड़ खाकर गुजारे। सरकारी रजिस्टर में हमारा नाम दर्ज किया गया। दिन में एक बार सरकार की ओर से दाल-भात दिया जाता था। कई दिन यूँ ही कटे। फिर एक दिन उलबेड़िया कैम्प जाने का सरकारी फरमान आया। हम सब ट्रेन में बैठकर उलबेड़िया कैम्प आ गये। वहाँ बड़े तम्बू में लोग रह रहे थे। किसी भी तम्बू में पैर रखने की जगह नहीं थी, लेकिन हमें वहीं रहना था। हमें ही नहीं, आने वाले सभी रिफ्यूजियों को। खुले में रहना। खुले में हगना-मूतना। कैम्प में बड़े पैमाने पर लोग मर भी रहे थे। हमें कोई इंग्जेक्शन लगाया गया फिर शिविर में दाखिल कर दिया गया। साथ में 15 दिन का डोल (सहायता राशि) दिया गया। 

आजाद भारत में गुलामों जैसी थी विस्थापित बंगालियों की जिन्दगी

जिन्दगी जैसे ठहर-सी गयी थी। बंगाली विस्थापितों को सरकारी आदेश के हंटर से हाँका जा रहा था। हमारी स्वेच्छा और आवश्यकताओं के अनुसार कुछ भी नहीं होता था। हमें सरकारी फरमान के मुताबिक नाचना होता था। ऐसा लगता था कि हम गुलाम हैं और आदेश मानना हमारा धर्म है। वे बताते हैं कि सरकारी बदइंतजाम ने हमारी पीढ़ी को बहुत कष्ट दिये हैं। जैसे-तैसे 6 साल उसी कैम्प में बीते। वे बताते हैं कि बंगाली विस्थापित पश्चिम बंगाल से बाहर जाने को तैयार नहीं थे। वहीं बसाने की मांग हो रही थी। लेकिन राज्य सरकार और वहाँ के स्थानीय बंगाली इसके लिए तैयार नहीं थे। बावजूद इसके पश्चिम बंगाल में ही पुनर्वास की मांग को लेकर कलेक्ट्रेट पर धरना-प्रदर्शन शुरू हुआ। पुलिस ने दमन किया। नेताओं को जेल भेज दिया और हम लोगों को पुनः कैम्प में डाल दिया गया। इस हिदायत के साथ कि दोबारा आन्दोलन में गये तो डोल बंद कर दिया जाएगा।

विधान राय मुख्यमंत्री थे। उन्होंने बंगाली विस्थापितों को बाँटने का काम किया। अधिकारियों ने कहा, ‘‘जो लोग 1954 से पहले आये हैं, वे पश्चिम बंगाल में ही रहेंगे और जो बाद में आये हैं, उन्हें बाहर जाना होगा।’’ सरकार ने दिखावे के लिए दक्षिण 24 परगना के सोनारपुर में चार-पाँच विस्थापित गाँव बसाये भी। इस तरह बड़ी संख्या आन्दोलन से कट गयी। धीरे-धीरे आन्दोलन खत्म हो गया। साथ ही देश के 22 राज्यों में बंगालियो को बसाने की प्रक्रिया तेज हो गयी। 1959 में कैम्प अधिकारियों ने कहा, ‘‘छः माह का डोल देकर कैम्प बंद हो जायेंगे। जिसको जहाँ जाना है, वहाँ चले जाओ।’’ वे बताते हैं कि बंगाली नदी-नाले-तालाब के किनारे रहने के आदी थे। मछली खाने में चाहिए ही। उत्तर प्रदेश के बिजनौर जनपद में गंगा नदी के किनारे बंगालियों को बसाया जा रहा था। यहाँ मछली, कछुआ, केकड़ा पर्याप्त मात्रा में थे। हमने बिजनौर आने का मन बनाया। 1960 के प्रारम्भ में हम लोग ट्रेन से बिजनौर आ गये। रेलवे स्टेशन पर ही पुनर्वास विभाग का कार्यालय था। नाम, पता, माइग्रेसन कागज दर्ज हुए। कई दिनों के बाद ट्राले में भरकर हमें घासीवाला पहुँचाया गया। कुछ पैसे और एक क्वार्टर रहने को दिया गया। साल भर बाद कई किमी दूर छः एकड़ जमीन अलाॅट की गयी।

विस्थापित बंगालियों को आज तक भूमिधारी अधिकार क्यों नहीं?

अमृत राय बताते हैं कि परदेश में सब कुछ अनजाना था। भाषा-बोली, रहन-सहन सब कुछ बहुत भिन्न था। नये सिरे से जीवन जीने की चुनौती थी। तेज हवा चलने पर पूरा इलाका बालू (रेत) के बवंडर में समां जाता था। मिट्टी पूरी तरह से रेतीली थी। चारों ओर जंगल था। खेती न के बराबर थी। सड़क थी नहीं। आज घासीवाला में बहुत कुछ है, लेकिन तब स्कूल, अस्पताल, बिजली-पानी, सड़क कुछ भी नहीं था। वे बताते हैं कि दशकों तक आदिवासी जिन्दगी बसर कर कड़ी मेहनत के बल पर  हमने अपने खेतों को सींचा है। लेकिन यह खेत आज भी हमारे नहीं हैं। बंगालियों को भूमिधारी अधिकार प्राप्त नहीं है।

वे बताते हैं कि सरकार ने तब हमें जंगलों में मरने के लिए छोड़ दिया था। सरकार का मानना था कि या तो बंगाली जंगल की बंजर जमीन को सोना कर देंगे या फिर यहीं मर खप जायेंगे। दोनों ही स्थिति में सरकार को नुकसान नहीं था। अमृत राय कहते हैं कि बंगाली विस्थापितों ने अपने खून-पसीने को एक करके इस इलाके को अपने बच्चों के रहने लायक बनाया है। बाकी सब तो छोड़िए, जो हो गया सो बीत गया, अब सरकार को बंगाली विस्थापितों की जमीनों पर उन्हें पूर्ण स्वामित्व दे देना चाहिए। ऐसा करने से मेरे साथ बिजनौर आये उस पीढ़ी के बंगाली रिफ्यूजी जो अब इस दुनिया में नहीं हैं, उनकी आत्मा को जरूर शान्ति मिलेगी। वे कहते हैं, ‘‘जमीन पर मालिकाना हक मिल जाये तो वे भी सुकून से इस दुनिया को अलविदा कह सकेंगे।’’

रूपेश कुमार सिंह

9412946162

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