माधो और उसके छोटे भाई की उमर निकली जा रही थी। उनके ब्याह की चिंता हो भी तो किसे..! माता पिता को स्वर्गवासी हुए बरसों बीत गए। एक बीघा से भी कम जमीन पर सब्जी भाजी उगाकर गुजारा चलता। कभी सूखा तो कभी बाढ़, तो कभी जानवर घुसपैठ कर सब मेहनत पर पानी फेर देते।
उदारमना पड़ोस के दूर के रिश्ते में काका ने दो चचेरी बहनों का रिश्ता करवा दिया। गरीब घर की कन्या बिना दहेज ब्याही जाएं, यही काफी था। ब्याह में कुछ तो गहना गट्टा चढ़ाया जाए। काका की सलाह पर जमींदार से उधार ले लिया। गाँव का जमींदार और उसका पूरा परिवार बदनीयती के मामले में बदनाम था। हाय री किस्मत, उसने जमानत के तौर पर माँगा भी तो क्या! ‘‘दोनों की पत्नियां!!’’ माधो और भैरव की जमीन तो कुछ खास न थी। उनकी नई नवेली पत्नियों को जमानत के तौर पर रखना कोई आसान या मामूली बात न थी। पूरा गाँव थू-थू कर रहा था, पर जमींदार के आगे कौन मुँह खोलता..! मरता क्या न करता, माधो को अपने ऊपर पूरा विश्वास था, छह महीने में पूरी रकम लौटा दी जाएगी।
ब्याह के बाद छह माह पलक झपकते बीत गए। माधो पूरी रकम न दे पाया, आधी रकम जमींदार रतन सिंह को कुबूल नहीं। पंचायत ने हाथ झाड़ लिए,ऐसे दुर्दिन भी देखने पड़ेंगे। गाँव का जमींदार अपनी रकम वसूलना जानता था। शायद वो इसी की ताक में था। दोनों औरतें रोती बिलखती जीप में जबरन बिठाई गईं।
उधर घर के नौकरों से रतन सिंह की पत्नी ने जब अपने पति और देवर का कारनामा सुना तो सिर पकड़कर बैठ गई। देवरानी का रोना, बिलखना देख उसे कमरे में भेजा। ‘‘हाय, हाय हमारी सौतनें ला रहे हैं..!’’ दोनों भाइयों की दो सुंदर बेटियां अपनी-अपनी माँओं को रोता देख, जोर-जोर से रोने लगीं। चारों तरफ मातम छाया था। रोती बिलखती दोनों औरतें अपनी किस्मत को कोस रही थीं।
समाज का सबसे कमजोर खिलौना औरत है, उसे समाज ने शायद कभी इंसान का दर्जा दिया ही नहीं। औरत का मन, उसके विचार, उसकी संवेदनशीलता, केवल उसके जिस्म तक ही सीमित है।
घर के कीमती सामान को गिरवी रखते हुए भी कोई व्यक्ति दो बार सोचता है। क्या माधो और भैरव ने एक क्षण को भी न सोचा होगा..! अब किस्मत को रोने से क्या लाभ?
दोनों औरतों के जाते ही पंचों की बैठक में दोनों भाइयों को जात बाहर कर हुक्का- पानी बंद कर दिया। हर गाँव वासी के पास एक ही खबर, जो आग-सी फैलती गई। औरतें अपने भाग्य को कोसने लगीं। जमींदार पर कोई हाथ नहीं डाल सका। उसकी दबंग फितरत से सभी परिचित थे।
इधर जीप के हॉर्न ने सबको सतर्क कर दिया…घर के नौकर चाकर सब चौकन्ने खड़े थे। रतन सिंह माधो की पत्नी को बाँह से पकड़े घसीटता हुआ अपने कमरे की ओर बढ़ा। उसकी पत्नी बेटी के साथ आँखों से आग उगलती कमरे की दहलीज पर खड़ी थी। पूरी देह क्रोध से कंपित हो रही थी।
रतन सिंह और सरस्वती आमने-सामने थे। रतन सिंह जीत की खुमार में था, फिर भी पत्नी के आग्नेय नेत्रों का सामना करना आसान न था। किंकर्तव्यविमूढ़ रतन सिंह हवेली के पीछे पुरानी हवेली की ओर बढ़ा। माधो की पत्नी सावित्री उस बकरे-सी साथ-साथ खींची जा रही थी, जिसको हलाल होना ही था। पैरों ने बेचारगी में सारी शक्ति मन मस्तिष्क को सौंप दी। सावित्री अगले कदम पर क्या करेगी… मरने मारने की योजना को कैसे अंजाम देगी! माधो की पत्नी का रोना अब रुक-सा गया। वो हौले-हौले रतन सिंह के साथ चल रही थी।
पुरानी हवेली के दो कमरे घर के पुराने नौकरों को दिए हुए थे। रतन सिंह अपनी पुरानी हवेली में आठ साल बाद जा रहा था। उसका भाई जतन सिंह भैरव की पत्नी सीमा को कलाई से पकड़े था। सीमा के रुदन से सारी हवेली में मातम गहराता जा रहा था। बिकाऊ वस्तु से उसकी ठाँव कोई नहीं पूछता। किस घर, किस दर उसका ठिकाना होगा, खरीदार पर निर्भर है।
दोनों औरतों पर कड़ी निगरानी रख रतन सिंह और जतन सिंह अपनी हवेली की ओर बढ़े। रात का सन्नाटा गहराता जा रहा था और चार औरतों की आँखों में नींद कहाँ!
आधी रात द्वार की साँकल बजाते दोनों भाई थक गए, उनकी पत्नियों ने दरवाजा न खोला। अपमान का घूँट पीकर दोनों मेहमानों के कक्ष में जाकर सोए। सुबह सवेरे व्यापार के सिलसिले में जल्दी उठकर तीन दिन के लिए शहर भी जाना था। इन औरतों के मुँह कौन लगे, तीन दिन में सब ठंडा हो जाएगा, सोचते-सोचते आँख लगी तो उन्हें जगाने वाला कोई नहीं था। अतः देर हो गई, बैठक में से कई बार अपने शयनकक्ष की ओर देखा, किंतु कोई हलचल का चिह्न न देख रसोई में मदद करने वाली ताई को आवाज दी। एक-एक गिलास लस्सी का पीकर दोनों भाई शहर की ओर रवाना हुए।
औरत ही औरत की दुश्मन है, किसी ने कहा था। रतन सिंह की पत्नी का मायका बहुत समृद्ध और दो छोटे पहलवान भाई थे। लेकिन इस बार सरस्वती अपने पीहर से किसी को बुलाने वाली नहीं थी। जिसको देखो, औरत पर प्रहार करते, लाज शरम ही नहीं। जीप के निकलते ही सरस्वती पीछे हवेली की ओर चली, हालाँकि जानती थी कि तीन दिन से पहले दोनों लौटेंगे नहीं, फिर भी जो करना है जल्द से जल्द करना होगा।
अपने पीहर से साथ आई ताई से सारे हाल जानकर उसे जमानती औरतों के घर संदेसा भेजा। सरस्वती जानती थी, बात यहाँ से वहाँ न होगी। बहुत विश्वसनीय थी ताई। घर, रसोई सब कुछ उसके हवाले किया हुआ था।
जाने से पहले दोनों औरतों को खाना भिजवाया। पहली बार उसे लगा, वो आग जो अक्सर खेतों में बने घर में लगा करती थी, आज उसकी लपटें घर की दहलीज ही लाँघ गईं। यदि इसकी एक चिंगारी भी शयनकक्ष तक आई तो सरस्वती से काली बनते देर न लगेगी।
आज वो चेहरे पे आत्मविश्वास और जमाने से भिड़ंत को तैयार शक्तिरूपा कमर में पिस्तौल खोंसे पूरी हवेली में घायल शेरनी-सी घूम रही थी। बस, ताई के आने की- प्रतीक्षा थी। सुबह से अन्न का दाना न लिया। शपथ जो ली थी।
पिछले द्वार से भीतर आती ताई को रसोई में ले गई। अब जल्दी ही कुछ करना होगा। जमानती औरतों के द्वार पर लठैत पहरा दे रहे थे। लठैतों को चकमा देना आसान नहीं था। उन्हें किसी तरह खाना खाने के लिए मनाया गया। वे दोनों सामने वाली हवेली की बैठक के बाहर ही मूढ़ों पर बैठ जल्दी-जल्दी खाने लगे।
अब मोर्चा सरस्वती ने सँभाला, जमानती औरतें सरस्वती को अविश्वास की दृष्टि से देख रहीं थीं। उन्हें समझाने बुझाने में समय निकला जा रहा था। सरस्वती ने गाड़ी पिछले द्वार पर लगाई हुई थी। किसी तरह उन जमानती औरतों को लगभग घसीटती हुई बाहर की ओर ले गई।
मायके से आई अंबेसडर कार कभी कभी ही बाहर निकलती थी। एक लंबे अरसे बाद सरस्वती गाड़ी दौड़ा रही थी। साथ ही दोनों औरतों को क्या करना है और क्या नहीं, बार-बार दोहरा रही थी। ऊबड़-खाबड़ रास्तों के बाद सीधा रास्ता आया और कार गाँव के बाहर वाली सड़क पर आकर रुकी।
पेड़ों के पीछे से अपने हाथों में सामान लिए माधो और भैरव बाहर आए। जमींदारनी के पाँव पड़ने लगे। उधर दोनों लठैत घबराए से यहाँ वहाँ उन औरतों को खोज रहे थे।
दूर से बस आती दिखाई दी। सरस्वती ने अब आँख भर दोनों औरतों को देखा। लगा, घबराई हुई छोटी बहनें खड़ी हैं, उनके हाथों को पकड़ तसल्ली दी और कुछ रुपए पकड़ाए। सबके मना करने के बावजूद सरस्वती बोली, ‘‘बड़ी बहन समझकर रख लो, आड़े वक्त काम आएंगे।’’
सबकी आँखें भीग रहीं थीं, झटपट बस में बिठा वापसी की राह ली। अब सरस्वती मुख्य द्वार से भीतर प्रविष्ट हुई। उसमें साहस और हिम्मत कहाँ से आई..! वह स्वयं अपने इस जज्बे से परिचित कहाँ थी! अब सरस्वती बेखौफ रतन सिंह का सामना करने को पूरी तरह तैयार थी।
औरतों को वस्तु समझने वाले पति और देवर के विरुद्ध बिगुल बज चुका था। औरत की शक्ति और साहस के आगे रतन सिंह को झुकना ही होगा, वरना….कुछ निर्णय समय पर छोड़ सरस्वती ने देवरानी को बुलाया और सबने मिलकर स्वादिष्ट भोजन का आनंद लिया। भोजन का स्वाद आज कुछ अलग-सा था, शायद उसमें किसी की प्रार्थना और आशीषों का मसाला मिला था।