कोरोना काम में•••

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-रूपेश कुमार सिंह 

(1)

एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं, चार नहीं, पाँच नहीं कभी-कभी तो सप्ताह भर से ज्यादा भी तुम मुझसे चिपकी रहती थीं, बिना किसी रोक-टोक, शिकायत के। पहले-पहल तुम्हारे स्पर्श की अनुभूति ज्यों की त्यों अंत तक बनी रहती थी। दिन ढलने के साथ तुम अपना रंग बदलती थीं और हर रोज तुम्हारा कलर गहरा होता जाता था। तुम्हारे उजले और गहरे दोनों ही रंग-रूप मुझे भाते रहे हैं।
अपने मूल रंग को छोड़ने के बाद भी तुम मुझसे दूर नहीं हो सकीं। बन गयीं मेरी दिनचर्या, सुबह-शाम की आदत। मेरे कदमों के साथ तुमने भी दूरी तय की है, जहाँ तक मैं चला तुम भी मेरे साथ रहीं। हवा, पानी, धूप सब कुछ बराबर का झेला है तुमने। मैं लेटा तो आराम किया तुमने भी। मैं जब चला आधी रात भी तो तुम मेरे साथ थीं।
मेरे सुख-दुःख में तुमने भी बराबर के गोते लगाये हैं। महफ़िल की शान रही हो तुम मेरी ओर से। शमशान में भी ढाढंस बनाया है तुमने। कभी जमीन तो कभी फ़र्श पर खूब लोटी हो मेरे संग। मेरा बाहरी आवरण बन तुमने मेरे भीतर के व्यक्तित्व को निखारा है।
मैंने भी अक्सर अपने हाथ से तम्हें दुलार देकर तुम्हारी चमक को बढ़ाया है। असल में तुम मेरी बेपनाह जरूरत रही हो। मैंने भी तुम्हें छोड़कर कभी दूसरे को आज़माया नहीं है। तुम दो माह से जैसे मुझसे रुठी हुईं थीं। मुझे पता था। मैंने भी तो इन दो माह में कई बार तुम्हें देखा था, चुपके-चुपके। 
तुम मेरे स्पर्श को मचल रहीं थीं। लेकिन कोरोना के चलते लाकडाउन ने मुझे तुम्हारे पास आने ही नहीं दिया। आज तुम फिर मेरी जिन्दगी में शामिल हुई हो। अब उम्मीद है कि इतनी लम्बी जुदाई न होगी दोबारा।
ब्लू और ग्रे दो ही जीन्स हैं मेरे पास। बारी-बारी से मैं उन्हें ही पहनता हूँ। दोनों में परस्पर प्रेम है। दोनों मेरी बेपनाह जरूरत हैं। इनके अलावा दूसरी पैंट में पहनता ही नहीं हूँ, हैं भी नहीं मेरे पास। 
यह मेरे लिए शर्म की नहीं गर्व की बात है। कभी-कभी पैजामा-कुर्ता चलता है। नहीं तो मौका चाहें जो भी हो पिछले दो साल से यह दोनों जीन्स ही मेरी हकीकत हैं। इस जनवरी दिल्ली पुस्तक मेले में चर्चा उठी तो साथी #नगीना ने कहा चलो मैं दिलाती हूँ तुम्हें नयी जीन्स। मेरा जवाब न में ही होगा, जानकर भी नगीना ने जिद की, लेकिन•••।
15 मार्च के कार्यक्रम में नयी जीन्स पहनाने की मित्र #रेनू ने भी बहुत कोशिश की, लेकिन •••। 
दरअसल इंसान की जरूरत जितनी कम हों, उतना ही वह अधिक सुखी और आजाद रह सकता है। जरूरतें बढ़ती हैं तो इंसान की आजादी उतनी ही खत्म होती है। यह फलसफा रहा है मेरा। कपड़े ही नहीं मेरी जरूरतें भी बहुत सीमित हैं। सादा जीवन उच्च विचार की उक्ति से शुरू से ही प्रभावित रहा हूँ। 
आज दो माह बाद मैं अपनी प्रिय ब्लू जीन्स को पहनकर #प्रेरणा_अंशु बांटने निकला। लाकडाउन में बडमूरा और लोबर से ही काम चल रहा था।

(2)

जिज्जी तुम साढ़े बाइस मिनट ही तो बड़ी हो मुझसे, पर इतराती जबर हो क्यों?
छोटी साढ़े बाइस मिनट कम होते हैं? बड़ी हूँ सो बड़प्पन तो रहेगा ही।
जिज्जी हर बार तुम ही बाजी मार लेती हो, मैं पिछड़ जाती हूँ क्यों?
छोटी मैं चाहती हूँ तुम्हारा साथ जमाने के साथ लम्बा हो, तुम चलो मगर थको नहीं, मंजिल तक पहुँचो मगर रुको नहीं।
जिज्जी तुम और मैं एक साथ घर आये थे, लेकिन यह फर्क क्यों?
छोटी हम दोनों को देखा तो एक साथ गया था, लेकिन मुझे पहली पसंद चुना गया सो मैं पहले आ गयी। तुम साढ़े बाइस मिनट बाद हाथ में थीं। यह चुनाव का फर्क है।
जिज्जी तुम ज्यादा खटती हो, ज्यादा चलती हो, ज्यादा हिफाज़त करती हो, तुमने मुझसे ज्यादा दुनिया देखी है, ज्यादा दूरी तय की है, तुम मुझे भी तो आगे कर सकती थीं?
छोटी दुनिया के झंझावत बड़े के हिस्से ज्यादा आते हैं। शायद तुम बड़ी होती तो तुम भी वही कर रही होती जो मैं कर रही हूँ। और छोटी तुम्हें अपने से जुदा होते मैं नहीं देख सकती।
जिज्जी तुम्हारे बगैर मैं भी तो अकेली पड़ जाऊंगी, हम साथ आये थे, तो ऐसा नहीं हो सकता कि हम साथ ही विदा लें?
छोटी यही दस्तूर है। साथ हमेशा के लिए नहीं होता। एक दिन अपनी सबसे प्रिय चीज का साथ भी छूट जाता है। साथ आ तो सकते हैं, लेकिन साथ विदा नहीं हो सकते।
जिज्जी मेरी तुम्हारी लम्बाई-चौड़ाई, कद-काठी, बनावट सब कुछ एक जैसी है। सिर्फ तुम्हारी चमक इतना घटने के बाद भी पहले की तरह है और मेरा रंग उतरने लगा है। क्यों?
छोटी तुम सही हो। तुमने जमाने के साथ-साथ अपना रंग-ढंग बदला है, लेकिन मैं एक ही रंग ढो रही हूँ। नये-नये रंगों से दो-चार होना ही तो जिन्दगी है। गिरगिट की तरह रंग बदलने वाले ही तो कामयाब होते हैं आजकल।
जिज्जी यह बताओ इस लाकडाउन में तुम और मैं एक ही सेफ में थे, लेकिन आमने-सामने नहीं थे। पूरे दो माह तुम मुझे अपने ऊपर लादे रहीं। इतना बोझ तुम कैसे बर्दाश्त करती हो?
छोटी अपने प्रियों को दुत्कारा नहीं जाता, झिटका नहीं जाता, नाराज नहीं हुआ जाता और जो अपने होते हैं बिल्कुल अपने वो बोझ नहीं होते। अपनों की तकलीफ को अपना बना लेना ही प्रेम है।
जिज्जी दो महीने बाद जब तुम बाहर घूमने गयीं तो झट से निकल लीं, उनके हाथों में चढ़ गयीं और इठलाती हुई चल दीं। मुझे एक इशारा तक नहीं किया?
छोटी मुझे उस दिन तो तुम्हें आज मौका मिला तो है उनकी टांगों में चढ़ने का। तुम आज घूमने जा रही हो और मैं बाथरूम में टंगी हूँ। यह तो नियति है बहना। छोटी तुम्हें पता है, spykar के शो रूम में 34 इंच की रेक में तुम मेरी बाहों में थीं। वहाँ से आने के बाद हम दोनों बहुत कम एक साथ रह पाये हैं। ढाई साल में पहली बार ऐसा हुआ, जब हम तुम दो माह तक साथ थे। शुक्र है लाकडाउन का। पता नहीं अब ऐसा होगा दोबारा या नहीं। नहीं तो तुम सफर में और मैं बाथरूम में। मैं सफर में और तुम बाथरूम में। दूर से ही हाय-हैलो होती थी।
जिज्जी सही कहा आपने। ठीक है जिज्जी मैं जाती हूँ। आकर अनुभव शेयर करूँगी। वैसे जिन्दगी चलते रहने का नाम है।
छोटी तुम्हें शुभकामनाएं अपने साथ-साथ अपने मालिक का भी ख्याल रखना।
मेरी ग्रे कलर की दूसरी इकलौती जीन्स आज मेरे साथ है। दोनों जीन्स के बीच सुबह की गुफ्तगू।
रूपेश कुमार सिंह समाजोत्थान संस्थान दिनेशपुर, ऊधम सिंह नगर, उत्तराखंड
9412946162

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