असम और पश्चिम बंगाल की पर्वत घाटियों में चाय बागानों में काम करने वाले कामगारों की स्थिति आज भी ब्रिटिश काल की भाँति बनी हुई है। पश्चिम बंगाल विधान सभा में वर्ष 2019 में टी टूरिज्म बिल पास हुआ, जिसके तहत चाय बागानों की 15 प्रतिशत यानी डेढ़ सौ एकड़ जमीन गैर बागानी क्षेत्र की टाउनशिप विकसित करने के लिए दी गई। इस योजना को अमली जामा पहनाने के लिए सरकार चाय सुंदरी योजना के तहत चाय बागानों में काम करने वाले मूल निवासियों को वहाँ से हटाकर घर के नाम पर दो कमरों के दड़बों में ठूँस रही है।
एक तरफ अभिजात लोग जहाँ अन्य ग्रहों पर घर खरीदने की योजना बना रहे हैं, वहीं सरकार चाय बागान में काम करने वाले लाखों कामगारों के मौलिक अधिकारों को चाय सुंदरी योजना के चकाचौंध से रौंदने की कोशिश कर रही है।
वर्तमान स्थिति-आज चाय बागान में जो लोग रह रहे हैं, उनके पास कई कट्ठा तक जमीन-जायदाद है। उस जमीन पर लोग अपने मन मुताबिक अपना घर बनाए हुए हैं। बची जमीन में साग-सब्जी उगाने के साथ-साथ में पशुपालन करते हैं। क्या ये सुविधाएं दो कमरे वाले कोठार में मिल पाएंगी? सभी लोग बेहतर की उम्मीद लेकर आगे बढ़ते हैं, वही सरकार यहाँ के लोगों को पहले से प्राप्त सुविधाओं से भी वंचित करने की कोशिश कर रही है।
निर्वासन के बाद समस्या- अगर यहाँ से लोगों को चाय सुंदरी के घरों में निर्वासित कर दिया जाता है तो क्या उनके पुरखों के खून-पसीने से बनाए गए घरों का मालिकाना हक उनके पास रहेगा? उनके गाँव के रीति- रिवाज, पूजा-पाठ, धार्मिक स्थल, कर्मा, जितिया के लिए अखाड़ा, मडुआ, शादी, सामाजिक-धार्मिक आयोजन के लिए कोई जगह निर्धारित की जाएगी? जवाब नहीं मिलता है। उनके पूर्वज बचपन से जिस आँगन में खेलकर पले, बढ़े, उस आँगन का क्या होगा? आदिवासियों के इन सवालों का जवाब अगर किसी के पास है तो उन्हें देना चाहिए!
गुलामों जैसा व्यवहार- एक सर्वे के मुताबिक उत्तर बंगाल के पहाड़, तराई और डुआर्स के चाय बागानों में 1,86,559 परिवार निवास करते हैं और उनकी जनसंख्या 11,24,907 है। पहाड़, तराई और डुआर्स के 273 बागानों में कुल 2,62,426 स्थाई कामगार कार्यरत हैं।
आज भी सरकार इन कामगारों के साथ बंधुआ मजदूर और मानसिक गुलाम जैसा व्यवहार करती नजर आ रही है। उन्हें न तो निर्धारित न्यूनतम वेतन दिया जाता है और न ही कार्यस्थल पर मूलभूत सुविधाएं, बल्कि इसके उलट आज भी इन बागानों में काम करने वाले कामगारों को प्रतिदिन के हिसाब से मात्र 202 रुपए दिए जाते हैं। जो किसी भी हिसाब से उचित नहीं माना जाएगा। ऊपर से थकाऊ कार्य अवधि एवं निर्धारित मात्रा में चायपत्ती को तोड़ने की शर्त। इसके बाद बागान मालिकों की अलग-अलग शर्तें और नखरे। चाय बागान में सुविधा के नाम पर न तो कहीं पर्याप्त संख्या में विश्राम गृह का निर्माण किया गया है और न ही समुचित पेयजल की सुविधा है। दार्जिलिंग, कार्सियांग और कलिंपोंग के चाय बागानों में पानी की भारी किल्लत है, जहाँ प्राकृतिक झरना और झोरा ही पानी आपूर्ति का एकमात्र स्रोत है। जंगली जानवरों से बचाव के लिए कोई उपाय नहीं। बिजली की पर्याप्त सुविधा नहीं है।
महिला कामगारों को कोई विशेष सुविधा नहीं- यह सर्वविदित है कि चाय बागानों में काम करने वाले अधिकतर कामगार महिलाएं होती हैं। उन्हें मातृत्व अवकाश, सेनेटरी पैड, शौचालय आदि की सुविधा आज तक पर्याप्त नहीं मिलती हैं।
शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा का टोटा- इन क्षेत्रों में शिक्षण केंद्रों का बहुत अभाव है। जहाँ कहीं प्राथमिक विद्यालय है भी तो उनकी हालत इस कदर खराब है कि कहीं भवन है तो शिक्षक नहीं। शिक्षक हैं तो पढ़ाने लायक भवन नहीं। स्वास्थ्य केंद्र भी पर्याप्त संख्या में और उपयोगी नहीं हैं। 273 चाय बागानों में सिर्फ 166 में अस्पताल की सुविधा है। सिर्फ 56 में ही पूर्णकालिक आवासीय डॉक्टर हैं। कुल 166 डॉक्टरों में सिर्फ 74 डॉक्टर ही एमबीबीएस हैं। जब कभी दुर्घटना हो जाती है तो लोग शहरों तक पहुँचते-पहुँचते रास्ते में ही दम तोड़ देते हैं।
पूँजीपतियों और भूमाफियाओं का साँठ- गाँठ- चाय बागान के 98 प्रतिशत लोग चाय सुंदरी और टूरिज्म के बारे में कुछ नहीं जानते। उन्हें अंधकार में रखकर पूँजीपतियों एवं भू-माफियाओं की साँठ-गाँठ से घाटी की बेशकीमती जमीन हड़पी जा रही है। अधिकारियों से लेकर कुछ विधायकों, सांसदों, मंत्रियों की भी भागीदारी दिखाई पड़ती है। उनकी चुप्पी ही उन पर सवाल खड़ा कर देती है। इस मुद्दे पर न तो कोई गैर सरकारी संगठन, न कोई मीडिया समूह, न ही विपक्षी पार्टियां और न सत्ता में शामिल केंद्र से लेकर राज्य तक के जनप्रतिनिधि किसी भी प्रकार की आवाज उठा रहे हैं।
दोरंगी नीति- चाय बागान मामले के जानकार ‘नेह इंदर’ के अनुसार एक तरफ पश्चिम बंगाल सरकार का मानना है कि कानून के तहत किसी जगह पर 12 साल तक रहने पर वहाँ लोगों को उस जगह का मालिकाना हक मिल जाता है। राज्य में सरकारी जमीन पर अनेक कॉलोनियां हैं, जहाँ 48 साल से लोग गुजर बसर कर रहे हैं, उन कॉलोनियों को सरकार रेग्युलराइज करने पर विचार कर रही है। पश्चिम बंगाल सरकार ने 48 वर्षों से सरकारी, गैर-सरकारी जमीन पर बसे/कब्जा जमाए रिफ्युजियों को जमीन पर मालिकाना हक देने की घोषणा की है। सरकार का मानना है कि 1971 के बाद भारत में आए हुए अनेक शरणार्थियों के पास न तो अपनी जमीन है और न अपना घर। जबकि उन्हें जमीन और घर पाने का अधिकार है। लेकिन उसी समय लगभग डेढ़ सौ बरसों से अधिक समय से भारत के ही मूल निवासी जो चाय बागानों में स्थाई रूप से रह कर देश दुनिया को चाय पिलाने का काम कर रहे हैं, उन्हें उनकी ही जमीन से बेदखल करने की लगातार कोशिश की जा रही है। इसके लिए लालच और भय का सहारा लिया जा रहा है। इसीलिए सरकार चाय सुंदरी योजना लाई है। अशिक्षित गरीब, मजदूर, अनुसूचित जनजाति के लोगों को उनके मूल निवास स्थान, जहाँ उनका घर और खेत-बागान भी हैं, से उन्हें निकाल कर दो कमरों के घरों में भेजने का लालच दिया जा रहा है। जो लोग ऐसा करने के लिए तैयार नहीं हैं, उन्हें विविध प्रकार से तंग किया जा रहा है।
इन कामगारों को आज तक की सरकारों ने सिर्फ चाय बागान के मजदूर और मतदाता के रूप में ही स्वीकारा है। आज तक उन्हें जिस भूमि पर वे रहते आए हैं, उसका बंदोबस्त नहीं किया गया, जिसके कारण उनमें हमेशा निर्वासित होने का डर सताता रहता है।
एक तथ्य यह भी- एडवर्स पोजेसन ;प्रतिकूल कब्जाद्ध एक्ट के तहत ऐसा संभव है कि किसी जमीन पर 30 साल तक कब्जा होने पर अमुक को उसका मालिकाना हक मिल सकता है। अखबारों के अनुसार शरणार्थियों को तीन एकड़ जमीन ;नौ बीघाद्ध भूमि तक पाने का अधिकार है। समाचारों में कहा गया है कि देश में राष्ट्रीय नागरिक पंजी ;एनआरसीद्ध लागू करने की घोषणा के बाद रिफ्युजियों की सहायता करने के लिए यह कदम उठाया गया है।
कामगारों के प्रति उदासीनता क्यों?- डुवार्स-तराई और दार्जिलिंग के करीबन 300 चाय बागानों में चाय मजदूर 1855-60 से बसे हुए हैं। एक ही स्थान पर बसने और काम करने की उनकी अवधि 2019 तक कमोबेश 154 वर्ष हो गई है। 154 साल से इसी जमीन पर चाय मजदूर बसे हुए हैं, पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक ही घर में रह कर चाय बागानों में अपनी कई पीढ़ियों को खपा दिए हैं, खून-पसीना बहा कर हर वर्ष कई अरब रुपए टैक्स और आयात आय प्राप्त करने में महत्वपूर्ण योगदान कर रहे हैं। वे पिछले 10 वर्षों से लगातार अपने 154 वर्ष की आवासीय भूमि पर मालिकाना हक माँग रहे हैं। सरकारों का ममत्व चाय कामगारों के लिए क्यों सूख जाता है?
नागरिकता पर संशय के बादल- एनआरसी के तहत लाखों चाय बगानियार को असम में विदेशी सूची में डाल दिया गया है। डुवार्स तराई में भी यही होगा। चाय मजदूर के सामने अपने सैकड़ों साल के घर आँगन वाली आवासीय भूमि का मालिकाना हक जीने मरने का सवाल बन कर खड़ा हुआ है।
सरकार की नजरों में राज्य के 50 लाख आदिवासियों में से 20 लाख लोग आवासविहीन हैं और वह उनके लिए खुद घर बनवा कर देगी। सरकार आदिवासी विकास के मामले में उन्हें जमीन देने में विश्वास नहीं करती है।
चाय सुंदरी योजना ने पश्चिम बंगाल सरकार की आदिवासियों के प्रति सौतेलापन को जगजाहिर कर दिया है।