मैदान के गांव भी हो रहे हैं खाली (भाग-एक)

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मैदान के गांव भी हो रहे हैं खाली

“बार-बार लोगों के मन परहोते हैं आघात,आज पलायन के मुद्दे परकरते हैं कुछ बात  !” 

शेरशाह सूरी ने बसाया था शाही गाँव 

बरेली मुख्यालय से 30 किमी दूर स्थित है, शेरशाह सूरी द्वारा बसाया गया कस्बा ‘‘शाही’’ नाम से ही पुरानी बादशाहत, रूतबे, अंदाज और रौबदार होने का अंदेशा होता है, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है यहां। हिन्दुस्तान के तमाम छोटे-बड़े कस्वे या गांव जैसा ही है, शाही। वही संकीर्णताएं, पिछड़ापन, भेद-भाव और अन्तर्द्वन्द्व लिए बिल्कुल सामान्य सा है शाही। लेकिन इसकी बसासत आज के माफिक सामान्य नहीं थी।
1540 में मुगल शासक हुमायूं को हराकर शेरशाह सूरी ने पूरे उत्तर भारत पर राज किया। शेरशाह सूरी अफगानी मूल के पठान थे, लेकिन इनका जन्म भारत में हुआ था। बुन्देलखण्ड और रूहेलखण्ड पर सूरी का खासा फोकस रहा। हालांकि 1545 में बुन्देलखण्ड में उनकी मृत्यु हो गयी। बावजूद इसके कम समय में शेरशाह सूरी ने तमाम नये गांव बसाये। शाही के साथ-साथ 15 किमी के दायरे में दो कस्वे शीशगढ़ व शेरगढ़ की बसासत भी तैयार हुई। इन स्थानों पर मुस्लिम आवादी बहुतायत में है। साम्प्रदायिक तनाव व नफरत पर्याप्त होने के बावजूद, आज तक यहां कभी दंगा नहीं हुआ, यह सुखद और संदेशप्रद है। यह बात दीगर है कि यहाँ भी, देश में नये सिरे से पनप रहे कथित राष्ट्रवाद और राष्ट्रवादियों की घुसपैठ में तेजी आयी है।

शाही प्रारम्भ से ही केन्द्र था। तमाम गतिविधि और प्रशासनिक क्रियाकलाप यही से संचालित होते थे। बाद में अंग्रेजों ने भी शाही को ठिया बनाया और शासन किया। जिस टीले पर आज शाही का थाना है, वहां कभी अंग्रेजों की कचहरी चलती थी। सुनवायी होती थी। शाही के बिल्कुल बीचों-बीच टीले पर मौजूद थाना आज भी लोगों के आकृषण का केन्द्र रहता है। अंग्रेजों ने शाही को लगान वसूल करने का अड्डा बनाया। अस्तबल तैयार किया। सेना की एक टुकड़ी के ठहरने का इंतेजाम किया। टीले पर राजशाही महल में अंग्रेज अफसरों के रूकने का प्रबन्ध रहता था। दर्द और उत्पीड़न की तमाम दास्तानें छुपी हैं यहां की सरज़मी पर। इतना गहरा इतिहास जिस क्षेत्र का हो उसे विकसित होना ही चाहिए। लेकिन तमाम सामंती मूल्य-मान्यताओं को ढोता शाही, आज भी अपने विकास की राह ताक रहा है।
पापा (मास्टर प्रताप सिंह) के गुजर जाने के बाद पिछले दिनों कई वर्षों बाद शाही जाना हुआ। जमीन की बिरासतन के वाबत। मास्साब का गांव से गहरा लगाव था। 2005 के बाद उन्होंने उत्तराखण्ड से ज्यादा गांव में ही समय देना शुरू किया। उन्होंने उत्तराखण्ड की तर्ज पर शाही में भी संगठन निर्माण और आन्दोलनों को हवा दी। फरवरी 2015 में बाबा-दादी के निधन के बाद उन्होंने अपना सारा समय गांव की खेती-किसानी में ही देना शुरू किया। इसी दौरान वह कैंसर से ग्रस्त हुए और 2016 जून के बाद गांव कभी नहीं जा सके। रवि के अलावा हम तीनों भाईयों का गांव जाना यदाकदा ही होता है। लेकिन इस बार मैंने गांव को काफी नजदीक से देखने की कोशिश की। इस लेख में गांव के ताजा हालात और स्थिति पर बात करूंगा।

दुनिया की तमाम संस्कृति और सभ्यता नदी के किनारे ही जन्मी

दुनिया की तमाम संस्कृति और सभ्यता नदी के किनारे ही जन्मी और विकसित हुई। साफ है कि पानी के नजदीक ही जीवन पनपा। कहा भी जाता है, ‘‘जल ही जीवन है।’’ नदी के इर्द-गिर्द बसे गांव सभ्यता और संस्कृति की लम्बी दास्तान कहते हैं। मेला-दशहरा, नुमाइश न जाने क्या-क्या….. मरने के बाद अन्तिम संस्कार भी नदी के किनारे होते हैं। शाही को पहचान देने में बैगुल नदी का महत्वपूर्ण स्थान है। बैगुल नदी शाही की जीवनदायनी भी है। नदी को फांदता हुआ बड़ा पुल शाही को राष्ट्रीय राज मार्ग से जोड़ता है। सैकड़ों की तादात में ये सड़क गांव के लोगों को शहर काम की तलाश में ले जाती है। लेकिन शहर से आती हुई सड़क से गांव के विकास का रथ कब शाही पहुंचेगा, कहा नहीं जा सकता। मोटे तल के चश्में के भीतर बुजुर्गों की डबडबाती खामोश आंखें आधुनिक विकास के मॉडल पर नाना सवाल करती हैं।

शाही नगर पंचायत क्षेत्र में लगभग 11500 वोटर हैं। सरकार के लिए गांव की आबादी वोटर से ज्यादा और कुछ रही भी नहीं है। लगभग सौ साल पुराने इस टाउन क्षेत्र में एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, एक पशु अस्पताल, एक डाक घर, दो बैंकें, एक राजकीय इंटर कॉलेज है। अस्पतालों की हालत हमारे देश की व्यवस्था के माफिक जर्जर है। मुख्य बाजार की सड़क बमुश्किल 15 फीट होगी। बाजार के नाम पर चंद दुकानें। पता चला कि पैकेट बंद पनीर, दूध और छाछ एक साल से कस्बे में मिलने लगा है। कस्बे के भीतर के रास्ते शहर की तंग गलियों की तरह है। कहीं-कहीं आरसीसी, कहीं खड़ंजा तो कहीं टूटी सड़क। रास्ते के दोनों ओर जरा सी ढाल लिये नाली नुमा एक पंक्ति में गंदा पानी बहता रहता है। दो चारपहिया वाहन आमने-सामने से गुजर ही नहीं सकते। बिल्कुल ही ठेठ अन्दाज है शाही का। कुछ साल पहले तक तो घर में खुड्डी(देशी टॉइलेट) होती थी। सिर पर मैला ढोने का चलन था। शुक्र है इस बार वो सब देखने को नहीं मिला।

जातियां भी मोहल्ले में है बटी

सामाजिक संरचना बहुत जटिल है गांव की। जातियां भी मोहल्ले में बटी हैं। मोहल्ले पर जाति हावी है या फिर जातियों पर मोहल्ला, कहना मुश्किल है। एक जाति का व्यक्ति दूसरे जाति के मोहल्ले में घर बना ही नहीं सकता। हालांकि थोड़ा-थोड़ा परिवर्तन आने लगा है। लेकिन जातिय व्यवस्था हमारे समाज में किस तरह हावी है यह देखने के लिए शाही जरूर जाना चाहिए। ठाकुरों का मोहल्ला, सुनारो का मोहल्ला, धीमरों का मोहल्ला, मुसलमानों का मोहल्ला, दलितों में भी छोटे-बड़े दलितों का मोहल्ला और भी न जाने किस किस नाम से मोहल्ले हैं। इन मोहल्लों में इंसान ही रहते हैं। जी हां, आज की 21 वीं सदी के इंसान। विरोधाभास देखिए, आपस में मेल-झोल इतना कि राह चलते जो मिल जाये उससे राम-राम, नमस्कार खूब होती है, लेकिन एक-दूसरी कौम के लोगों का घर पर आना-जाना आम नहीं है। अब थोड़ा सुधार जरूर हो रहा है। गर्मियों में शाम को 7 बजे के बाद सड़क पर या मोहल्ले में इक्का-दुक्का लोग ही दिखेंगे। शाम होते ही लोग घरों में और गेट पर ताला। घर के भीतर कुछ हो न हो पर दीवारें जरूर ऊंची-ऊंची हैं। मुख्य गेट वजनदार और मजबूत होता है। ऐसा सुरक्षा की दृष्टि से। सवाल उठता है कि इन्हें खतरा है किससे? हां, शाही में एक बात सुखद हुई है, बिजली पहले की अपेक्षा बहुत ज्यादा मिल रही है। इसलिए पढ़ाई के प्रति बच्चों का रूझान बढ़ा है। एक ओर जहां समाज में पूंजीवाद का बोलबाला है और हर कोई मुनाफा कमाने की होड़ में हैं। उसके लिए जाति, धर्म, भेद-भाव, क्षेत्र आदि का कोई फर्क नहीं है। बस मुनाफा प्रमुख है। तब देश में ऐसे गांव भी हैं जो आज भी सामंती सोच और मान्यताओं को ढो रहे हैं। और अपनी स्थिति को नियति मान कर बैठे हैं।

अगले भाग में जारी……….
-रूपेश कुमार सिंह09412946162
मैदान के गांव भी हो रहे हैं खाली (भाग-दो)

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