वैसे तो रंगमंच में जितने गोते लगा लो, गहराई अंत तक नहीं मिलती। नया थिएटर से जुड़ने के बाद नाटक और इसे जीने की परिभाषा बदल गई। ग्रामीण छत्तीसगढ़ के नाचा कलाकार अधिकतर अनपढ़ थे, जिनके पास सिर्फ हुनर था, और विरासत में मिली नाचा शैली। कभी कोई बड़ा किरदार मिलता तो किसी भी शहरी अभिनेता से अपने संवाद को पढ़वाते और उसे सुनकर कुछ ही दिनों में याद कर कमाल का प्रदर्शन करते। उनके अभिनय चाहे आंगिक हो या वाचिक, एक अलग संचार पैदा करते और फिर भारत हो या पाश्चात्य दुनिया, सभी उनके काम को समझते और पसंद करते। सभी कलाकारों में कुछ ना कुछ अलग होता।
जैसे उच्च स्वर में गाने की क्षमता, बेहतर आंगिक संचालक आदि। मंच पर वे कुछ और होते हैं लेकिन आम जीवन में एक साधारण इंसान बन जाते हैं। अभिनेता के नाम पर कुछ भी नहीं
ओढ़ा होता। यही पारदर्शिता मैंने पाई नया थियेटर में।
1999 के दौरान हबीब साहब ने एक शाम विशेष मीटिंग रखी और कहा कि हमें पाकिस्तान जाना है नाटक ‘‘जिन लाहौर नहीं देख्या वो जन्मया ही नई’’ लेकर, वो भी लाहौर में। हमेशा से मुझे पाकिस्तान को देखने और जानने का मन रहा है। सिर्फ इसलिए कि वह कभी हमारे देश का एक हिस्सा रहा है। एक दुःखद इतिहास, कई बातों में समानता आदि।
मेरे बहुत से मित्र मुस्लिम हैं। नया थिएटर के कई शहरी मुस्लिम कलाकार जो थिएटर करते थे भोपाल में, वो सब भी इस नाटक में थे। जैसे तनवीर, सुहैल, सरफराज, नाहिद। शो के पाकिस्तान जाने पर सभी खुश थे और रोमांचित भी। वीसा, पासपोर्ट की तैयारियां जोरों पर चलने लगीं, लेकिन किसी कारण से तनवीर की तरफ से मना हो गया। वो नासिर काजमी का किरदार करते थे, जो कि एक अहम पार्ट था उस नाटक में। यह एक संकट था। हबीब साहब ने थोड़ा फेरबदल करने की कोशिश की, लेकिन कोई हल नहीं निकला। आखिरकार हबीब साहब ने नासिर काजमी का रोल उस अभिनेता को दिया जो ताँगेवाला का किरदार किया करते थे। वो खुश थे, क्योंकि वो काफी समय से यह रोल करना चाहते थे। वैसे तो वे ताँगेवाला भी कमाल करते थे। समय कम होने की वजह से किसी बाहर वाले से तैयार करवाना मुश्किल लग रहा था। मेरी जुबान की वजह से मैं इसमें कोई संवाद वाला पार्ट नहीं करता था। एक मूक किरदार मोहम्मद शाह मैं बड़े अच्छे से करता था और लोग पसंद भी करते थे। हबीब साहब ने उसे करने के लिए मुझे काफी आजादी दे रखी थी। हमेशा मजाक में कहते भी थे, ‘‘अगर तुम नहीं करोगे तो मैं इस पार्ट को कर लूँगा।’’ लेकिन मैं भी कोई संवाद जरूर चाहता था हमेशा। मुझे दिया गया ताँगेवाला, क्योंकि मैं उसे कई बार प्रॉक्सी में करता रहा हूँ। राजू भाई को मिला नासिर काजमी, लेकिन इस ताकीद के साथ कि अगर मनोज ताँगेवाला अच्छा कर लेगा तो ही राजू नासिर काजमी करेंगे। तो राजू की जिम्मेदारी है कि मनोज का ताँगेवाला तैयार कराएं और खुद भी अपने रोल की तैयारी करें। हमें तीन दिन का समय मिला था इस तैयारी के लिए। राजू भाई ने मुझे पूरा किरदार समझाया ताँगेवाले का और खुद पूरी शिद्दत के साथ नासिर काजमी के किरदार में अपने आप को ढालने लगे।
वैसे तो मुझे ताँगेवाला पूरा याद था। मुझे यह किरदार, चाय वाला और नासिर काजमी के सीन बड़े अच्छे लगते थे। दर्शक इन तीनों किरदारों को बहुत पसंद करते थे और ये तीनों भी बड़े मजे लेकर सीन निभाते थे। मैं भी अपने सीन का इंतजार करते हुए उनके सीन को विंग्स से देखता था। उस तिकड़ी का हिस्सा मुझे बनने का मौका मिला था। बहरहाल तीन दिन हो गए, हम अपना-अपना पार्ट तैयार कर रिहर्सल में पहुँचे। हबीब साहब के सामने रिहर्सल शुरू हुई और समाप्त भी हो गई। मैं साँस रोके हबीब साहब की प्रतिक्रिया का इंतजार करने लगा। आखिरकार हबीब साहब बोले, मनोज ताँगेवाला सही नहीं कर पा रहा है। उर्दू जबान में नाटक है और ऊपर से नाटक पाकिस्तान जा रहा है। मैं कोई जोखिम नहीं लेना चाहता।
नतीजतन तनवीर से संपर्क करके उन्हें मना लिया गया नासिर काजमी के लिए।
सब अपने पुराने किरदार में आ गए जाहिर है, राजू भाई मुझ पर नाराज हुए। क्योंकि सिर्फ मेरे कारण वह नासिर काजमी के किरदार को नहीं कर पाए। उनके शब्द थे, ‘‘तुम्हारी वजह से मेरे हाथ से नासिर जाता रहा। अगर तुम संवाद नहीं बोल सकते तो थिएटर क्यों कर रहे हो? क्यों अपना और दूसरों का समय खराब कर रहे हो? तुम्हें नाटक नहीं करना चाहिए। नाटक करना है तो संवाद जरूरी है, भाषा का ज्ञान जरूरी है और यह सब नहीं है, तो बेकार है थिएटर करना।’’ मैं इन बातों के पीछे का दर्द समझ सकता था, लेकिन मैं तो हर तरफ से दुःखी था। एक तो मैं खुद ताँगेवाला करना चाहता था, वह नहीं मिला। दूसरा मेरी वजह से दूसरे लोग परेशान हुए। हबीब साहब भी निराश हुए। उस दिन रातभर रोया। दो दिन मायूस रहा। जीवन और उसका अर्थ, स्वयं के अस्तित्व को लेकर प्रश्न बनने लगे। खुद से ही सवाल करने लगा, नाटक में संवाद और भाषा का इतना महत्व है तो, मैं पिछले 9 साल से थिएटर के नाम से कर क्या रहा हूँ? बस, मैंने तय कर लिया कि मुझे थिएटर छोड़ देना चाहिए।
27 साल की उम्र में, जिसमें अमूमन लोग अपना प्रोफेशन चुनकर उसमें प्रयोग करने लगते हैं, मैं पिछले 9 साल से गलत रास्ते पर चल रहा था। तय किया कि पाकिस्तान नहीं जाऊँगा। मेरा रोल तो कोई भी कर लेगा। मोहम्मद साहब के बगैर संवाद वाले किरदार को कोई भी कर सकता है। एक मित्र ने मनाया भी कि, ‘‘तुम से बेहतर वो रोल कोई नहीं कर सकता।’’ फिर भी मन पलट चुका था। अब न रंगमंच, न ही नया थिएटर में काम करूँगा।
एक घटना ने मेरे उस निर्णय को बदल दिया। इससे पहले मैं पलटता, पाकिस्तान में तख्ता पलट हो गया। वजीर-ए-आजम जनाब नवाज शरीफ की जगह परवेज मुशर्रफ ने पाकिस्तान की कमान सँभाल ली। बहरहाल यात्रा रद्द हो गई। सबकी योजनाओं पर पानी फिर गया, लेकिन मेरे साथ कुछ और हुआ। एक तख्ता पलट पाकिस्तान में हुआ था और दूसरा मेरे मन में। मन में प्रश्न उठेः वो क्या ताकत थी जो मैं इतने साल लगातार रंगमंच से जुड़ा रहा? वह क्या था जिसके कारण हबीब साहब ने अपने नया थिएटर में मुझे शामिल किया था? उनकी एक बात याद है, उन्होंने कहा था ‘‘तुम्हारा शरीर लचीला है, लाउड एक्सप्रेशन और टाइमिंग बहुत अच्छी है। ये ही कुछ खासियतें एक अभिनेता को ताकत देती हैं। लोक कलाओं में भी ये ही गुण ज्यादा पाए जाते हैं। खासकर भारतीय लोक कलाओं में।’’ मैंने तय किया कि मुझे अपनी इन्हीं खासियतों को अपनी ताकत बनाना है। कहानी बगैर कहे भी कही जा सकती है। बस, यहीं से जिंदगी का एक दूसरा पन्ना लिखा गया। मन में एक ताजगी और नई लहर-सी उठ चुकी थी। हफ्तों बाद नींद आई सुकून भरी। नासिर काजमी की गजल कई दिनों तक जुबान पर बनी रही…..
दिल में एक लहर सी उठी है अभी, कोई ताजा हवा चली है अभी।
वक्त अच्छा भी आएगा ‘‘नासिर’’, गम ना कर जिंदगी पड़ी है अभी।।