दिनेशपुर क्षेत्र में तीन चरणों में बसे विस्थापित बंगालियों के छत्तीस गाँव: रोहिताश्व
-रूपेश कुमार सिंहरोहिताश्व मल्लिक
‘‘तराई में बंगालियों के बसने के साथ ही सही विस्थापन और हक हकूक के लिए संघर्ष की जरूरत महसूस होने लगी थी। 1953 में तराई उद्वास्तु समिति का गठन हुआ। राधाकान्त राय अध्यक्ष और पुलिन कुमार विश्वास महासचिव, हरिपद विश्वास उपाध्यक्ष चुने गये। हिन्दी भाषा सीखना भी बंगालियों के लिए कड़ी चुनौती थी। नेतृत्वकारियों में राधाकान्त राय को ही टूटी-फूटी हिन्दी बोलनी आती थी। हिन्दी लिखना और पढ़ना तो किसी के लिए संभव न था। उस समय हिन्दी हऊआ से कम नहीं थी। पुनर्वास विभाग के अधिकारियों और अन्य सरकारी कर्मचारियों से संवाद की आवश्यकता ने बंगालियों को हिन्दी सीखने पर मजबूर किया। यह इतना आसान नहीं था। बुजुर्ग हिन्दी सीखने से कन्नी काटते थे। महिलाएं तो बहुत दूर ही रहीं। युवाओं में जरूर एक उत्सुकता थी, लेकिन किससे और कैसे सीखे, यह बड़ा सवाल था। भाषा और बोली की असमानता ने लम्बे समय तक विस्थापित बंगालियों का आत्म विश्वास उभरने ही नहीं दिया। तराई उद्वास्तु समिति बाद में उत्तर प्रदेश उद्वास्तु समिति बनी। राधाकान्त राय के निधन के बाद अखिल भारतीय उद्वास्तु समिति बनी, जिसके अध्यक्ष पुलिन कुमार विश्वास बने।शुरूआती सालों में तो दूसरे समुदाय के लोगों और सरकारी कर्मचारियों को अपनी बात इशारे से समझाने की परेशानी से दो-चार होना पड़ा। हिन्दी सीखने-समझने की मजबूरी ने बंगाली समाज को पढ़ाई के प्रति भी जागरूक किया। बच्चों को स्कूल से जोड़ने की पहल हुई। होनहार छात्रों को समाज ने अपने खर्च पर पढ़ाने की योजना भी बनायी। मैं तराई में बसे रिफ्यूजी बंगालियों में पहला ग्रेजुएट हूँ। मुझे समाज ने ही खड़ा किया, पढ़ाया-लिखाया। बंगालियों को भाषा के स्तर पर भी कड़ा संघर्ष करना पड़ा।’’ यह कहना है राधाकान्तपुर निवासी रोहिताश्व मल्लिक का। वे तराई में बंगाली गाँव की बसासत के न सिर्फ प्रत्यक्षदर्शी हैं, बल्कि रिफ्यूजी आन्दोलन के सशक्त गवाह भी हैं।
स्कूल प्रमाण पत्र के अनुसार 1943 में मठबाटी गाँव, पोस्ट गदाईपुर, थाना पाइकगाछा, जिला खुलना में जन्में रोहिताश्व मल्लिक अपनी माँ के साथ भारत आये। पूर्वी पाकिस्तान से पलायन की उनकी दास्तान भी हजारों-हजार बंगाली रिफ्यूजी से मिलती-जुलती है। वे बताते हैं, ‘‘1952 से पहले तक भारत और पूर्वी पाकिस्तान का बाॅर्डर खुला था। पासपोर्ट-बीजा शुरू होने पर लोगों में आशंका पैदा हुई कि अब भारत जा पाना उतना आसान नहीं होगा, इसलिए 1953 में बड़ी तादाद में बंगाली लोग शरणार्थी बनकर पश्चिम बंगाल में दाखिल हुए।’’ वे बताते हैं कि नीलू बड़ी बहन है। तब बाल विवाह का चलन था। भारत आने के सवा साल पहले नीलू की शादी नजदीक के गाँव में हो गयी थी। नीलू की उम्र 9-10 साल रही होगी। मैं उससे दो साल छोटा था। पिता जी पहले ही गुजर चुके थे। घर पर माँ और मैं दो ही सदस्य थे। नीलू अपनी ससुराल में थी। एक दिन गाँव के कुछ रिश्तेदारों ने रात में ही गाँव से पलायन करने का फैसला किया। नीलू को साथ लाना संभव नहीं होगा, इसका इल्म माँ को था, इसलिए वो गुमसुम सी जरूरी सामान बाँध रही थी।
मैंने माँ से सवाल किया, ‘‘माँ, दीदी को लेकर नहीं चलोगी? उसको बुलाने मैं जाऊँ?’’ माँ बोली, ‘‘उसको बताने का समय नहीं है अभी। उसकी ससुराल वाले उसे देख लेंगे। वे लोग उसे हमारे साथ नहीं भेजेंगे।’’ मैंने माँ की बात का प्रतिवाद किया, ‘‘लेकिन उसे बताना तो पड़ेगा न? उसे बिना बताये हम लोग कैसे जा सकते हैं?’’ माँ निरुत्तर थी। उसके पास शायद कोई जवाब न था। माँ की आँखें भर आयीं। वो रोते-रोते सामान बटोरती रही। हम लोग दीदी को बिना बताये नदी के रास्ते नाव पर सवार होकर इच्छामती नदी के किनारे बशीरहाट बाॅर्डर पहुँचे। बाॅर्डर स्लिप माँ के नाम पर बनी। हम बशीरहाट के कल्याणी सिनेमा हाल लाये गये। यहाँ कुछ रोज हमें रखा गया। वहाँ से ट्रेन द्वारा सियालदह रेलवे स्टेशन पहुँचे। हमारे साथ मौसा जी, मामा जी और गाँव के दो-तीन परिवार भी थे।
सियालदह रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म न0 12 पर हम सब एक माह रहे। जिन बंगालियों का आज तक पुनर्वास नहीं हुआ, वे हजारों शरणार्थी आज भी विभाजन के समय की तरह पूरे पश्चिम बंगाल में रेवले प्लेटफार्म, रेल पटरियों के दोनों ओर, सड़क के किनारे, झील, नदी, तालाब, नाले के किनारे झुग्गी झोपड़ियों में कीड़े-मकोड़े की तरह रहने को मजबूर हैं। विभाजन की त्रासदी आज भी जारी है। रजिस्ट्रर पर नाम चढ़ चुका था। दो वक्त खिचड़ी या दाल-चावल खाने को मिलता था। यात्रियों के आने-जाने की जगह छोड़कर हजारों बंगाली विस्थापित खुले आसमान के नीचे ही चटाई पर खेता (बिस्तर) डालकर रहते थे। प्रतिदिन कुछ लोगों को एनाउंसमेंट कर एक जगह जमा किया जाता था और उन्हें दूसरी जगह अस्थाई कैम्पों मंे भेज दिया जाता था। लगभग एक माह बाद एनाउंसमेंट में मेरे मौसा जी, मामा जी और अन्य लोगों का नाम पुकारा गया, लेकिन माँ का नाम नहीं बोला गया। नियम के अनुसार जिनका नाम लिस्ट में होगा, वे ही कैम्प में जा सकते थे। बहुत मिन्नतें की माँ ने अधिकारियों की, लेकिन किसी ने एक न सुनी। मौसा जी बोले, ‘‘मैं कैम्प में जगह बनाकर कुछ दिनों में तुम्हें यहाँ से ले जाऊँगा। तब तक तुम लोग यहीं रहना, कहीं जाना नहीं।’’ मन मसोसकर माँ और मैं वहीं रहे। बाकी सभी हमें छोड़कर हावड़ा के घुसुड़िया शरणार्थी कैम्प चले गये।
हम मौसा जी के आने के इंतजार में दिन काट रहे थे। कोई जानने वाला नहीं था। अनजान लोगों के बीच हम दूसरों के मुँह ताकते रहते थे। रेलवे स्टेशन पर कभी न बंद होने वाली टेªन की आवाज में हमारे भीतर की चीख सुनने वाला कोई नहीं था। दिन गुजरते गये, लेकिन मौसा जी नहीं आये। कहीं ओर जाने का विकल्प नहीं था हमारे पास। एक दिन शाम के वक्त एक बुजुर्ग पैसेंजर प्लेटफार्म से गुजर रहे थे। अचानक लड़खड़ाकर वे गिर पड़े। हमारा बिस्तर बिल्कुल नजदीक था। माँ ने उन्हें उठाया और अपने बिस्तर पर लेटा दिया। मैं हाथ वाले पंखे से हवा करने लगा। माँ ने उनके मुँह पर पानी डाला। कुछ देर में उन्हें होश आ गया। उन्होंने माँ का शुक्रिया अदा किया। हमारी आपबीती सुनने के बाद उन्होंने कहा, ‘‘तुम लोग चाहोे तो मेरे साथ चल सकते हो। जब तक तुम्हारे लोग तुम्हें न मिल जाये और कहीं रहने की व्यवस्था न हो जाए, तब तक तुम लोग हमारे यहाँ रुक सकते हो।’’ माँ राजी हो गयी। हम लोग नदिया जिले के फुलिया गाँव में उन बुजुर्ग के साथ आ गये। लगभग बीस दिन हम उनके घर रुके। माँ मुझे लेकर फिर सियालदह रेलवे स्टेशन पर उसी जगह आ गयी, जहाँ हम पहले थे। जगह घिर चुकी थी। उन्होंने हमे भी एडजस्ट कर लिया। एक दिन मौसा जी और मामा जी हमें लेने आ गये। उनके साथ 5 अक्टूबर, 1953 को हम भी घुसुड़िया कैम्प आ गये। कुछ माह वहीं रुके, उसके बाद ट्रेन से बरेली, फिर किच्छा और वहाँ से अन्ततः मोहनपुर न0 एक अस्थाई शरणार्थी कैम्प पहुँच गये। 1954 की शुरूआत में मैं और माँ राधाकान्तपुर बस गये। यहाँ अधर वैद्य ने हमारा सहयोग किया। हम दोनों माँ-बेटा मजदूरी करने लगे।
रोहिताश्व मल्लिक बताते हैं कि दिनेशपुर क्षेत्र के 36 विस्थापित बंगाली गाँव तीन चरणों में बसे। सबसे पहले 1950-51 में बंगाली शरणार्थियों को यहाँ बसाया गया। इससे पहले तराई से बंगालियों का कोई लेना-देना नहीं था। पहले चरण में 1951 में बंगालियों के सात गाँव बसे। जिनमें मोतीपुर न0 एक, पिपलिया न0 एक, मोहनपुर न0 एक, खानपुर न0 एक, हरिदासपुर, आनन्दखेड़ा न0 एक और दिनेशपुर शामिल थे। प्रत्येक गाँव में कम से कम 20 और अधिक से अधिक 60 परिवारों को बसाया गया। 1952 में दूसरे चरण में सात और गाँव अस्तित्व में आये। जिनमें चन्दननगर, रामबाग, मोहनपुर न0 दो, खानपुर न0 दो, शिवपुर, चन्दनगढ़ न0 एक, और पिपलिया न0 दो शामिल थे। अब पहले से ज्यादा परिवारों का सेटलमेंट हुआ। 1953 में तीसरे चरण में कालीनगर, चित्तरंजनपुर, राधाकान्तपुर, लक्खीपुर, श्रीरामपुर, विजयनगर ग्राम सभा के दस गाँव व बसंतीपुर बसे। 1954 में भी कुछ गाँव बसे, लेकिन इनके लिए 1953 में ही प्रस्ताव हो चुका था। जिनमें मोतीपुर न0 दो, चन्दनगढ़ न0 दो, आनन्दखेड़ा न0 दो शामिल थे।
इस प्रकार 1954 तक दिनेशपुर क्षेत्र में 36 बंगाली गाँव बस चुके थे। जिन्हें तब काॅलोनी कहा जाता था। आज इन गाँवों की संख्या 36 से बढ़कर 48 हो चुकी है। बहुत-सी नयी काॅलोनियां अस्तित्व में आयीं और आज भी बन रही हैं। पूर्वी पाकिस्तान में बंगाली नदी और तालाबों से घिरे रहते थे। मछली पालन ही मुख्य व्यवसाय था। खेती से बहुत लगाव नहीं था। इसलिए खानपुर, मोहनपुर, शिवपुर, दिनेशपुर सहित कई गाँवों में बड़े-बड़े तालाब बनाये गये। ये तालाब आज भी मौजूद हैं। इसके अलावा बंगालियों ने दर्जनों निजी तालाब भी बनाये। रोहिताश्व जी बताते हैं कि मोतीपुर न0 दो और चित्तरंजनपुर न0 दो विस्थापित बंगालियों के सबसे छोटे गाँव थे। यहाँ महज बीस-बीस परिवारों को दस क्वार्टरों में बसाया गया। इसलिए शुरू में इन्हें दस क्वार्टर ही कहा जाता था। वे बताते हैं कि 1956 में राशन, कृषि उपकरण, अनुग्रह राशि, अस्पताल, जूनियर हाईस्कूल और जमीन जोतने के लिए पहला अभूतपूर्व आन्दोलन हुआ। तराई उद्वास्तु समिति के नेता आन्दोलन की अगुवाई कर रहे थे। बच्चों और बुजुर्गों को छोड़कर हजारों की संख्या में महिला-पुरूष पुराने जिला अस्पताल, रुद्रपुर के ग्राउंड में जमा हुए। जुलूस के बाद धरना आमरण अनशन में तब्दील हो गया।
बंगाली विस्थापितों का यह पहला बड़ा आन्दोलन था। इससे पहले बसंतीपुर, उदयनगर, और पंचाननपुर गाँवों का रजिस्ट्रेशन रद्द होने के खिलाफ रुद्रपुर में आन्दोलन हुआ था। उस आन्दोलन में भी आमरण अनशन हुआ था। अनशनकारियों में बंगाली नेता पुलिन बाबू की बहन सरला देवी भी शामिल थीं। इस आन्दोलन से इन गाँवों का रजिस्ट्रेशन फिर बहाल हुआ। लोगों में आक्रोश भी था और जोश भी। महिलाएं बराबर की भागीदारी निभा रहीं थीं। फुलझड़ी सरकार, पाता रानी, संध्या रानी तीन महिलाएं कालीपद जोद्दार व गुरूपद सेन के साथ आमरण अनसन पर बैठीं। तब ये सभी समिति में दूसरी पंक्ति के नेता थे। सुबह लोग रुद्रपुर अनशन स्थल पर पैदल जाते थे। दिन भर वहाँ आन्दोलन में शामिल रहकर शाम को पैदल ही अपने-अपने गाँव लौट आते थे। रात में कुछ लोग ही वहाँ रुकते थे। पुलिस और प्रशासन ने आन्दोलन को कुचलने के लिए दमनात्मक कार्यवाही की। रात में पुलिस ने आन्दोलित लोगों पर लाठीचार्ज कर दिया। लोगों को जबर्दस्ती ट्रक में भर लिया। तंबू उखाड़ दिया गया। गिरफ्तार लोगों को रात में ही केलाखेड़ा के घने जंगल में छोड़ दिया। रोज की तरह सुबह लोग अनशन स्थल पहुँचे, लेकिन वहाँ का नजारा बदला हुआ था। पुलिस ने उन लोगों को भी वहाँ से खदेड़ दिया।
जैसे-तैसे लोग केलाखेड़ा के जंगल से दिनेशपुर दुर्गा मन्दिर पहुँचे। लोगों में घटना के प्रति गहरी नाराजगी थी। दुर्गा मन्दिर में ही आन्दोलन शुरू हो गया। अगले दिन नारायण दत्त तिवारी बंगालियों के समर्थन में दिनेशपुर पहुँचे। तब वे प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से हल्द्वानी के विधायक थे। उनके साथ समाजवादी नेता अशोक मेहता, जे बी कृपलानी भी आये। तिवारी जी ने लोगों को संबोधित किया। उनका बंगाली समाज से बेहद लगाव था। पहली बार कोई जनप्रतिनिधि दिनेशपुर में बंगालियों का दर्द सुनने आया था। महिलाओं ने उनका परंपरागत तरीके से जयध्वनि और शंखनाद करके स्वागत किया। इसके बाद जब भी एन डी तिवारी बंगालियों के बीच आये, उनका उसी तरह से खैरमकदम हुआ। रोहिताश्व जी बताते हैं कि तिवारी जी हिन्दी में बोल रहे थे। उनकी भाषा-बोली तो लोग नहीं समझ पा रहे थे, लेकिन उनके हाव-भाव से ऐसा लग रहा था कि वो विस्थापित बंगालियों की माँग के पक्ष में हैं।
तिवारी जी के प्रयास से आन्दोलित बंगालियों की मांगें प्रशासन ने मान लीं। बंगाली विस्थापितों की एकता को इससे बल मिला और गलत के खिलाफ आवाज बुलंद करने का साहस पैदा हुआ। सितम्बर, 1957 में जूनियर हाईस्कूल खुला जो आज इंटर काॅलेज है। जगत सिंह कठैत पहले टीचर थे। वही प्रधानाचार्य थे और क्लर्क भी। इसी साल प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र भी खुला। कक्षा 6 शुरू करने के लिए कठैत जी पाँच छात्र खोज रहे थे। इससे कम में क्लास शुरू नहीं हो सकती थी। लेकिन मानक के अनुरूप छात्र नहीं मिल रहे थे। तब पाँचवीं पास बिरले ही होते थे। पहले बैच के लिए सोमनाथ वैद्य, सुधारंजन राहा, अमल विश्वास और राधाकान्त वैद्य चार नाम लिखे जा चुके थे। एक और छात्र की खोज थी। कठैत सर ने उद्वास्तु नेताओं से कहा, ‘‘देखो, यदि पाँच बच्चे नहीं हुए तो कक्षा शुरू नहीं हो पाएगी। स्कूल भी दूसरी जगह जा सकता है। कोई एक होनहार बच्चा खोजकर दो।’’ हमारे नेता विरंची पद राय, मनिन्द्र माल्दार, दयाल मण्डल और मुझे लेकर स्कूल पहुँचे। टेस्ट में मैं पास हो गया। बाकी सब को छोड़कर मुझे प्रवेश मिल गया। इस प्रकार मुझे भी दिनेशपुर के हाईस्कूल का पहला छात्र होने का अवसर मिला।
आईटीआई भी 1957 के अन्त में खुल गयी थी। पहले बैच में हरिदासी सरकार, फुलझड़ी सरकार, संध्या रानी, पाता रानी, आलो शील ने कटिंग टेलरिंग में प्रवेश लिया। कटिंग टेलरिंग ट्रेड की प्रशिक्षिका गीता मुखर्जी थीं। अन्य ट्रेड में अघोर राय, लालू मल्लिक, विमल सरकार, एकान्त राय ने दाखिला लिया। रोहिताश्व बताते हैं कि 1968 में संतोष कुमार दास ने प्रथम श्रेणी में हाईस्कूल पास किया। दिनेशपुर हाईस्कूल के वे पहले छात्र हैं जिन्होंने प्रथम श्रेणी में दसवीं की। इसके बाद 1973 में पलाश चन्द्र विश्वास ने प्रथम श्रेणी में हाईस्कूल पास किया। तराई उद्वास्तु समिति ने शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए 1960 में एक प्राइवेट स्कूल खोला। दसवीं तक की कक्षाएं शुरू की गयीं। लेकिन कमेटी में तालमेल के अभाव और टीचर न मिल पाने के कारण जल्द ही स्कूल बंद हो गया। वे बताते हैं कि 1964 में इंटर, फिर लखनऊ से 1967 में ग्रेजुएशन करने के बाद दिल्ली में राजनीति शास्त्र से एम ए करने के लिए प्रवेश लिया, लेकिन पहले साल की पढ़ाई के बाद छोड़ दिया। ‘‘मेरे पढ़ने के लिए गाँव व बंगाली समाज के संभ्रान्त लोगों ने चंदा तक जुटाया। पढ़ाई में मैं तेज था। हिन्दी और अंग्रेजी मुझे ठीक-ठीक आती थी। इसलिए राधाकान्त राय और पुलिन बाबू मुझे अक्सर अपने साथ दिल्ली, लखनऊ व अन्य जगह ले जाते थे। विस्थापित समाज की समस्याओं को लेकर मैंने सैकड़ों प्रार्थना पत्र लिखे।’’
इस बीच एन डी तिवारी से मेरा अच्छा परिचय हो गया। उनके लखनऊ स्थित आवास पर मैं बहुत जाता था। 1969 में तिवारी जी उत्तर प्रदेश सरकार में वित्त मंत्री थे। एक दिन उन्होंने मुझसे कहा, ‘‘रोहिताश्व, अब नौकरी कर लो। पढ़ाई नौकरी के साथ-साथ करते रहना। बताओ कहीं बात करूँ?’’ मैंने हाँ में उत्तर दिया। मुझे 1969 में दिनेशपुर प्राइमरी पाठशाला में बांग्ला टीचर के तौर पर नौकरी मिल गयी। दो सौ रुपये प्रतिमाह मिलते थे। 1973 में मैंने परीक्षा पास करके सप्लाई इंस्पेक्टर की नौकरी ज्वाइन कर ली। पहली पोस्टिंग रानीखेत में हुई। कुमाऊँ और बरेली मण्डल में कई जगह नौकरी करने के बाद बरेली से ही 2001 में रिटायरमेंट हुआ। वे बताते हैं कि नौकरी के दौरान भी वह विस्थापित बंगालियों के आन्दोलन में सहयोगी रहे। 1963 में तराई जनकल्याण युवक समिति के अध्यक्ष रहे। वे बताते हैं कि 1962 में सबसे पहले हरिदासपुर गाँव में बिजली पहुँची। एनडी तिवारी उद्घाटन करने आये थे। अगले दस साल में अन्य बंगाली गाँवों में बिजली आई। आम लोगों तक बिजली पहुँचने में तो और भी बीस साल लगे।
24 अप्रैल, 1994 में नगर पालिका रुद्रपुर के सभागार में तराई भर से बंगाली नेताओं और जनप्रतिनिधियों की विशाल बैठक हुई। बंगाली कल्याण समिति और बंगाली कर्मचारी मंच की स्थापना हुई। कल्याण समिति में हर बंगाली सदस्य हो सकता है, जबकि कर्मचारी मंच सिर्फ नौकरी करने वालों के लिए है। बिरंचीपद राय को समिति का अध्यक्ष और के के दास को सचिव चुना गया। रोहिताश्व मल्लिक मंच के पहले अध्यक्ष और शंकर चक्रवर्ती सचिव चुने गये। 2001 में नागरिकता के लिए हुए आन्दोलन में इन्हीं दो संगठनों की नेतृत्वकारी भूमिका थी। उद्वास्तु समिति के सारे पुराने नेता तब तक दिवंगत या निष्क्रिय हो चुके थे।
–रूपेश कुमार सिंह स्वतंत्र पत्रकार, दिनेशपुर 9412946162