-रूपेशकुमारसिंह
गधे की तरह जिन्दगी ढोते, घोड़े की तरह मोहरा लगाकर भेड़चाल में विलीन बुत होते समाज में मूर्तियों की कद्र किसे होगी? जहां रंग न हो, झंडा-बैनर न हो, राजनीति न हो, विचारों की संकीर्णता न हो फिर चाहे किसी ने आसमान पलट दिया हो, कोई याद नहीं रखता।
जीते-जी भुला देने, ध्यान न देने की संस्कृति में किसी जन योद्धा को याद करना, वो भी उसके गुजर जाने के 22 साल बाद, कौन करता है?
जो अग्रज हैं वे दलों में, धड़ों में बंटे हैं। नेताओं की जी-हुजूरी में व्यस्त है। जिसका राज उसी की चमचागिरी आज की सफल जिन्दगी का फलसफा है। इसलिए उन जिन्दा बुत हुए लोगों से क्या उम्मीद?
12 जुलाई, 2020 को पुलिन बाबू को उनकी पुण्यतिथि के बाद एक गोष्ठी में मैं कहा था, “तराई में बसे बंगाली विस्थापित समाज का कोई लिखित दस्तावेज नहीं है। पहली पीढ़ी के जो चश्मदीद बचे हैं उनकी आपबीती दर्ज होनी चाहिए।” और इस काम को मैंने शुरू किया। लगभग ढाई साल तक तराई के बंगाली गाँव में जा-जाकर मैंने बंगाली विस्थापित समाज पर पहली किताब तैयार कर ली है।
यूँ तो बंगाली समाज के गाँधी पुलिन कुमार विश्वास जी का जीवन संघर्ष अलग से एक किताब में दर्ज होने का हकदार है, लेकिन अफसोस यह काम न तो समाज ने किया न परिवार ने।
मैंने पुलिन बाबू के बड़े पुत्र #प्रेरणाअंशु के कार्यकारी संपादक #पलाशविश्वास से बातचीत के बाद #छिन्नमूल के नाम से अपनी पुस्तक के कुछ पन्नों में पुलिन बाबू के व्यक्तित्व को समायोजित किया है।
एक बार फिर पुलिन बाबू की पुण्यतिथि की रस्म अदायगी की गई। होना तो यह था कि समाज के पुरोधा का स्मरण बड़े पैमाने पर होना चाहिए, लेकिन आज भी उनकी मुर्ति पर इस बुत समाज ने सिर्फ चंद मालाएं समर्पित की हैं।
महान आत्माओं का ऐसा सम्मान अखरता है, लेकिन हम क्या करें?
दद्दू! आपसे मेरा संबंध घर आने पर चाय-पानी तक ही सीमित न था, #मास्साब के साथ आपके संवाद का साक्षी भी हूं मैं।
सादर नमन!